सृजन की देवी को कलंकित न करें

किसी प्राणी या पदार्थ की उपयोगिता कितनी है उसी आधार पर उसका मान होता है। मूल्यांकन की यही कसौटी है। उपयोगिता विदित न होने पर बहुमूल्य पदार्थ भी उपेक्षित स्थिति में पड़े रहते हैं। अनजान के लिए बहुमूल्य रत्न राशि भी पाषाण खण्डों की तरह उपेक्षित रहती है। इसी प्रकार उपयोगिता गँवा बैठने पर भी एक समय की सम्मानास्पद स्थिति दूसरे समय में अवमानना के स्तर तक जा पहुँचती है। दुधारू और जराजीर्ण गाय के बीच जो अन्तर किया जाता है उसे देखते हुए यह अनुमान लगाने में किसी को कठिनाई नहीं होनी चाहिए कि संसार में मान और महत्त्व दिये जाने का मापदण्ड क्या है?

नारी की वर्तमान दुर्गति के भी यही दो कारण है। उसे ससुराल की कृपा पर जीवित रहने एवं उनके अनुग्रह पर गुजर करने वाला एक ऐसा निरीह प्राणी समझा जाता है, जिसे यह लाभ प्राप्त करने के लिए अपने पालन कर्त्ताओं का हर उचित अनुचित आदेश शिरोधार्य करना ही चाहिए। इसमें आनाकानी करने पर प्रताड़नाओं का दण्ड ही भुगतना पड़ता है। इतना ही नहीं यदि पालनकर्ता उसे कभी नापसन्द कर बैठे तो उसे आश्रय लाभ से भी वंचित होना पड़ेगा।

विचारनीय है कि क्या नारी वस्तुतः इतनी निरुपयोगी है जिसे अपनी माँसलता को बेचकर ही पालन कर्त्ताओं का अनुग्रह प्राप्त हो सके? स्थिति वस्तुतः वैसी है या नहीं यह दूसरी बात है। पर जब तलक लोक मान्यता यही बनी रहेगी, तब तक उसका सही मूल्यांकन न हो सकेगा और जिसका कुछ मूल्य ही नहीं समझा गया उसे मान देना या ऊँचा उठाने की आवश्यकता भी कौन अनुभव करेगा?

पाकशाला का उत्तरदायित्व नारी संभालती है। कच्चे खाद्य पदार्थ को परोसी गई रसोई की स्थिति तक पहुँचाने में नारी का श्रम ही नियोजित होता है। देखा यह जाना चाहिए कि बाजार में कच्चे खाद्य पदार्थ तथा पके भोजन के मूल्य में कितना अन्तर है। पकी रसोई की थाली बाजार में इन दिनों दो रुपये से कम नहीं मिलती जबकि उसमें कच्ची खाद्य सामग्री एक रुपये से अधिक की नहीं होती। एक रुपया इसमें श्रम और व्यवस्था का जुड़ा हुआ है। यही बात चाय आदि के सम्बन्ध में है। चाय इन दिनों चालीस पैसे की मिलती है जबकि उसमें प्रयुक्त होने वाले पदार्थ का मूल्य बीस पैसे से अधिक नहीं होता। बीस पैसा श्रम व्यवस्था का मूल्य है। हर सदस्य कम से कम दो बार भोजन करता और दो बार चाय पीता है तो उसमें दो रुपया चालीस पैसा श्रम लगा। घर में छः आदमी हो तो यह श्रम प्रायः पन्द्रह रुपया प्रति दिन का जा पहुँचता है। यदि यह छः व्यक्ति होटल में चाय भोजन करें तो उन्हें पन्द्रह रुपया खाद्य सामग्री और पन्द्रह रुपया प्रतिदिन पारिश्रमिक देना होगा। नारी घर में होटल चलाने लगे तो उसे बाजार भाव से पन्द्रह रुपया पारिश्रमिक प्रतिदिन मिलना चाहिए। उसके इस श्रम का आर्थिक मूल्यांकन यदि किया जा सके तो प्रतीत होगा कि नारी को जो भरण पोषण दिया जाता है वह अनुग्रह नहीं वरन उसके पारिश्रमिक का अत्यन्त स्वल्प मूल्य है। होटल में नियत समय पर ही भोजन मिलता है वह हर समय खुला नहीं रहता फिर अपनी मर्जी की वस्तुएँ बनाकर देने के लिये भी वह बाधित नहीं। चाहे जिस समय चाहे जो वस्तु बनाकर देने के लिए चौबीस घण्टे ड्यूटी देने वाला कुशल और ईमानदार रसोइया यदि नौकर रखना हो तो तलाश करना पड़ेगा कि उसका वेतन कितना हो सकता है। इस निर्धारण के समय उसे यह शर्त भी बतानी होगी कि साप्ताहिक, त्यौहारों की संचित छुट्टियाँ उसे नहीं मिलनी है। साथ ही यह भी जताना होगा कि पेन्शन, फण्ड, बोनस आदि की कोई सुविधा उसे नहीं माँगनी चाहिए। इन शर्तों को स्वीकार करने वाले रसोइये की माँग क्या है? यह पूछताछ करने पर नारी की उपयोगिता के एक अत्यन्त तुच्छ अनुदान का मूल्यांकन करना चाहिए जो पाकशाला से सम्बन्धित उसकी श्रम साधना से सम्बन्धित है।

