नव जागरण नारी जागृति के बिना सम्भव नहीं

देश में विश्व में नर रत्नों का उत्पादन बढ़े, यही समय की सबसे बड़ी आवश्यकता है और इसकी पूर्ति सुसंस्कृत नारी के अतिरिक्त और कोई कर ही नहीं सकता। बौद्धिक ज्ञान की अभिवृद्धि स्कूलों में हो सकती है। शिल्प उद्योग की शिक्षा उद्योगशालाओं में, विज्ञान की प्रयोगशालाओं में, कलाकौशल की तदुद्देशीय संस्थानों में मिल सकती है, पर व्यक्तित्व को उत्कृष्टता के ढाँचे में ढालने का कार्य परिवार की प्रयोगशाला के अतिरिक्त अन्यत्र कहीं नही हो सकता। 
  
बच्चे आसमान से नही उतरते। वे माता के शरीर का ही एक भाग होते हैं। उनमें विद्यमान चेतना का चेतना परिपोषण भी माता के द्वारा ही होता है। गर्भस्थ शिशु में प्रसुप्त चेतना को जागृत और विकसित करने का काम माता का अचेतन ही करता रहता है। प्रसव के उपरान्त शिशु का आहार माता के वक्षस्थल से ही मिलता है। दूध भी रक्त जैसा ही एक रसायन है, जो माता के शरीर ही नहीं, मन की भी संयुक्त प्रक्रिया अपने साथ  जोड़े रहता है। बच्चा इसी को पीता है और न केवल भूख बुझाता, शरीर बढ़ाता है, वरन् चिंतन एवं दृष्टिकोण का भी इसी अनुदान के आधार पर विकास करता है। अमीरों को छोड़कर सामान्यतया सभी के बच्चे रातों में माता के साथ सोते और दिन में उसी के इर्द- गिर्द मँडराते रहते हैं। मानवी विद्युत के विज्ञान को जो लोग समझते हैं, उन्हें यह स्वीकार करने में तनिक भी कठिनाई न होगी कि प्रबल विद्युत सम्पन्न व्यक्ति अपने से दुर्बल साथियों को अनायास ही प्रभावित करता और छाप छोड़ता रहता है। पर्यवेक्षण से इस तथ्य को प्रत्यक्ष देखा जा सकता है कि मनुष्य पर सूक्ष्म स्तर का प्रभाव अन्य सबकी अपेक्षा माता का ही अधिक पड़ता है। 

नवयुग की नई फसल के लिए नये धान रोपने पड़ेंगे और उसके लिए नई भूमि तैयार करनी होगी। सभी जानते हैं कि ऊसर, बंजर, रेतीली, खार वाली, खाद पानी रहित, कंकड़- पत्थरों से भरी हुई ऊबड़- खाबड़ जमीन में अच्छी फसल उगाना अन्य ऊपरी उपचारों से भी सम्भव नहीं होता। अच्छी फसल पाने के लिए अच्छी भूमि की आवश्यकता समझी जा सकती है, तो फिर यह मानने में किसी को कोई कठिनाई न होनी चाहिए कि अगली प्रखर पीढ़ी के निर्माण की भूमिका सुविकसित जननी के अतिरिक्त और किसी के लिए भी सम्भव नहीं हो सकती। 

पीढ़ी से मतलब सौ पचास वर्ष नहीं, दस बीस वर्ष का निकटवर्ती भविष्य ही हो सकता है। जो बालक अभी दस वर्ष के हैं, वे दस- पन्द्रह वर्ष बाद पच्चीस तीस के होंगे और समाज को प्रभावित करने वाली भूमिकाओं निभाने में अपनी प्रतिभा का प्रयोग कर रहे होंगे। जो बच्चा पेट में है या प्रवेश करने वाला है, वह भी बीस वर्ष का होते- होते परिपक्वता के निकट पहुँचने और समाज को प्रभावित करने की स्थिति में होगा। पेट के, गोदी के या पढ़ने खेलने वाले छोटे बालकों का समुदाय दस से लेकर बीस वर्ष के भीतर इस स्थिति में होगा कि उस समय का समाज उन्हीं के द्वारा गठित, संचालित एवं प्रभावित हो सके। मानवी भविष्य निर्धारण एवं व्यापक परिवर्तनों की दृष्टि से यह अवधि कोई बड़ी नहीं है। सुदृढ़ पेड़ों को छायादार और फलदार बनते- बनते भी इतना समय तो लग ही जाता है। 

