मनुष्य की विचारणाओं को, भावनाओं को प्रभावित करने के लिए साहित्य की शक्ति सर्वोपरि है। इतिहास, कथा, धर्म दर्शन, अध्यात्म, पद्य आदि विभिन्न स्तर की पुस्तकें, पत्रिकायें यदि उच्च उद्देश्य को लेकर निकाली जाए तो निस्सन्देह उनसे प्रभावित मनुष्य की अन्तःचेतना आदर्शवादिता की दिशा में अग्रसर हुए बिना न रहेगी। आज लोगों की रुचि पशुता भड़काने वाले और उथले साहित्य की ओर इसलिए है कि उनका बौद्धिक स्तर पिछले अन्धकार युग ने निम्न स्तर का बना दिया है। उसे ऊँचा उठाने में कुछ समय तो लगेगा पर प्रयत्न करने पर हर बात सम्भव है। अभिरुचि इन दिनों निर्माण साहित्य की ओर नहीं है। लोग उस तरह की वस्तुयें पढ़ना नहीं चाहते यह ठीक है। पर यह भी ठीक है कि यदि एक बार उन्हे इसका महत्व विदित हो जाय, पढ़ने का चस्का लग जाय तो वे दूसरे अन्य सभी निरर्थक विषयों को छोड़कर केवल जीवन विद्या पढ़ने पर ही सारा ध्यान केन्द्रित करने लगेंगे।
आरम्भिक दिनों में उत्कृष्टता में दिलचस्पी लेने वाली अभिरुचि जगाना सबसे बड़ा काम है। सत्साहित्य निर्माण से भी यह कार्य अधिक महत्वपूर्ण है। लोगों की रुचि ही न मुड़ी तो उस सृजन और प्रकाशन का लाभ कौन उठावेगा। हम देखते है कि पुस्तकालयों में पढ़ने वाले, बुक सेलरों के यहाँ खरीद करने वाले पाठक, ग्राहक केवल उथले किस्म की चीजें मंगाते हैं। अच्छा साहित्य बन्द पड़ा सड़ता रहता है, उसे कोई पूछता भी नहीं। इस स्थिति को बदला जाना चाहिए। कुरुचि बदलने और सुरुचि बढ़ाने का कार्य व्यक्तिगत सम्पर्क से ही सम्भव है। प्रतिभाशाली व्यक्तित्व यदि सत्साहित्य द्वारा उपलब्ध होने वाले सत्परिणामों की आकर्षक ढंग से चर्चा करने लगें, तो सुरुचि उत्पन्न करने का कठिन दीखने वाला कार्य कुछ ही समय में सरल हो सकता हैं।
आज से ५० वर्ष पूर्व चाय को बहुत कम लोग जानते थे। सर्व साधारण को उससे परिचित कराने के लिए चाय के एजेण्ट घर- घर जाकर मुफ्त पिलाया करते थे। एक- एक पैसे का पैकिट बेचते थे और चाय की प्रशंसा में आकाश पाताल के कुलावे मिलाते थे। लोगों की रुचि उसी से मुड़ी। आज चाय के बिना निपट देहातों में भी काम नहीं चलता। हर व्यक्ति उसका आदी होता चला जाता है। बीड़ी, सिगरेट को ही देखिए, कितनी तेजी से उनका प्रचार बढ़ रहा है। उसके लिए उन कम्पनियों द्वारा किए जाने वाले विविध प्रकार के खर्चीले प्रचार को ही श्रेय दिया जा सकता है। नव निर्माण के लिए जिस विचार क्रान्ति की हम तैयारी कर रहे हैं, उसमें सत्साहित्य का प्रथम स्थान है। इसका सृजन, प्रकाशन जितना आवश्यक है उससे ज्यादा यह आवश्यक है कि उसे पढ़ने के लिए, सुनने के लिए जन साधारण में इच्छा, अभिरुचि उत्पन्न की जाय। प्रतिभाशाली व्यक्तित्वों को अपनी सेवा साधना में इस तथ्य को प्रथम स्थान देना चाहिए और जन सम्पर्क स्थापित कर प्रगति का संदेश पढ़ने, सुनने के लिए आवश्यक अनुकूलता उत्पन्न करनी चाहिए। सृजन और अनुशीलन की यह उभयपक्षीय प्रक्रिया ही विचार परिष्कार का प्रयोजन पूरा कर सकने में समर्थ होगी।
