नारी सम्बन्धी अतिवाद को अब तो विराम दें

कुछ समय से नर- नारी के सान्निध्य का प्रश्र अतिवाद के दो अन्तिम सिरों के साथ जोड़ दिया गया है। एक ओर तो नारी को इतनी आकर्षक चित्रित किया गया कि उसकी मांसलता को ही सृष्टि की सबसे बड़ी विभूति सिद्ध कर दिया गया। कला ने नारी के अंग- प्रत्यंग की सुडौलता को इतना सराहा कि सामान्य भावुक व्यक्ति यह सोचने के लिए विवश हो गया कि ऐसी सुन्दरता को काम तृप्ति के लिए प्राप्त कर लेना जीवन की सबसे बड़ी उपलब्धि है। गीत, काव्य, संगीत, नृत्य, अभिनय, चित्र, मुर्ति आदि कला के समस्त अंग जब नारी की मांसलता और कामुकता को ही आकाश तक पहुँचाने में जुट जाये, तो बेचारी लोकवृत्ति को उधर मुड़ना ही पड़ेगा। इस कुचेष्टा का घातक दुष्परिणाम सामने आया। यौन प्रवृत्तियाँ भड़की, नर- नारी के बीच का सौजन्य चला गया और एक दूसरे के लिए अहितकर बन गये। यौन रोगों की बाढ़ आई, शरीर और मन जर्जर हो गया, पीढ़ियाँ दुर्बल से दुर्बलतर होती चली गई, मन:स्थिति उस कुचेष्टा के चिन्तन में तल्लीन होने के कारण कुछ महत्वपूर्ण चिन्तन कर सकने में असमर्थ हो गयी। तेज, ओज, व्यक्तित्व, प्रतिभा, मेधा, शौर्य और वर्चस्व जो कुछ महान था, वह सब कुछ इसी कुचेष्टा की वेदी पर बलि हो गया। दुर्बल काया और मन:स्थिति को लेकर दीन- हीन और पतित- पापी ही बन सकता था, सो बनता चला गया। नारी को रमणी सिद्ध करके तुच्छ सा मनोरंजन भले पाया हो, पर उससे जो हानि हुई उसकी कल्पना कर सकना भी कठिन है। जिनने भी मानवीय प्रवृत्तियों को इस पतनोन्मुख दिशा में मोड़ने के लिये प्रयत्न किया है वस्तुत: एक दिन वे मानवीय विवेक और ईश्वरीय न्याय की अदालत में अपराधियों की तरह खड़े किये जायेंगे।

अतिवाद का एक सिरा यह है कि कामिनी, रमणी, वैश्या आदि बना कर उसे आकर्षण का केन्द्र बनाया गया। अतिवाद का दूसरा सिरा है कि उसे पर्दें, घूँघट की कठोर जंजीरों में जकड़ कर अपंग सदृश्य बना दिया गया, उस पर इतने प्रतिबन्ध लगाये गये जितने बन्दी और पशु भी सहन नहीं कर सकते। जेल के कैदियों को थोड़ा घूमने- फिरने की, हँसने- बोलने की आजादी रहती है। पर घर की छोटी सी कोठरी में कैद नववधू के लिए परिवार के छोटी आयु वालों के सामने ही बोलने की छूट है। बड़ी आयु वालों से तो उसे पर्दा ही करना होता है। न उनके सामने मुँह खोला जा सकता है और न उनसे बात की जा सकती है। पर्दा सो पर्दा, प्रथा सो प्रथा, प्रतिबन्ध सो प्रतिबन्ध। इससे न्याय, औचित्य और विवेक के लिए क्यों गुंजयश छोड़ी जाय। पशु को मुँह पर नकाब लगाकर नहीं रहना पड़ता। वे दूसरों के चेहरे देख सकते हैं और अपने दिखा सकते है। जब मर्जी हो चाहे जिसके सामने अपनी टूटी- फूटी वाणी बोल सकते हैं। पर नारी को इतने अधिकार से भी वंचित कर दिया गया।