युग परिवर्तन हथेली पर सरसों जमाने की तरह जादुई ढंग से नही हो सकता। बड़े काम बड़ी व्यवस्था, धैर्य, प्रयत्न, सूझबूझ एवं तैयारी के साथ सम्पन्न होते हैं। भविष्य को सुखद बनाने के लिए जिस प्रकार भौतिक  सुविधा साधनों की अभिवृद्धि के प्रयत्न चल रहे हैं, उससे भी अधिक उत्साह के साथ उत्कृष्ट व्यक्तित्वों के निर्माण का प्रयत्न योजनाबद्ध रूप से सँजोया जाना चाहिए। पत्ते सींचकर मुरझाये वृक्ष को तत्काल हरा- भरा कर देने की उतावली जिन्हें हो, जो तुर्त−फुर्त सब कुछ देखना चाहते हों उनकी बात दूसरी है। अन्यथा इस भवन निर्माण का प्रारम्भ भूमि पूजन के शुभारंभ सहित किया जाना चाहिए। यहाँ भूमि पूजन से तात्पर्य है- नारी उत्कर्ष। जागृत नारी ही उन विभूतियों एवं विशेषताओं से सम्पन्न हो सकती है, जिसके सहारे नई पीढ़ी की उत्कृष्टता के साथ जुड़ा हुआ उज्ज्वल भविष्य का स्वप्न साकार बन सकना सम्भव हो सके। 
पीढिय़ाँ जनने और सुयोग्य बनाने से भी पूर्व पारिवारिक वातावरण का नव निर्माण आवश्यक है। बच्चों को प्रभावित करने के लिए तो यह नितान्त आवश्यक है ही। आज की स्थिति में सुखद परिवर्तन लाने की दृष्टि से भी यह ऐसा कदम है, जो अविलम्ब उठाया जाना चाहिए। नारी को तो चौबीसों घण्टे घर की चहार दीवारी के भीतर रहना पड़ता है। बच्चे भी अधिकतर उसी में अपना समय गुजारते हैं। बड़े भी आजीविका उपार्जन अथवा अन्य कार्यों के लिए दस बारह घण्टे से अधिक बाहर नहीं रहते, उन्हें भी अधिक समय नहाने, खाने, सोने, पारिवारिक कार्यों को देखने संभालने के लिए घर में ही रहना पड़ता है। इस प्रकार वास्तविक जीवन का अधिकतर भाग घर परिवार के कार्य क्षेत्र में ही गुजरता है। 
  
पारिवारिक सुख के लिए अर्थ साधनों की आवश्यकता से कोई इन्कार नहीं करता, पर ध्यान में रखने योग्य बात यह है कि इस प्रयोजन के लिए सबसे बड़ी आवश्यकता सद्भावना एवं सुव्यवस्था की है। यह दोनों तत्व विद्यमान रहेंगे तो अभाव ग्रस्त परिस्थितियों में भी हँसते- हँसाते दिन गुजारे जा सकते हैं। स्नेह, सौजन्य, सहकार, सद्व्यवहार ही वह पूँजी है, जिसके सहारे एक साथ रहने वाले मनुष्य पारस्परिक आदान- प्रदान से छोटे से परिवार में स्वर्गीय वातावरण का सृजन कर सकते हैं। स्वर्ग में हर्षोल्लास की परिस्थितियाँ मिलने की कल्पना की जाती है। उसका व्यावहारिक और प्रत्यक्ष रूप देखना हो तो किसी सद्गृहस्थ के घर  परिवार में प्रवेश करके देखा जा सकता है। ऐसे स्नेहासिक्त वातावरण में रहने के लिए हर किसी का मन ललचायेगा भले ही वहाँ साधनों की न्यूनता का ही सामना क्यों न करना पड़े। ऐसे ही परिवारों में सुसंस्कारी बालक विकसित होते हैं और उन्हीं का परिष्कृत व्यक्तित्व बड़े होने पर उन महामानवों की श्रेणी में ला बिठाता है। जिन्दगी को चैन से गुजारने के लिए भी ऐसी ही पारिवारिक परिस्थितियाँ होनी चाहिए। 

