कला प्रोत्साहन की उपयोगिता आवश्यकता

मानवी आवश्यकताओं में आजीविका कुशलता की भाँति एक पक्ष विनोद मनोरंजन भी है। उसकी सर्वथा उपेक्षा नहीं हो सकती। मनुष्य मशीन नहीं है और न कोल्हू के बैल की तरह वह निरन्तर कार्यरत ही बना रह सकता है। थकान उतारने के लिए विश्राम की आवश्यकता पड़ती है और ऊब का भार हलका करने के लिए मनोरंजन की। उसका प्रबन्ध शिक्षा- आजीविका स्तर का न सही, हलके- फुलके रूप में तो करना ही पड़ता है। साप्ताहिक छुट्टियों का, पर्व- त्यौहारों का निर्धारण इसी हेतु हुआ कि एकरसता के कारण जो ऊब आती है, उसे दूर करने के लिए प्रसन्नता प्रदान करने वाली गतिविधियाँ अपनाकर जी हलका किया जा सके, नवीन उत्साह अर्जन करके नये सिरे से निर्धारित काम पर जुटा जा सके।

सृष्टा ने शरीर में कई उपयोगी संस्थान ऐसे बनाये हैं, जो अपने महत्त्वपूर्ण काम करने के साथ- साथ मनोरंजन भी प्रदान करते रहते हैं। नेत्र, कान, रसना, जननेन्द्रियों में अपने- अपने ढंग के रस है। वे दुहरा काम करती हैं। इतने पर भी काम नहीं चलता। प्रकृति सम्पर्क से पर्यटन- पर्यवेक्षण जैसी गतिविधियाँ भी अपनानी पड़ती है। परिश्रम भी आहार की तरह निर्वाह प्रक्रिया का अविच्छिन्न अंग है। उसे यो तो उद्योग, व्यवसाय एवं निर्वाह कृत्यों से भी पूरा किया जाता है। पर उतना ही पर्याप्त नहीं माना जाता। इसके लिए खेलकूदों की, प्रतिस्पर्धाओं की अन्यान्य योजना भी बनती रहती है।

अपने- अपने समय में भिन्न- भिन्न प्रकार के प्रचलन रहे हैं। अस्त्र- शस्त्रों के धनी मृगया को विनोद माध्यम मानते रहे है। सर्वसाधारण के लिए गीत- वाद्य माध्यम बनाया जाता रहा है। छोटे- बड़े उत्सवों में उनके छोटे- बड़े सस्ते- मँहगे सामूहिक उपक्रम बनते रहते है। लोकगीतों की तरह, लोक नृत्यों का भी अपना, अपने समय पर, अपने क्षेत्रों में अपना माहौल रहता है। सामूहिक उल्लास का उभार प्रदर्शन- दर्शकों तक में थिरकन उत्पन्न करता है। यह सभी प्रचलन जब तक विशुद्ध विनोद परक रहे और मानसिक थकान उतारने में योगदान देते रहे, तब तक उनका जन- जीवन में समुचित स्थान, सम्मान भी रहा। उन प्रयोजनों के संचालन, अध्यापन, संगठन में कितने ही प्रतिभाशील व्यक्ति अपना उत्साह भरा योगदान देते रहे। इस माहौल में व्यक्ति की रस कामना का समाधान बनता रहा और हँसती- हँसाती जिन्दगी जी सकने का माहौल बना रहा।

ट्रेजेडी तब हुयी, जब इन विनोद प्रयोजनों में से प्रत्येक में अश्लीलता का प्रवेश चल पड़ा। दुर्भाग्य ही कहना चाहिए कि अब विनोद और कामुकता का उत्तेजन प्रायः पर्यायवाची बन चले हैं। यह तो कला की देवी को स्वर्ग से उतारकर, नरक में बिठा देना और उसे वैश्या जैसी दुष्प्रवृत्ति अपनाने के लिए विवश करना जैसा हुआ। साहित्य को मनीषा का अंग माना जाय तो फिर कला का शेषांश गायन- वादन और नृत्य अभिनय के इर्द- गिर्द घूमने लगता है। क्या कारण है कि इस उत्कृष्ट प्रवृत्ति ने अधोगामी मोड़ मिला और स्थिति कहाँ की कहाँ जा पहुँची?