इस अमानवीय प्रतिबन्ध की प्रतिक्रिया बुरी हुई। नारी शारीरिक स्वास्थ्य की दृष्टि से बहुत पिछड़ गई। भारत में नर की अपेक्षा नारी की मृत्यु दर बहुत अधिक है। मानसिक दृष्टि से वह आत्महीनता की ग्रन्थियों में जकड़ी पड़ी है। सहमी, झिझकी, डरी, घबराई, दीन- हीन अपराधिन की तरह वह यहाँ- वहाँ लुकती छिपती देखी जा सकती है अन्याय अत्याचार और अपमान पग- पग पर सहते- सहते क्रमश: अपनी सभी मौलिक विशेषताएँ खोती चली गई। आज औसत नारी उस नीबू की तरह है, जिसका रस निचोड़ कर उसे कूड़े में फेंक दिया जाता है। नव यौवन के दो चार वर्ष ही उसकी उपयोगिता प्रेमी पतिदेव की आँखों में रहती है। अनाचार की वेदी पर जैसे ही उस सौन्दर्य की बलि चढ़ी कि वह दासी मात्र रह जाती है। आकर्षण की तलाश में भौंरे फिर नये- नये फूलों की खोज में निकलते और इधर- उधर मँडराते दीखते हैं। जीवन की लाश का भार ढोती हुई, गोदी के बच्चों के लिए वह किसी प्रकार मौत के दिन पूरे करती है। जो था वह दो चार वर्ष में लुट गया, अब बेचारी को कठोर परिश्रम के बदले पेट भरने के लिए रोटी और पहनने को कपड़े भर पाने का अधिकार है। बन्दिनी का अन्त:करण इस स्थिति के विरुद्ध भीतर ही भीतर कितना ही विद्रोही बना बैठा रहे, प्रत्यक्षत: वह कुछ न कर सकने की परिस्थितियों में ही जकड़ी होती है, सो गम खाने और आँसू पीने के अतिरिक्त उसके पास कुछ चारा नही रह जाता।

तीसरा एक और अतिवाद पनपा। अध्यात्म के सन्च से एक और बेसुरा राग अलापा गया कि नारी ही दोष- दुर्गुणों की, पाप- पतन की जड़ है। इसलिए उससे सर्वथा दूर रहकर ही स्वर्ग- मुक्ति और सिद्धि प्राप्त की जा सकती है। इस सनक के प्रतिपादन में न जाने क्या- क्या घड़ंत गड़कर खड़ी कर दी गई। लोग घर छोड़कर भागने में, स्त्री, बच्चों को बिलखता छोड़कर भीख माँगने और दर- दर भटकने के लिए निकल पड़े। समझा गया इसी तरह योग साधना होती होगी इसी तरह स्वर्ग मुक्ति और सिद्धि मिलती होगी। पर देखा ठीक उलटा गया। आन्तरिक अतृप्ति ने उनकी मनोभूमि को सर्वथा विकृत कर दिया और वे तथाकथित सन्त महात्मा सामान्य नागरिकों की अपेक्षा भी गई गुजरी मन:स्थिति के दलदल में फँस गये। विरक्ति का जितना ही ढोंग उनने बनाया अनुरक्ति की प्रतिक्रिया उतनी ही उग्र होती चली गई। उनका अन्तरंग यदि कोई पढ़ सकता हो, तो प्रतीत होगा कि मनोविकारों ने उन्हें कितना जर्जर कर रखा है। स्वाभाविक की उपेक्षा करके अस्वाभाविक के जाल- जंजाल में बुरी तरह जकड़ गये हैं। ऐसे कम ही विरक्त मिलेंगे जिनने बाह्य जीवन में जैसे नारी के प्रति घृणा व्यक्त की है, वैसे ही अन्तरंग में भी उसे विस्मृत करने में सफल हो पाये हो। सच्चाई यह है कि विरक्ति का दम्भ अनुरक्ति को हजार गुना बढ़ा देता है। बन्दर का चिन्तन न करेंगे ऐसी प्रतिज्ञा करते ही बरबस बन्दर स्मृति पटल पर आकर उछलकूद मचाने लगता है।