जब छोटी बातों पर ही उतर कर आर्थिक दृष्टि से नारी का मूल्यांकन किया जा रहा है तो उन अन्य कार्यों की भी लिस्ट बनानी होगी जिन्हें नारी को साथ- साथ करना पड़ता है। यह कार्य रसोई से भिन्न है। ऐसे कार्यों में घर की चौकीदारी और धोबी के दो कार्य ऐसे है जिनका आर्थिक लेखा- जोखा अलग से रखा जाना चाहिए। साबुन कितने का लगा और धुलाई कितने दाम की हुई? यह हिसाब लगाते समय धुलाई के पैसे में से साबुन के पैसे काट दिये जाय तो प्रायः आधा पारिश्रमिक बैठता है। यदि स्त्री को दस कपड़े भी नित्य धोते होते हो तो उसकी मजूरी दो रुपये के करीब जा पहुँचेगी। बिना नागा घर की चौकीदारी का उत्तरदायित्व संभालने वाला ऐसा नौकर मुश्किल से ही मिलेगा जो दाव लगने पर स्वयं ही चोरी न करने लगे। इस चौकीदारी की कितनी उपयोगिता है इस बात को उनसे पूछा जा सकता है, जो घर का ताला बन्द करके दफ्तर या सिनेमा जाते हैं। लौटते है तो ताला टूटा मिलता है और सामान गायब। पुलिस में रिपोर्ट लिखाई तो पता चला कि हजारों रुपये की वस्तुएँ चोरी चली गई। घर में नारी होती तो यह विपत्ति क्यों आती? निरन्तर चोरी की आशंका से जो परेशानी रहती है और जल्दी लौटने की मजबूरी रहती है, उसे देखते हुए चौकीदार की नियुक्ति ही उपयोगी प्रतीत होगी। ऐसे चौकीदार तलाश करने पर मिल जाये तो उसके लिए भी कोई तीन चार रुपया दैनिक से कम पर रजामंद न होगा। रसोइया चौकीदार धोबी की तीन ड्यूटी देने वाला अठारह घण्टे बिना नागा श्रम करने वाले मजूर का पारिश्रमिक कितना होता है उसका हिसाब लगाया जाय, तो प्रतीत होगा कि स्त्री नौकरी या व्यापार करके बाहर से कमा कर तो नहीं लाती पर घर में रहकर भी जो करती है उसका पारिश्रमिक भी इतना है जो औसत कमाऊ पुरुष द्वारा किये गये उपार्जन के समतुल्य ही जा बैठता है।

उपरोक्त तीन ड्यूटी ऐसी हैं जो बाजारू नौकरी के समकक्ष है। इनकी चर्चा इसलिए की गई है कि आर्थिक दृष्टि से नारी को महत्त्वहीन न कहा जा सके और उसका बाजारू मूल्य भी कम न ठहराया जा सके। असली कीमत तो इससे आगे की है। जिसका पैसे से मूल्यांकन कर सकना किसी भी प्रकार संभव नहीं हो सकता। वफादारी के कारण, निश्चिन्तता और आत्मीयता के कारण जो प्रफुल्लता मिलती है उसे भाव विज्ञान के कोई पारखी ही बता सकते हैं कि इनकी क्या कीमत होनी चाहिए।