प्रश्र यहाँ भी यही उत्पन्न होता है कि ऐसा वातावरण किस प्रकार उत्पन्न हो, उसका सृजन कौन करें? इस ताले की कुंजी सुगृहिणी के हाथ में है। नर सुयोग्य और सुसम्पन्न होने पर इस सन्दर्भ में हाथ बँटा सकता है, साधन जुटा सकता है, पर आगे बढ़कर कोई बड़ी भूमिका निभा सकना उसके लिए संभव नहीं हो सकता। क्योंकि उसकी भूमिका परिवार व्यवस्था में बहुत ही स्वल्प होती है। नहाने, खाने, सोने जैसे ढर्रे के नित्य  कर्मों को करने में ही उसका अधिकाँश समय बीत जाता है। निपटने के बाद तुरन्त आजीविका उपार्जन अथवा दूसरे आवश्यक कार्यों के लिए उसे बाहर भागने की जल्दी पड़ती है। ऐसी दशा में वह झल्लाने- समझाने की रस्म पूरी कर देने के अतिरिक्त कोई महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा ही नहीं पाता। यह कार्य तो सुयोग्य गृहणी ही कर सकती है। गृह लक्ष्मी जो नाम दिया गया है, वह अलंकार या भावुकता नहीं उसके पीछे तथ्य है। लक्ष्मीजी के व्यक्तित्व और कर्तृत्व ने अपने लोक को स्वर्ग बनाया, इस पौराणिक प्रतिपादन का प्रत्यक्ष उदाहरण देखना हो, तो किसी गृहलक्ष्मी के घर में जाकर वहाँ बरसने वाले स्नेह, सौजन्य और सज्जनोचित क्रियाकलापों के माध्यम से सहज ही देखा जा सकता है। 
हमारे घरों में ऐसा वातावरण बने तो उस प्रयोजन की बहुत कुछ पूर्ति मात्र भावनात्मक आधार पर ही हो सकती हैं, जिसके लिए प्रचुर सम्पदा का संग्रह आवश्यक समझा जा सकता है। उत्कृष्ट व्यक्तित्वों के लिए नई पीढ़ी कार्यक्षेत्र में उतरे, इसकी प्रतीक्षा करने की भी आवश्यकता नहीं है। आज जैसी भी कुछ परिस्थितियाँ हैं उन्हीं में परिवारों के उद्यान इस स्तर के बनाये जा सकते हैं, जिनमें लगे वृक्ष आज की अपेक्षा कल ही अधिक छाया, हरियाली और फल- फूलों की सम्पदा प्रदान करने लगें। परिवारों का वातावरण सुसंस्कारी बनाया जा सके तो उसमें रहने, पलने वाले व्यक्ति कुछ ही समय में दूसरे ढाँचे में ढले हुए प्रतीत होंगे और परिवर्तन की प्रक्रिया कल से ही आरम्भ हो जायेगी। 