अपने देश में एक बड़ी कठिनाई यह है कि यहाँ शिक्षा अभी भी बहुत कम है। २३ प्रतिशत साक्षर और ७७ प्रतिशत निरक्षर हैं। देश में बड़ा भाग उन्ही का हैं। इनकी उपेक्षा नहीं की जा सकती, प्रजातन्त्र के हिसाब से तीन चौथाई के बहुमत वाले यह लोग ही देश की वास्तविक तस्वीर हैं, अशिक्षा के साथ- साथ गरीबी भी जुड़ी रहती है और विचार विस्तार की सुविधा न रहने से मूढ़ता भी जकड़े रहती है। इन तक पहुँचना कठिन भले ही हो, पर है अनिवार्य। शहरी क्षेत्र में रहने वाले या पढ़े लिखे लोगों को ही देश मान बैठने से काम न चलेगा, हमें नव निर्माण की योजना बनाते हुए, इस देश की प्रजा अशिक्षित है और देहातों में फैली हुई है, इस तथ्य को ध्यान में रखना होगा।
इस सन्दर्भ में हमें सुनाने की पद्धति का प्रयोग करना पड़ेगा। जो पढ़ नही सकते वे सुन सकते हैं। समाज सेवियों को ऐसा प्रबन्ध करना चाहिए कि लोग सुनने में रुचि लेने लगें और परिवर्तन एवं निर्माण के आधारों कों समझने के लिए आकर्षित हो सकें। चूँकि अशिक्षा के कारण सोचने- समझने का दायरा बहुत सीमित रह जाता है इसलिए उन्हें किसी तथ्य को घटनाक्रम का, कथानकों का, उदाहरणों का सहारा लेकर समझाया जा सकना अधिक सरल पड़ता है। कोई बात बताई जाय और उसके सम्बन्ध में प्रश्नोत्तर के रूप में तब तक चर्चा को चलाया जा सकता है, जब तक कि बात पूरी तरह समझ में न आ जाये। कथायें, दृष्टान्त समाचार, उदाहरणों का हवाला देकर भी बात मन में बिठाई जा सकती है। पिछले दिनों जबकि जन साधारण का बौद्धिक स्तर बहुत नीचे गिर गया था, तब धर्म दर्शन अध्यात्म के गहन विषयों को समझाने के लिए कथा पुराणों का सृजन और प्रचलन आरम्भ किया गया था। आज भी अपने देश में उन्ही तरीकों का प्रयोग करके जन साधारण को व्यक्ति और समाज की वर्तमान परिस्थितियाँ समझ सकने योग्य प्रशिक्षित किया जा सकता है और सुधारात्मक तथ्यों को उनके गले उतारा जा सकता है। हमें इस तरह की व्यवस्था जगह- जगह बनानी चाहिए। देवी देवताओं वाले पुराणों की कथाये सुनाना इन दिनों उतना आवश्यक नहीं रहा जितना कि वर्तमान परिस्थितियों का ज्ञान कराना। इसलिए आज की हमारी कथा, गोष्ठियाँ प्राचीन काल की लकीर तो न पीटें, पर उस लोक शिक्षण करने की स्वतन्त्र पद्धति का सृजन अवश्य करें। इस प्रकार का प्रबन्ध किए बिना वर्तमान भारतीय समाज का पुनरुत्थान और पुनर्निर्माण सम्भव न हो सकेगा। कथा, गोष्ठियाँ आज देहाती क्षेत्रों के लिए अति उपयुक्त सिद्ध हो सकती हैं। व्याख्यान प्रवचन किए जाने हो, तो भी इसी शैली के किए जाने चाहिए। विद्वतापूर्ण भाषण उस क्षेत्र में निरर्थक ही सिद्ध होते हैं। हमें अपने देश का उपयुक्त प्रवचन शैली का स्वतन्त्र विकास करना चाहिए।