उन दिनों तो धर्म शब्द के अन्तर्गत ही नीति, सदाचार, लोक व्यवहार, स्वास्थ्य, परिवार, अनुशासन, मनोविज्ञान, आत्म- निर्माण, लोक- कल्याण जैसे सभी विषय सिमटकर रहते थे। अब जीवन का अनेकानेक क्षेत्रों में विकास, विस्तार हुआ है, तो इन विषयों के भी स्वतन्त्र स्थान बन गये। ठीक इसी प्रकार मानसिक परिष्कार और उल्लास में काम आने वाले हलके- फुलके प्रयोजन तब संगीत साहित्य, कला के एक परिकर में बँधते थे। अब साहित्य का मनीषा में और मूर्ति, चित्रकला आदि का सृजन- शिल्प में विभाजन कर देने पर कला शब्द के अन्तर्गत वे थोड़े से प्रयोजन ही रह जाते हैं जिनमें मन को गुदगुदाने की, हुलसाने की रुचि है।

इन प्रसंगों का स्वरूप सौम्य, सर्वोपयोगी एवं प्रेरणाप्रद ही रहना चाहिए। इन दिनों प्राचीन काल के विस्तृत और अर्वाचीन सीमित क्षेत्रों के सभी पक्षों पर प्रत्यक्ष- परोक्ष रूप से कामुकता का प्रवेश बढ़ता और आधिपत्य जमता जा रहा है।

जीवन की एक महत्त्वपूर्ण दिशा विद्या और आवश्यकता को उपेक्षित या विकृत कर देने से अनेकानेक कुत्सायें और कुंठायें उत्पन्न हुयी हैं। छोटे बालक सारे दिन हँसते- हँसाते, विनोद मस्ती करते, खेलते- खिलाते अपना समय बिताते हुए जीवन क्षेत्र में प्रवेश करते है। यही है राजमार्ग आनन्द बटोरते और बिखेरते हुए प्रगतिशील जीवन जी सकने का। प्रकृति ने आरम्भ में ही इसका समावेश मानवी स्वभाव में सम्मिलित किया है। किशोरावस्था की वय संधि में यद्यपि विद्याध्ययन को प्रमुखता दी जाती है, किन्तु फिर भी खेलकूद को उसके साथ अविच्छिन्न रूप से जोड़ रखा जाता है। जो बच्चे खेलते नहीं, जिन्हें वैसा अवसर या प्रोत्साहन नहीं मिलता वे आगे चलकर आत्महीनता की ग्रन्थि में बँधते- जकड़ते जाते हैं। निराश, नीरस जीवन जीते है और व्यवहार में मनहूस जैसे दृष्टिगोचर होते हैं।

यहाँ एक और दुर्घटना होती है, यदि बचपन के विनोद क्रम को किशोरावस्था में सर्वथा अवरोध दीखता है तो वह कुमार्ग पर भटकती है। आवारागर्दी में भटकने वाले कितने ही लड़के अपने साथी तलाश करते- फिरते है ताकि मजेदारी मिल जुलकर और भी अच्छी तरह निभ सके।