आन्दोलनों के चकाचौंध में हमें वे ही कार्य महत्त्वपूर्ण मालूम पड़ते हैं, जिनके लिए धुँआधार शोर मचता है और कर्णभेदी नगाड़े बजते हैं। लोग यह भूल जाते है कि महत्त्व उपद्रवों, धमाकों एवं बवण्डरों का नहीं, वरन्  उन सृजनात्मक प्रवृत्तियों का है, जो मनुष्य की अन्त:चेतना को प्रत्यक्ष रूप से प्रभावित करती है। परिवारों का वातावरण यदि परिष्कृत किया जा सके तो उनमें पलने और परिपक्व होने वाले व्यक्ति कल से ही प्रसन्नचित्त, सत्प्रयोजनों में निरत होते और सन्तुष्ट उल्लसित दिखाई पड़ सकते हैं। ऐसे लोगों की न केवल क्रियाशक्ति, विवेकशक्ति ही बढ़ेगी, वरन् ये सृजनात्मक प्रयोजनों में बढ़- चढ़कर अनुदान भी प्रस्तुत कर रहे होंगे। 

व्यक्ति और समाज की मध्यवर्ती कड़ी परिवार हैं। लोग व्यक्ति की समीक्षा करते हैं और समाज की आलोचना करते हैं। इन्हीं दो को सुधारने के लिए तरह- तरह के प्रयत्न होते और आन्दोलन चलते हैं, पर यह भुला दिया जाता है कि व्यक्ति के निर्माण का अधिकांश उत्तरदायित्व परिवार पर है और समाज की भी कोई स्वतन्त्र सत्ता नहीं। परिवारों के समूह का नाम ही समाज है। परिवार वह मध्यबिन्दु, न्यूक्लियस है जिसकी धुरी पर सारा शक्ति सन्तुलन टिका हुआ है। यदि परिवार का महत्त्व स्वीकारा जाय तो फिर यह मानने में कोई कठिनाई न रहेगी कि उसका स्तर एवं वातावरण बनाने में सुसंस्कृत नारी ही प्रधान भूमिका प्रस्तुत कर सकती है। अन्य लोग तो उसके सहायक, समर्थक भर हो सकते हैं। नारी उत्कर्ष अभियान प्रकारान्तर से परिवारों को स्वर्ग समतुल्य बनाने का ऐसा सृजनात्मक काम है, जिसके सत्परिणामों को सोचने भर से आँखे चमकने लगती हैं। 

पददलित नारी से किसने क्या पाया? वह अपने पालने वालों के लिए गले का पत्थर बनकर रह गई। कैदी भी जेल में कुछ करते हैं, पर जेलर से लेखा- जोखा माँगने पर वे स्पष्टत: स्वीकार करेंगे कि यह घाटे का व्यवसाय है। कैदी जो कमाते हैं, उससे कई गुना खर्च उनके ऊपर बैठता है। प्रतिबंधित नारी भी अपने संरक्षकों के लिए किस प्रकार उपयोगी और लाभदायक सिद्ध हो सकती है? 

यदि नारी को उसके मौलिक मानवी अधिकार वापिस लौटा दिये जाय तो उसमें नर नहीं, अनाचार ही हारेगा। इस विजय में नारी की नहीं न्याय की ही जीत होगी। जो लोग न्याय, औचित्य, समानता मनुष्यता, धर्म, कर्तव्य आदि का समर्थन, प्रतिपादन करते हैं और अवांछनीयता को निरस्त करना चाहते हैं, उन्हें यह कार्य अपने घर से ही आरम्भ करना चाहिए। हमारे परिवारों में प्रत्येक नारी को यह अनुभव होना चाहिए कि वे कैदी की तरह विवशता पूर्वक नहीं, इस घर में सृजन शिल्पी बनकर रह रही हैं। उसके ऊपर कर्तव्य तो लदे हैं, पर कुछ अधिकार भी हैं। कम से कम वह अपनी स्वास्थ्य रक्षा, शिक्षा एवं स्वावलम्बन के लिए मानवोचित सुविधाएँ प्राप्त कर सकने की छूट उसे मिल गई है। ऐसा किया जा सके तो घर से बाहर भी हमारी आवाज में वह बल होगा, जिससे न्याय का समर्थन उचित ठहराया जा सके। 