आध्यात्मिक काम विज्ञान का प्रतिपादन यह है कि अतिवाद की भारी दीवारें गिरा दी जाय और नारी को नर की ही भाँति सामान्य और स्वाभाविक स्थिति में रहने दिया जाय। इससे एक बड़ी अनीति का अन्त हो जायेगा। अतिवाद के दोनों ही पक्ष नारी के वर्चस्व पर भारी चोट पहुँचाते हैं और उसे दुर्बल, जर्जर एवं अनुपयोगी बनाते हैं। इसलिए इन जाल- जंजालों से उसे मुक्त करने के लिए उग्र और समर्थ प्रयत्न किये जाय।

प्रयत्न होना चाहिए कि नारी की मांसलता की अवांछनीय अभिव्यक्तियाँ उभारने वालों से अनुरोध किया जाय, कि वे अपने विष बुझे तीर कृपाकर तरकस में बन्द कर लें। फिल्म वाले इस दिशा में बहुत आगे बढ़ गये है। उनने बन्दर के हाथ तलवार लगने जैसी कुचेष्टा की आशंका की, वैसी ही करतूतें आरम्भ कर दी हैं। आग लगा देना सरल है बुझाना कठिन। मनुष्य की पशु प्रवृत्तियों को, यौन उद्वेग और काम विकारों को भड़का देना सरल है पर उस उभार से जो सर्वनाश हो सकता है, उससे बचाव की तरकीब ढूंढ़ना कठिन है। नासमझ लड़के- लड़कियों पर आज का सिनेमा क्या प्रभाव डाल रहा है और उनकी मनोदशा को किधर घसीटे लिये जा रहा है, इस पर बारीकी से दृष्टि डालने वाला दुखी हुए बिना न रहेगा। कला के अन्य क्षेत्रों में काम करने वाले विभूतिवानों से करबद्ध प्रार्थना की जाय के वे नारी को पददलित करने के पाप पूर्ण अभियान में जितना कुछ कर चुके, उतना ही पर्याप्त मान लें आगे की ओर निशाने न साधें। कवि लोग ऐसे गीत न लिखें, जिनसे विकारोत्तेजक प्रवृत्तियाँ भड़कें। साहित्यकार, उपन्यासकार कलम से नारी के गोपनीय सन्दर्भों पर भड़काने वाली चर्चा छोड़कर सरस्वती की साधना को अगणित धाराओं में प्रयुक्त कर अपनी प्रतिभा का परिचय दें। गायक विकारोत्तेजना और शृंगार रस को कुछ दिन तक विश्राम कर लेने दें। सामन्तवादी अन्धकार युग के दिनों उसे ही तो एक छत्र राज्य मिला है। गायन का अर्थ ही पिछले दिनों कामेन्द्रिय रहा है। राज्य दरबारों से लेकर मनचले आवारा हिप्पियों तक उसी को माँगा जाता रहा है। अब कुछ दिनों से गान विश्राम ले लें और दूसरे रसों को भी जीवित रहने का अवसर मिल जाय तो क्या हर्ज है? कुछ दिन तक घँघरुबजें, पायल न खनकें तो भी कला जीवित रहेगी। चित्रकार नव यौवना की शालीनता पर पर्दा पड़ा रहने दें, पतित दुःशासन द्वारा द्रौपदी को नंगा करने की कुचेष्टा न करें, तो भी उनकी चित्रकारिता सराही जा सकती है। चित्रकला के दूसरे पक्ष भी हैं, क्यों न कुशल चित्रकार सुरुचि उत्पन्न करने वाले चित्र बनायें। मूर्तिकार क्यों न मानवीय अन्तर्वेदना को उभारने वाली प्रतिमाये बनायें।