दाम्पत्य जीवन में क्रीड़ा विनोद से लेकर गहन आत्मीयता के जो अनुदान भरे रहते है उन्हें पहाड़ बराबर सोना देकर भी बाहरी लोगों से नहीं खरीदा जा सकता है। यौन लिप्सा की पूर्ति पैसे से हो सकती है किन्तु पत्नी का आत्म समर्पण अन्यत्र कहीं प्राप्त कर सकना संभव नहीं हो सकता। इस अनुदान की दृष्टि से उसे मूर्तिमान कामधेनु ही कहा जा सकता है जिसके अन्तराल से परिवार के हर सदस्य को उसकी आवश्यकता के अनुरूप सरसता की वर्षा अनवरत रूप में उपलब्ध होती रहती है। भले ही इस अनुदान का बाजारू मूल्य ठहराया जा सकना सम्भव न हो सके पर इतना तो मानना ही पड़ेगा कि भावनात्मक अनुदान न केवल पति वरन् समूचे परिवार को नारी के द्वारा ही मिलते है। पुरुष की अर्थ उपार्जन क्षमता एवं व्यवहार कुशलता का अपना महत्त्व हो सकता है, पर ध्यान यह भी रखना होगा कि जीवन की मार्मिक आवश्यकतायें मात्र साधनों से पूरी नहीं होती। चेतना को वे अनुदान चाहिए जिन्हें आत्मीयता के साथ जुड़ी हुई सेवा भावना, वफादारी, मैत्री, क्रीड़ा आदि के रूप में अनेकानेक भाव संवेदनाएँ उपलब्ध कराने वाली उच्च स्तरीय सरसता कह सकते हैं। यह बहुमूल्य नहीं अमूल्य है। इसे नारी के अतिरिक्त कदाचित और कोई दे ही नहीं सकता। बाजार से श्रम खरीदा जा सकता है भाव नहीं। भाव- संवेदना कितनी मूल्यवान होती है इसे प्राण चेतना ही अनुभव कर सकती है।

शरीर के उपरान्त जीवात्मा का दूसरा कलेवर है उसका घर- परिवार, शरीर स्वस्थ सुन्दर हो तो उसमें रहने वाली आत्मा प्रसन्न रहती है। रुग्णता की व्यथा और कुरूपता की लज्जा सभी को अनुभव होती है। आत्मा काया के कलेवर में निवास करता, चैन पाता, रसास्वादन करता एवं विभिन्न उद्देश्यों की पूर्ति कर सकने वाले साधन उपलब्ध करता है। इसके बाद दूसरा स्थान घर- परिवार का है। आमतौर से घर से बाहर चौदह घण्टे व्यतीत होते है और आधे से कम समय उपार्जन व्यवस्था आदि प्रयोजनों के लिए बाहर रहना पड़ता है। काया के बाद सबसे अधिक प्रभाव परिवार की स्थिति का ही पड़ता है। काया कष्ट के बाद परिवार विग्रह ही मनुष्य का सबसे बड़ा दुःख है। कुसंस्कारी परिवार में आये दिन खड़े रहने वाले विग्रहों से वातावरण नरक जैसा बना रहता है। इससे व्यथा वेदना का दुहरा संकट झेलना पड़ता है। मन और शरीर को आधि- व्याधि का जितना दुःख सहना पड़ता है प्रायः वैसी ही व्यथा परिवार की कुसंस्कारी परिस्थितियाँ उत्पन्न करती है। इस क्षेत्र पर सुसंस्कारी नारी ही शासन कर सकती है। परिवार की सज्जा, स्वच्छता, सुव्यवस्था से लेकर पारस्परिक स्नेह सौजन्य को बनाये रहना या बिगाड़ देना नारी के बायें हाथ का खेल है।

बालकों का स्तर बनाने में नारी का जितना हाथ है उतना नर का नहीं। गर्भ से लेकर पाँच वर्ष तक के बालकों का अधिकांश समय माता के साथ लिपटे रहते ही व्यतीत होता है। इसके बाद किशोरावस्था तक पहुँचने की अवधि आने पर्यन्त बालकों को माता आदि के संरक्षण में ही निर्भर रहना पड़ता है। इस अवधि में वे अपने व्यक्तित्व के गहन स्तर का अधिकांश निर्माण सम्पन्न कर चुके होते हैं। इसके बाद का ज्ञान और अनुभव तो मनुष्य के व्यवहार कौशल भर में काम आता है। व्यक्तित्व का स्तर बनाने में माता का, परिवार की नारियों का ही हाथ रहता है। इस दशा में दस वर्ष तक की आयु में ही अधिकांश कार्य निपट चुकता है। तदुपरान्त तो बाहरी साज- सज्जा ही बनती रहती है। स्कूली शिक्षा दूसरे क्रिया कौशल, जन सम्पर्क के आधार पर कुल मिलाकर जो सीखा जाता है वह लोक व्यवहार के काम ही आता है। सभी जानते है कि लोक व्यवहार और क्रिया कौशल से वैभव भले ही कमाया जा सके। व्यक्तित्व की बहुमूल्य सम्पदा तो गुण, कर्म, स्वभाव पर आधारित रहती है और वह कार्य प्रायः बचपन में ही पूरा हो लेता है।