उस चाण्डाल चौकड़ी में से अनेकानेक दुर्व्यसन सीखते, जिस- तिस बहाने घर से गायब रहते तथा पैसे चुराते है। अप्राकृतिक यौनाचार, जुआ, चोरी, आवारागर्दी, मटरगश्ती, नशा, ताश, सिनेमा जैसे अनगढ़ मनोरंजन ही सरलता पूर्वक मिल जाते हैं। इसके लिए कोई आन्तरिक तन्त्र नियोजित नहीं करना पड़ता। एक दो लड़के मिलकर ही उस कुचक्र का छोटा- बड़ा रूप खड़ा कर लेते हैं। कई मिल गये तब तो एक अच्छा खासा गिरोह ही बन जाता है। इस आँवे में पककर यौवन की दहलीज पर पैर रखते- रखते ये किशोर अपराधियों की अच्छी खासी भूमिका निभाने लगते हैं। कई तो उनमें से दुस्साहसी, आक्रामकों और दस्यु तस्करों के रूप में अपना आतंक जमाते हैं। बात लड़कों तक ही सीमित नहीं है लड़कियों के लिए भी वह पगडंडी खुली पड़ी है। फैशन का चस्का लगने, इच्छा, आवश्यकता भड़कने, प्रदर्शन, प्रशंसा, आकर्षण की ललक उभरने पर सहेलियों से आगे बढ़कर वह साथी तलाश करती है या उनके चंगुल में जा फँसती है। आगे क्या- क्या होता है, इसकी परिणति हत्या, आत्महत्या, अपहरण जैसी दुर्घटनाओं के रूप में सामने आती रहती है।

इस दुर्दशा तक पहुँचाने में विनोद, आकाँक्षा की कला प्रवृत्ति को अवसर न मिलने और कुमार्ग छिद्रों से फूट निकलना कहा जा सकता है। अच्छा हो मानवी मनोविज्ञान को समय रहते समझा जाय और उसके लिए उपयुक्त द्वार खुला रखने का व्यावहारिक एवं बुद्धिमत्तापूर्ण कदम उठाने में कुछ भी कमी शेष न रखी जाय।

घर के नियन्त्रण से थोड़ी छूट मिलते ही काम धन्धे में लगने से पूर्व ही कितनी ही बुरी आदतों में नवयुवकों को ग्रस्त होते देखा गया है। इसका कारण वातावरण में अवांछनीयता का विषाक्त आकर्षण एवं माहौल तो है ही, पर उसके साथ- साथ विनोदवृत्ति के लिए समुचित अवसर न मिलने से उत्पन्न कुंठा भी एक बड़ा कारण है, जो जिस- तिस मार्ग से फूटती और विकृतियों के रूप में प्रकट होती है। जिन लड़कों को प्रतियोगिताओं- प्रतिस्पर्धाओं में रस आने लगता है वे खेलकूदों में रुचि लेते और पराक्रमी प्रतिभावान बनते देखे गये हैं। महत्त्वाकांक्षाओं से रहित अर्द्धमृत ही होते है। सामान्यतया हर जीवन्त में कुछ बनने, कुछ बढ़ने, कुछ कर दिखाने और कुछ समेटने- बटोरने की ललक उभरती रहती है। इनका सामयिक और सस्ता समाधान कला प्रयोजनों के द्वारा मिलता रहता है। अस्तु उसे जीवन की आवश्यकताओं में सम्मिलित रखा गया है। स्वास्थ्य, शिक्षा, आजीविका, परिवार जैसी आवश्यकताओं में यदि कला विनोद को भी सम्मिलित रखा जाय तो उसे अनुचित नहीं माना जाना चाहिए।

कामुकता की अभिवृद्धि का इन दिनों जो अंधड़ चल रहा है, उसके पीछे कला प्रवृत्ति का अवरोध या व्यतिरेक भी एक बड़ा कारण माना जा सकता है। अश्लील चित्र, साहित्य दृश्य, देखने की ललक कलारूचि का ही एक अंग है। भिन्न लिंग के साथ छेड़खानी में गुदगुदी लगती है। आरम्भ में यह ऐसे ही हलके फुलके ढंग से चल पड़ती है। बाद में घनिष्ठता एवं व्यग्रता बढ़ने पर उसका रूप विकृत एवं उद्धत होता चला जाता है और बात उद्दंडता तक जा पहुँचती है। समलिंगी आकर्षण एवं आत्मरति जैसे दुर्व्यसन एक रास्ते पर चलते हुए मिलने वाले खाई खंदक है। चिन्तन का एक आकर्षक विषय बन जाने पर उस दुष्प्रवृत्ति के परिपोषण में जो कुछ दीखता या बन पड़ता है, प्रकारान्तर से उसी को अश्लीलता या कामुकता के हेय रूप में विकसित होते देखा जा सकता है। इस क्षेत्र में उफनने वाली अवांछनीयता की हानि को यदि समझा जा सके और उसकी रोकथाम आवश्यक प्रतीत हो, तो समस्या की जड़ तक पहुँचना चाहिए और उसका समाधान दूरदर्शिता अपनाते हुए सोचना चाहिए। इस मन्थन निष्कर्ष में हमें कला को सही स्वरूप में विकसित एवं परिष्कृत करने के वे आधार खड़े करने चाहिए, जो कुछ समय पूर्व तक सर्व सुलभ थे, पर अब तथाकथित प्रगतिशीलता एवं सभ्यता के दबाव में उपेक्षित एवं विस्मृत होते जा रहे हैं।