विकसित नारी अपने व्यक्तित्व को समुन्नत बनाकर राष्ट्रीय समृद्धि के सम्वर्धन में कितना बड़ा योगदान दे सकती है? इसे उन देशों में जाकर आँखों से देखा या समाचारों से जाना जा सकता है, जहाँ नारी को मनुष्य  मान लिया गया है और उसके अधिकार उसे सौंप दिये गये हैं। उपयोगी श्रम करके वहाँ वह राष्ट्रीय प्रगति में योगदान दे रही है, परिवार की आर्थिक समृद्धि बढ़ा रही है। सुयोग्य बनकर अपने को गौरवान्वित अनुभव कर रही है और परिवार को छोटा सा उद्यान बनाने और उसे सुरभित पुष्प पल्लवों से भरा- पूरा बनाने में सफल हो रही है। नर के कन्धे से कन्धा मिलाकर काम करने वाली नारी किसी पर भार नहीं बनती, वरन् साथियों को सहारा देकर प्रसन्न होती और प्रसन्न रखती देखी जा सकती हैं। हम विकसित देशों के प्रशंसक हैं। भाषा, पोशाक आदि को अपनाने में गर्व अनुभव करते हैं, फिर क्या ऐसा नहीं हो सकता कि उनके व्यवहार में आने वाले सामाजिक न्याय की नीति को भी अपनायें और कम से कम अपने घरों में नारी की स्थिति सुविधाजनक एवं सम्मानास्पद बनाने में भी पीछे न रहेेेें। 

नारी देवत्व की मूर्तिमान प्रतिमा है। यों दोष तो सब में रहते हैं सर्वथा निर्दोष तो एक परमात्मा है। अपने घरों की नारियों में भी दोष हो सकते हैं, पर तात्त्विक दृष्टि से नारी की अपनी विशेषता है उसकी आध्यात्मिक  प्रवृत्ति। बेटी, बहिन, धर्मपत्नी और माता के रूप में वह परिवार के लिए जिस प्रकार उदात्त आदर्शों से भरा- पूरा जीवनयापन करती है, उसे देखते हुए यह कहा जा सकता है कि पुरुषार्थ प्रधान नर अपनी जगह ठीक है, पर आत्मिक सम्पदा की दृष्टि से वह नारी से पीछे ही रहेगा। नारी को प्रजनन उत्तरदायित्व उठाने के कारण शारीरिक दृष्टि से थोड़ा दुर्बल भले ही रहना पड़ा हो, पर आत्मिक विभूतियों की बहुलता को देखते हुए वही ईश्वरीय दिव्य अनुकम्पा की अधिक अधिकारिणी बनी है। अगले दिनों द्रुतगति से बढ़ता आ रहा नवयुग निश्चित रूप से आध्यात्म मान्यताओं से भरा- पूरा होगा। मनुष्यों का चिन्तन दृष्टिकोण उसी स्तर का होगा। व्यवस्थाऐं और परम्पराऐं उसी ढाँचे में ढलेंगी। जन साधारण की गतिविधियाँ उसी दिशा में उन्मुख होगी। शासनतन्त्र, धर्मतन्त्र, समाजतन्त्र और अर्थतन्त्र का सारा कलेवर उसी स्तर का पुनर्निर्मित होगा। ऐसी स्थिति में नारी को हर क्षेत्र में विशेष भूमिकाएँ निबाहनी पड़ेगी। विशेष उत्तरदायित्व सँभालने पड़ेंगे कारण कि आध्यात्म की विभूतियाँ जन्मजात रूप से उसी को अधिक परिमाण में उपलब्ध हुई हैं। 

नारी उत्कर्ष की आवश्यकता का प्रतिपादन करने और औचित्य सिद्ध करने के अनेक आधार हैं। उनमें से किसी को भी अपनाकर विचार किया जाय तो आवश्यक प्रतीत होगा कि समय की मांग को देखा जाय, उज्ज्वल भविष्य को ध्यान में रखा जाय तो नारी जागरण अपने समय का सबसे बड़ा काम प्रतीत होगा। 






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