कहना न होगा कि बच्चों के सम्बन्ध में रखी जाने वाली महत्त्वाकांक्षाएँ पूरी करने में नर तो मात्र साधन जुटा सकते हैं उनके अन्तराल में रहने वाले स्तर का स्पर्श तो मात्र वे ही भाग्यवान कर सकते हैं जो माता की तरह ही बच्चों को सन्तोष जनक मात्रा में समय एवं मनोयोग दे पाते हैं। अन्यथा यह कार्य नारी ही सम्पन्न करती है। इस महान प्रयोजन में जिसका समय, श्रम एवं मनोयोग लगता है उसे महत्त्वहीन किस कारण समझा जाना चाहिए। बच्चों पर बड़ी आशा संजोई जाय और उनकी निर्मात्री को नौकरानी से भी गया गुजरा माना जाय। यह विसंगति जहाँ रहेगी वहाँ अन्ततः यही परिणाम सामने आयेगा कि बच्चों के उज्ज्वल भविष्य को उनके सहयोग से मिलने वाले प्रयोजनों की जो आशा की गई थी, वह एक प्रकार से निरर्थक ही चली गई।

जीवन क्रम के साथ अनेक रहस्य जुड़े रहते हैं। जिन्हें अन्यों के सम्मुख प्रकट करना सम्भव नहीं होता। अर्थ व्यवस्था पर तो पर्दा ही डाले रहने की आवश्यकता अनुभव की जाती है। ऐसा विश्वस्त मित्र कदाचित ही कोई हो सकता है जिसके सामने इस गुह्य का प्रकटीकरण संभव हो सके। बिना प्रकटीकरण के परामर्श, सुरक्षा और भावी नीति का निर्धारण अकेले ही कर लेना बन नहीं पड़ता।

विपत्ति के ऐसे अवसर भी समय- समय पर आते हैं जब मनुष्य अपने को कातर, असहाय, विक्षुब्ध असन्तुलित एवं आवेश ग्रस्त स्थिति में फँसा हुआ अनुभव करता है। अप्रत्याशित विपत्तियाँ मानसिक सन्तुलन गड़बड़ा देती है और किंकर्तव्यविमूढ़ स्थिति में फँसा हुआ व्यक्ति अपने लिए अथवा दूसरों के लिए अनर्थ करने पर उतारू हो जाता है। इस स्थिति से उबारने में उपदेश काम नहीं करते इस आग को स्नेह सिक्त सरसता से भरी पूरी सान्त्वना ही शान्त कर सकती है। निराशा को आशा में, विषाद को मुस्कान में बदलने की क्षमता और किसी में नहीं, आत्मीयता और सच्ची सहकारिता से युक्त घनिष्ठता में ही है। ऐसी घनिष्ठता प्रकृति ने नारी को ही दी है। वह शरीरगत कठोरता की दृष्टि से भले ही हलकी पड़ती हो आत्मगत सौजन्य उसी में सृष्टा ने कूट- कूटकर भरी है। नारी के अंचल की छाया में बढ़कर शान्ति और शीतलता की अनुभूति कदाचित ही कही हो सके।

सृष्टा की कलाकारिता और सौन्दर्य सज्जा का अद्भुत सम्मिश्रण नारी की काया में ही हुआ है। उसकी चरण रज से लेकर भृकुटि भंगिमा तक से ऐसी दिव्य लहरे उठती है, जिनमें उच्च स्तरीय अनुदानों के भण्डार झाँकते देखे जा सकते हैं। उसकी पवित्र कोमलता में पारिजात पुष्पों का सार तत्व भरा है। श्रद्धा करुणा, ममता, क्षमा, तुष्टि, तृप्ति, शान्ति की सप्त मातृकायें यों पृथक- पृथक देवियाँ गिनी जाती हैं। उन सातों का समन्वय देखना हो तो भाव नेत्रों के खुलते ही प्रत्येक नारी में इनका प्रत्यक्ष प्रकटीकरण दृष्टिगोचर हो सकता है।

नर भी अपने स्थान पर महत्त्वपूर्ण है। साहसिकता और चतुरता उसकी विशिष्टता है, पर यह तो कोई अन्य प्राणियों में भी पाई जाती है। नारी वह है जिसमें मानवता के तत्वों की कमी नहीं और देवत्व की वे विभूतियाँ भरी पड़ी है, जिन्हें वर्षा जैसा अनुकूल वातावरण मिलते ही दूब की सूखी जड़ों के समतुल्य हरी भरी हो उठने की पूरी- पूरी सम्भावना है। नर वृक्ष है और नारी उसकी पतली किन्तु सुविस्तृत भूमि में फैली हुई जड़।

तथ्यों से अवगत न होने के कारण ही सर्वत्र नारी की अवमानना हो रही है। उसे उपेक्षित रखकर तिरष्कृत किया जा रहा है। रत्न राशि का महत्त्व न समझने पर पर्वतीय क्षेत्रों के वनवासी घाटे में ही रहते हैं। जन मानस को तथ्यों से अवगत कराना आवश्यक हो तो उसे सर्वप्रथम यह सिखाया जाना चाहिए कि नारी की गरिमा समझी जाय और उसे सुविकसित समुन्नत बनाने के लिए हर संभव उपाय किया जाय।

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