नारी के प्रति हमारा चिन्तन सखा, सहचर और मित्र जैसा सरल स्वाभाविक होना चाहिए। उसे सामान्य मनुष्य से न अधिक माना जाय न कम। पुरुष और पुरुष, स्त्रियाँ और स्त्रियाँ जब मिलते है तो उनके असंख्य प्रयोजन होते हैं, काम सेवन जैसी बात वे सोचते भी नहीं। ऐसे ही नर- नारी का मिलन भी स्वाभाविक सरल और सौम्य बनाया जाना चाहिए। यह स्थिति निश्चित रुप से आ सकती है, क्योंकि वही प्राकृतिक है। इसी प्रकार रूढ़िवादियों से कहा जाना चाहिए कि प्रतिबन्धों से व्यभिचार रुकेगा नहीं बढ़ेगा। जिस स्त्री का मुँह ढँका होता है उसे देखने को मन चलेगा पर मुँह खोले सड़क पर हजारों लाखों स्त्रियों में से किसी की ओर नजर गढ़ाने की इच्छा नहीं होती चाहे वे रूपवान हो या कुरूप।

इसी प्रकार अध्यात्मवाद के नाम पर नारी तिरस्कार और बहिष्कार की बेवक्त शहनाई बन्द कर देनी चाहिए। जिन भगवान की हम उपासना करते है और जिनसे स्वर्ग मुक्ति सिद्धि माँगते हैं वे स्वयं सपत्नीक हैं। एकाकी भगवान एक भी नहीं। राम, कृष्ण, शिव, विष्णु आदि किसी भी देवता को लें सभी विवाहित हैं। सरस्वती, लक्ष्मी, काली जैसी देवियों तक को दाम्पत्य जीवन स्वीकार रहा है। हर भगवान और हर देवता के साथ उनकी पत्नियाँ विराजमान है फिर उनके मनों को अपने इष्ट देवों से भी आगे निकल जाने की बात क्यों सोचनी चाहिए?

सप्त ऋषियों में सातों के सातों विवाहित थे और उनके साधना काल की तपश्चर्या अवधि में भी पत्नियाँ उनके साथ रही। इससे उनके कार्य में बाधा रत्ती भर नहीं पहुँची, वरन् सहायता ही मिली। प्राचीन काल में जब विवेकपूर्ण आध्यात्म जीवित था तब कोई सोच भी नहीं सकता था कि आत्मिक प्रगति में नारी के कारण कोई बाधा उत्पन्न होगी।

रामकृष्ण परमहंस को विवाह की आवश्यकता अनुभव हुई और उनने उस व्यवस्था को तब जुटाया जब वे आत्मिक प्रगति के ऊँचे स्तर पर पहुँच चुके थे। काम सेवन और नारी सान्निध्य एक बात नहीं है। इसके अन्तर को भली- भाँति समझा जाना चाहिए। योगी अरविन्द घोष की साधना का स्तर कितना ऊँचा था, उसमें सन्देह करने की कोई गुंजायश नहीं है। उनके एकाकी जीवन की पूरी- पूरी साज सँभाल माताजी करती रही। इस सम्पर्क से दोनों की आत्मिक महत्ता बढ़ी ही घटी नहीं। प्रात: स्मरणीय माताजी ने अरविन्द के सम्पर्क से भारी प्रकाश पाया और योगिराज को यह सान्निध्य गंगा के समान पुण्य फलदायक सिद्ध हुआ। प्राचीन काल का ऋषि इतिहास तो आदि से अन्त तक इस सरल स्वाभाविक की सिद्धि करता चला आया है। तपस्वी ऋषि सपत्नीक स्थिति में रहते थे। जब जरूरत पड़ती प्रजनन की व्यवस्था बनाते अन्यथा आजीवन ब्रह्मचारी रहकर भी नारी सान्निध्य की व्यवस्था बनाये रखते। यह उनके विवेक पर निर्भर रहता था, प्रतिबन्ध जैसा कुछ नहीं था। यह स्थिति आज भी उपयोगी रह सकती है। सन्त लोग अपना व्यक्तिगत जीवन विवाहित या अविवाहित जैसा भी चाहें बिताये पर कम से कम उन्हें इस अतिवाद का ढिंढोंरा पीटना तो बन्द ही कर देना चाहिए, जिसके अनुसार नारी को नरक की खान कहा जाता है। यदि ऐसा वस्तुत: होता तो गाँधी जी जैसे सन्त नारी त्याग की बात सोचते। कोई अधिक सेवा सुविधा की दृष्टि से या उत्तरदायित्व हलके रखने की दृष्टि से अविवाहित रहे, तो यह उसका व्यक्तिगत निर्णय है। इससे यह सिद्ध नहीं होता कि ये भी कोई प्रतिबन्ध हो सकता है या होना चाहिए। सच तो यह है कि सन्त लोग यदि सपत्नीक सेवा कार्य में जुटें, तो वे अपना आदर्श लोगों के सामने प्रस्तुत करके उच्च स्तरीय ग्रहस्थ जीवन की सम्भावना प्रत्यक्ष प्रमाण की तरह प्रस्तुत कर सकते हैं।