दूसरा आधार संगीत के माध्यम से खड़ा किया जा सकता है। देहातों की क्षेत्रीय भाषा में लोकगीतों का प्रचलन अभी भी है और लोग अपने- अपने ढंग से उन्हें गुनगुनाते, गाते बजाते भी रहते हैं। पर्व त्योहारों, उत्सवों, संस्कारों तथा दूसरे हँसी- खुशी के अवसरों पर गीत वाद्य प्रायः सभी जगह प्रयुक्त होते हैं। इनकी पुनः रचना की जानी चाहिए। देहातों में ऐसे साक्षर प्रतिभाशाली व्यक्ति मिल ही सकते हैं जो क्षेत्रीय भाषा में, वहाँ की शैली में लोकगीतों का सृजन कर सकें। खड़ी बोली हिन्दी में इस प्रकार के गीतों का केन्द्र द्वारा सृजन हो। उन्हीं भावों का अनुवाद अपनी शैली, बोली में स्थानीय कवि कर लिया करें। उन्हें सिखाने के लिए संगीत गोष्ठियाँ चलाई जाये, पुस्तकें छापी जाये। महिलायें महिला गायन तैयार करें और पुरुष पुरुषों को सिखाया करें। इस प्रयोजन के लिए सरल सी वाद्य शिक्षा की कक्षायें चलाई जा सकती हैं। संगीत में स्वाभाविक सरसता होती है, वह सभी को आकर्षित करता है। इस आकर्षण में प्रगतिशील तत्वों का समन्वय कर दिया जाय तो सोने में सुगन्ध वाली कहावत चरितार्थ हो सकती है। संगीत सम्मेलनों के स्थानीय तरीके अलग हो सकते हैं, पर उनके द्वारा एक राष्ट्रव्यापी प्रेरणा यह दे सकते हैं कि लोक- मानस को वर्तमान अवाँछनीयता के विरुद्ध भड़का कर सृजन के प्रगतिशील मार्ग पर चलने के लिए बेचैन बनाया जाय। यह प्रवृत्ति जितनी विस्तृत और व्यापक होगी उतनी ही विचारक्रान्ति की सम्भावना उन पिछड़े क्षेत्रों में भी सरल हो जायेगी, जहाँ शिक्षा के अभाव में सुधारात्मक प्रयत्नों की सफलता कठिन ही दीखती है।
लोकरंजन के नव निर्माण के लिए युग गायकों की एक बड़ी सेना जल्दी ही खड़ी करनी पड़ेगी, जो जन जागरण के गीत घर- घर, गली- गली गूँजा सकें और जिनमें इस प्रकार की रुचि हो उन्हें आवश्यक शिक्षण देकर अपना सहयोगी बना सकें। छोटे- छोटे संगीत विद्यालय हर जगह चलाये जाने चाहिए जिनमें केवल गायन, वादन, वाद्य भर की शिक्षा न हो वरन् उन गीतों की, उन भाव भंगिमाओं और कला मुद्राओं की शिक्षा भी दी जाय जो लोकमानस का पुनर्निर्माण कर सकने का प्रयोजन ठीक तरह पूरा कर सके। सीमित साधनों में व्यापक उद्देश्य पूरा करने के लिए अपना यह प्रशिक्षण ऐसा सरल और सीमित ही रखा जा सकता है, जो स्वल्प काल के अभ्यास से शिक्षार्थी को काम चलाऊ बना दे।