अच्छा हो जन जीवन में गायन, वादन और नृत्य अभिनय को सुनियोजित एवं शालीन ढंग से विकसित होने दिया जाय। उसके विस्तार से जन- जीवन को प्रमुदित उल्लसित रहने का अवसर मिलने दिया जाय। इसी का दूसरा पक्ष है- खेलकूदों का माहौल। इसमें स्वास्थ्य सम्वर्धन और साहसिकता के विकास का भी दुहरा लाभ अतिरिक्त रूप से जुड़ता है। यों गीत नृत्य में भी सम्वेदनायें तरंगित करने की विशेषता है। उस आधार पर श्रद्धा करुणा, ममता जैसी सद्भावनाओं को उभरने तरंगित होने का अवसर मिलता है। इस क्षेत्र का समुचित परिपोषण चलता रहे, तो व्यक्ति भक्ति- भावना का धनी बन सकता है और आदर्शों के लिए उत्सर्ग करने वाले महामानवों तक ऊँचा उठ सकता है। कला मात्र विनोद ही नहीं है, उसमें सद्भावनायें उभारने और सत्प्रवृत्तियों को बलिष्ठ बनाने की भी उच्चस्तरीय क्षमता विद्यमान है। आवश्यकता सही स्वरूप और सदुपयोग की है। दुरुपयोग से तो अमृत भी विष बन जाता है।

अच्छा हो वैयक्तिक और सामाजिक प्रगति की बात सोचते समय कला पक्ष को भी ध्यान में रखें और उसे सर्वसुलभ बनाने के लिए कारगर कदम उठायें। इस संदर्भ में व्यायामशालाओं की स्थापना, खेलकूदों के सुनियोजित प्रचलन, प्रशिक्षण की बात पर गम्भीरतापूर्वक विचार किया जाना चाहिए। उनकी प्रतियोगिताओं पर प्रदर्शन आयोजन पर जोर दिया जाना चाहिए। इससे न केवल उसके भागीदारों की प्रखरता बढ़ती है वरन् दर्शकों को भी उत्साहवर्धक, आनन्ददायक लगते हैं। बाल- वृद्ध, नर- नारी सभी को उन्हें देखते हुए रस आता है।

बड़े लोगों द्वारा बड़े रूप में खर्चीले ठाठ- बाट के साथ सम्पन्न होने वाले खेलकूदों की चर्चा अख़बार, रेडियो, टेलीविजन पर दृष्टिगोचर होती रहती है। अच्छा हो इसका छोटा 'चरखा संस्करण' हर गाँव मुहल्ले में आरम्भ किया जाय और समर्थ गुरु रामदास के व्यायाम प्रधान हनुमान मन्दिरों जैसा प्रयास उभरे।

घरों में खिलौने बनाना, पुष्प वाटिका, घरेलू शाक वाटिका, सज्जा- उपकरण, गृह- उद्योग, हस्त- कौशल, मरम्मत, कढ़ाई- बुनाई, कथा- कीर्तन, आरती, गीत, वाद्य जैसे कितने ही छुट- पुट प्रयोजन ऐसे खड़े किये जा सकते है, जिनसे उत्साहवर्धक वातावरण बनाने और सृजनात्मक प्रवृत्तियों को उभारने का सुयोग बनता है। जिन्हें रेडियो टेलीविजन आदि की सुविधा प्राप्त है वे उनके उपयोगी प्रोगामों को देखते सुनते रह सकते हैं। पशु पक्षियों को भी यदि जकड़ा बाँधा न जाय तो उनका पालन भी शिशु पालने की तरह ही आकर्षक बन जाता है।