काम का अर्थ विनोद, उल्लास और आनन्द है। मैथुन को ही काम नहीं कहते। काम क्षेत्र की परिधि में वह भी एक बहुत ही छोटा और नगण्य सा माध्यम हो सकता है, पर वह कोई निरन्तर की वस्तु तो है नहीं। यदा- कदा ही उसकी उपयोगिता होती है। इसलिए मैथुन को एक कोने पर रखकर उपेक्षणीय मानकर भी काम लाभ किया जाता है। स्नेह, सद्भाव, विनोद, उल्लास की उच्च स्तरीय अभिव्यक्तियाँ जिस परिधि में आती हैं उसे आध्यात्मिक काम कह सकते हैं।

नर- नारी के बीच व्यापक सद्भाव सहयोग की, सम्पर्क की स्थिति में ही व्यक्ति और समाज का विकास सम्भव है। उससे हानि रत्ती भर भी नहीं। स्मरण रखा जाय पाप या व्यभिचार का सृजन सम्पर्क से नहीं दुर्बुद्धि से होता है। पुरुष डाक्टर नारी के प्रजनन अवयवों तक का आवश्यकतानुसार आपरेशन करते है। उसमें न पाप है, न अश्लील, न अनर्थ। रेलगाड़ी की भीड़ में नर- नारियों के शरीर पिचे रहते हैं। जहाँ पाप वृत्ति न हो वहाँ शरीर का स्पर्श दूषित कैसे होगा? हम अपनी युवा पुत्री के शिर और पीठ पर स्नेह का हाथ फिराते है तो पाप कहाँ लगता है। सान्निध्य पाप नहीं है। पाप तो एक अलग ही छूत की बीमारी है जो तस्वीरें देखकर भी चित्त को उद्विग्र कर सकने में समर्थ है। इलाज इस बीमारी का किया जाना चाहिए। हमारी कुत्सा का दण्ड बेचारी नारी को भुगतना पड़े, यह सरासर अन्याय है। इस अनीति को जब तक बरता जाता रहेगा, नारी की स्थिति दयनीय ही बनी रहेगी और इस पाप का फल व्यक्ति और समाज को असंख्य अभिशापों के रूप में बराबर भुगतना पड़ेगा।

भगवान वह शुभ दिन जल्दी ही लाये जब नर- नारी स्नेह सहयोग की तरह, मित्र और सखा की तरह एक दूसरे के पूरक बनकर सरल स्वाभाविक नागरिकता का आनन्द लेते हुए जीवनयापन कर सकने की मन:स्थिति प्राप्त कर लें। हम विकारों को रोके, सान्निध्य को नहीं। सान्निध्य रोककर विकारों पर नियन्त्रण पा सकना सम्भव नहीं है। इसलिए हमें उन स्रोतों को बन्द करना पड़ेगा, जो विकारों और व्यभिचार को भड़काने में उत्तरदायी हैं। अग्रि और सोम, प्राण और रयि, ऋण और धन विद्युत प्रवाहों का समन्वय इस सृष्टि के संचरण और उल्लास को अग्रगामी बनाता चला आ रहा है। नर- नारी का सौम्य सम्पर्क बढ़ाकर हमें खोना कुछ नहीं पाना अपार है।







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