इस सन्दर्भ में नाट्य मंच का उपयोग भी किया जाने वाला है। अब तक नाटक अभिनय मात्र मनोरंजन के लिए होते थे। बहुत हुआ तो उनमें कामुकता भड़काने वाले कथानक जोड़ दिये। अब उस मंच को निकृष्टता के प्रति घृणा और उत्कृष्टता के प्रति आस्था जमाने के लिए प्रयोग किया जायेगा। ऐसे कथानक, सम्वाद, दृश्य, भाव इन नाटकों में जोड़े जायेंगे जो उन पतनकारी दुष्प्रवृत्तियों का भली प्रकार भण्डाफोड़ कर सकें, जिनने हमारे समाज को खोखला करके रख दिया है। इसी प्रकार इन सत्प्रवृत्तियों का माहात्म्य भी समझाया जायेगा जो मानवीय भविष्य को उज्ज्वल बना सकने में सब प्रकार समर्थ सिद्ध हो सकती हैं। जो नाटक तैयार किए जा रहे है वे धार्मिक, ऐतिहासिक कथानकों वाले होने से जनता में लोकप्रिय भी होंगे और उनके भीतर जो आग भरी गई है उससे गरमी भी प्राप्त करेंगे।
सिनेमा लोकप्रिय तो बहुत हुआ है, पर उसकी पहुँच शहरों तक हो सकी है। देहातों तक पहुँचने में उसे अभी सैकड़ों वर्ष लगेंगे। उस क्षेत्र की आँशिक आवश्यकता पूरी करने वाले छाया चित्रों वाले कुछ यन्त्र अभी भी काम में लाए जा सकते हैं। बिजली या बैटरी से इन्हें चलाकर पर्दे पर प्रकाश दृश्य दिखाए जा सकते हैं। लाउडस्पीकर से उनकी विवेचना सुनाई जा सकती है अथवा टेपरिकार्डर से उन दृश्यों की व्याख्या संगीत सहित की जा सकती है। इस प्रयोजन के लिए मैजिक लालटेन, ऐपिदेस्कोप स्लाइड प्रोजेक्टर, फिल्म प्रोजेक्टर, टेप रिकार्डर आदि ऐसे यंत्रों का प्रयोग किया जायेगा जो देहातों में बैटरी के माध्यम से भी प्रयुक्त हो सकते हैं। संस्था के खर्च में अथवा स्थानीय लोगों के थोड़े- थोड़े अर्थ सहयोग से इस प्रकार के आयोजन स्वल्प व्यवस्था में हर जगह हो सकते है और उनके प्रभाव से लोकमानस को सुधारने, मोड़ने एवं ऊँचा उठाने में भारी सहायता मिल सकती है। पिछड़े हुए क्षेत्रों में इसी स्तर के प्रयोगों को अधिक सफलता मिल सकती है। जहाँ ऊँचे साहित्य और ऊँचे प्रवचनों की शक्ति कुण्ठित हो जाती है, वहाँ इस प्रकार के लोक रंजन और लोकमंगल के संयुक्त प्रयत्न जादू जैसा प्रभाव उत्पन्न कर सकते हैं। इस तथ्य को समझते हुए लोक शिक्षण के लिए कला मंच का प्रयोग एक अनिवार्य आवश्यकता के रूप में प्रयुक्त करने की तैयारी की जा रही है।
चलती- फिरती चित्र प्रदर्शनियाँ भी उपरोक्त प्रयोजन को एक सीमा तक पूरा कर सकती हैं। जो बात मात्र कहने सुनने से कल्पना में नहीं आती वह देखने से अधिक आसानी और अधिक गहराई तक मन में प्रवेश कर जाती है। इसलिए दृश्य प्रचार का महत्व बहुत अधिक माना गया है। सिनेमा ने जो असर जन मानस पर डाला है, उसकी गहराई से इनकार नही किया जा सकता। सिनेमा वालों ने जो सिखाया उसे नई पीढ़ी ने भली प्रकार सीख लिया है। पोशाक, वेषभूषा, भाव भंगिमा, इच्छा, आकाँक्षा, क्रिया, दिशा, बातचीत, रहन- सहन पर नई पीढ़ी ने जितना प्रभाव