सुगम संगीत का प्रशिक्षण गली मुहल्लों में चल पड़े। इसके लिए पाठशालाएँ और मण्डलियाँ गठित की जाय, जो इच्छुकों को सिखाती भी रहें एवं पर्व- त्यौहारों, हर्षोत्सवों के अवसर पर अपने कौशल का प्रदर्शन भी करती रहे। महिलायें विवाह शादियों और पर्व- त्यौहारों पर गीत वाद्य की परम्परा अभी भी किसी रूप में चला लेती है। उसमें कला और भावना का समन्वय करके और भी अधिक उत्साह वर्धक बनाया जा सकता है। स्कूलों में संगीत कक्षायें बढ़ाने पर विशेष रूप से जोर देने की आवश्यकता है। प्रौढ़ पाठशालाओं की तरह निजी प्रयास से छोटी संगीत पाठशालायें भी खुल सकती है। जिनमें शास्त्रीय संगीत न सही लोक गीतों को गाने और स्थानीय सस्ते वाद्ययन्त्रों का काम चलाऊ अभ्यास करने की व्यवस्था तो सरलता पूर्वक बन सकती है। उत्साह उभारने और आरम्भिक ढाँचा खड़ा करने पर प्रदर्शन तथा समारोह जैसा स्तर भी बढ़ सकता है।

नृत्य अभिनय को एक कला- कौशल एवं छोटे उद्योग- व्यवसाय का रूप मिल सकता है। रामलीला, रासलीला आदि का कुछ समय तक अच्छा प्रचलन था। ढोला- मारू, आल्हा- ऊदल, नौटंकी, स्वाँग, रसिया आदि में नृत्य गीतों का समन्वय रहता था। इन कार्यों में संलग्न मण्डलियाँ आजीविका भी कमाती थी और लोकरंजन का प्रयोजन भी पूरा करती थी। इन दिनों एक्शन साँग, गीत, नाटिकाएँ, प्रहसन, अभिनय, कठपुतली, जादूगरी जैसे अनेकों ऐसे आधार खड़े हो सकते हैं जिनमें संलग्न व्यक्तियों का निर्वाह चलता रहे और प्रेरणाप्रद मनोरंजनों की आवश्यकता का सुयोग भी बनता रहे। लोग सिनेमा, थियेटर, सरकस आदि पर ढेरों समय और धन खर्चते और बदले में अवांछनीय प्रभाव लेकर वापिस लौटते हैं, इसके स्थान लोक- अभिनय के लिए गठित थोड़ी कला मण्डलियाँ भली प्रकार पूरा कर सकती है।

नट, मदारी, बाजीगर स्तर के उद्योग तो अब समाप्त होते जा रहे हैं। उन कष्ट साध्य कार्यों में हाथ डालने की पैतृक परम्परा भी अब धीरे- धीरे लुप्त होती जा रही है। पर उनके स्थान पर चलते- फिरते सिनेमा, चित्र- प्रदर्शनी जैसी नई वस्तुएँ बन सकती है। प्रदर्शनियों की सजावट, प्रतियोगिताएँ एवं जहाँ- तहाँ मेले लगाने, हाट बाजारों का प्रचलन करने की ऐसी व्यवस्थाएँ बन सकती है, जिनमें पहुँचकर लोग अपना मन हलका कर सकें और साथ ही सामयिक आवश्यकताएँ भी जुटा सकें।

स्मरण रहे कला विनोद की आवश्यकता भले ही कम महत्त्व की प्रतीत होती हो, पर तत्त्वतः उसकी उपयोगिता आवश्यकता ऐसी नहीं है जिसकी ओर से आँखें बन्द रखी जाये एवं उपेक्षा बरती जाय। इस प्रयोजन के लिए हमें कुछ सोचना ही नहीं करना भी चाहिए।







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