सिनेमा से लिया है, उतना और किसी माध्यम से नहीं लिया। कारण स्पष्ट है- दृश्य के साथ जो बातें आंखों के सामने से गुजरती और मस्तिष्क से टकराती हैं, वे अपना गहरा प्रभाव छोड़कर जाती हैं। चिन्तन, मनन और स्वाध्याय प्रवचनों में एक तो लोगों की रुचि ही कम होती है, फिर उन माध्यमों से गहरा प्रभाव ग्रहण कर सकना केवल परिष्कृत मस्तिष्कों के लिए ही सम्भव होता है। सर्व साधारण के उथले मन- मस्तिष्क को प्रभावित करने में मनोरंजन, आकर्षण साथ लेकर बनने वाले दृश्य श्रव्य साधन ही अधिक प्रभावशाली सिद्ध होते हैं। सिनेमा की सफलता का यही कारण है। इस तथ्य को समझते हुए दृश्य, श्रव्य एवं मनोरंजन की सम्मिलित प्रक्रिया का हमें विकास करना चाहिए और उस उपलब्धि के द्वारा लोकमानस का निर्माण करने के लिए हमें योजना बद्ध कदम बढ़ाने चाहिए। कला भारती इस प्रकार के प्रयोगों का शुभारम्भ कर रही है। आशा की जानी चाहिए कि यह प्रयोग लोकमंगल में अभिरुचि रखने वालों को अभिनव माध्यम प्रदान करेंगे और उनके प्रयासों को अधिक सरल एवं सफल बनाने की पृष्ठभूमि तैयार करेंगे।
टेप रिकार्डर से संगीत व्याख्यान विवेचना अलग, फिल्म के दृश्य अलग रखे जाने के बाद भी एक ऐसी सस्ती प्रक्रिया निकल सकती है, जो अपने प्रयोजन की सस्ती फिल्में बनाने और दिखाने का प्रयोजन पूरा कर सके। छोटे जनरेटरों से इतनी बिजली पैदा की जा सकती है कि एक देहाती सिनेमा भली प्रकार चल सके। १६ मिलीमीटर के मूवी फिल्म दिखा सकने योग्य प्रोजेक्टर, टेप रिकार्डर, बिजली पैदा करने का जनरेटर, पर्दा उपकरण आदि मिलाकर कुल दस हजार की पूँजी से एक चलता फिरता सिनेमा घर बन सकता है। इसके लिए दो घण्टे दिखाई जा सकने वाली फिल्म की लागत भी कुछ बहुत बड़ी नहीं पड़ेगी।
फिल्म निर्माण का कार्य एक मंच करता रहे। सिनेमा घर अपने क्षेत्रों में घूमते रहें। हर वर्ष दस नए फिल्म बनाए जाते रहें तो चालू सिनेमा उद्योग खड़ा किया जा सकता है। जिस प्रकार शहरी जनता चालू सिनेमा से दुष्प्रवृत्तियाँ सीखती है, उसी प्रकार देहाती जनता इस छोटे स्तर के दीखने वाले सिनेमाओं से नवजीवन की प्रेरणा ग्रहण कर सके तो निःसन्देह भारतीय लोक मानस का नव निर्माण करने की दृष्टि से यह एक बहुत बड़ी बात होगी।
लोक मानस को परिष्कृत करने के लिए कला का उपयोग किया ही जाना चाहिए। यह हमारा विश्वास है कि यह माध्यम बहुत प्रभावशाली अनुभव किए जायेंगे और राष्ट्र निर्माण के लिए बेचैन लोकसेवी उन माध्यमों को बड़े पैमाने पर विकसित करने के लिए आगे आवेंगे। मानवता के उज्ज्वल भविष्य की आशा हम जिन प्रयत्नों के आधार पर कर सकते हैं, उनमें से साहित्य के बाद कला का ही नम्बर आता है।
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