आज्ञा चक्र जगाएँ दिव्य दृष्टि पाए

संसार में अभी तक फोटो कैमरा नहीं बना जो टेकनीलर, विस्टा विजन और थ्री डी० के टेक्नोलोजी युक्त है। शत प्रतिशत साफ फोटो खींचता हो जिसमें फोटो ग्राफर की आवश्यकता न हो और फिल्म प्लेट आदि लगाने का झंझट न हो। ऐसा कैमरा बनना तो दूर किसी वैज्ञानिक के मस्तिष्क में इस तरह की सम्भावना की कल्पना भी अभी तक नहीं आई। यदि कोई सोचने भी लगे तो इन सारी सुविधाओं से सम्पन्न किसी विशाल काय यन्त्र की ही कल्पना की जा सकती है। इतने उपकरण होते हुए भी उसका साइज एक इंच जितना छोटा है। उसे तो सर्वथा अंश रूप ही कहना चाहिए।

यान्त्रिक जगत में ऐसा फोटो यन्त्र भले ही न बना हो, भले ही उसकी सम्भावना अशक्त मानी जाय, पर ऐसा कैमरा अपने पास मौजूद है और उसका उपयोग जन्म काल से ही हम लोग कर रहे हैं। यह जादू जैसा फोटो यह है- ‘नेत्र’। हमारे नेत्र बहुत ही संवेदनशील और सक्रिय है। अपने पलक एक मिनट में प्रायः तीस सेकेण्ड बन्द रहते हैं और लगभग उतनी ही देर खुले रहते हैं। यह क्रियाकलाप निरन्तर अनायास ही चलता रहता है। पर आश्चर्य यह है कि हमें इसका पता तक नहीं चलता। यों आँखें गर्भस्थ शिशु के पाँच महीने में ही बनकर तैयार हो जाती हैं और उनकी वृद्धि का क्रम छै वर्ष की आयु तक चलता रहता है। फिर भी उससे सम्बन्धित मस्तिष्कीय संस्थानों के विकास में २६ वर्ष लग जाते हैं। दृष्टि सम्बन्धी प्रखरता एवं परिपक्वता का क्रम पूरा होने में प्रायः २५ वर्ष लग जाते हैं। इससे पूर्व उसकी आकृति ठीक बन जाने पर भी मानसिक केन्द्र में कुछ न्यूनता ही बनी रहती है ।।

पलकों के निचले भाग में से एक प्रकार का अश्रु जल स्रवित होता रहता है, यह नेत्र गोलकों पर पड़ने वाली धूलि आदि साफ करता रहता है। वर्षा के दिनों में मोटर ड्राइवर सामने वाले शीशे पर जमने वाली बूंदों को जिस प्रकार विन्डशील्ड वाइपर साफ करता चलता है, उसी प्रकार पलकें झपकने की क्रिया और यह अश्रुजल स्राव आँखों की निरन्तर सफाई करते रहते हैं। इस अश्रुजल में जीवाणु नाशक तत्व भी घुले रहते हैं जिनके कारण आँखों का शुद्धिकरण भी चलता रहता है।

आँखों की क्षमता प्रायः डेढ़ सौ प्रकार के रंग भेद पहचानने की है। उनकी बनावट अजीब है, स्लोलाइट की तरह पारदर्शक, चमड़े की तरह मजबूत, रबड़ की तरह खिंचनी, स्फटिक की तरह स्वच्छ और आजीवन काम देने वाली, कभी न घिसने टूटने वाली वस्तुओं से मिलकर आँखें बनी हैं। दूर दृष्टि और निकट दृष्टि की, प्रकाश के अनुरूप फैलने- सिकुड़ने की सभी विशेषताएँ इस नेत्र कैमरे में विद्यमान हैं। बुढ़ापे में कलर फिल्टर के तन्तु घिस जाने से नीले और काले रंग को पहचानने की क्षमता घटती जाती है। आँख के दृश्य कलेवर से लेकर मस्तिष्क के दृष्टि संस्थान तक की लम्बाई जरा सी है, पर उतने से ही गह्वर में प्रायः १३ करोड़ ७० लाख कोष होते हैं। प्रकाश की प्रतिक्रिया को यही तन्तु ग्रहण करते हैं।

आँखों के पीछे का गड्ढा जिसे फोबिया कहते हैं, बारीक चीजें देखने के काम आता है। यह नेत्र संस्थान दूषण रहित हों तो एक इञ्च के दस हजारवें भाग को भी ठीक तरह देखा और पहचाना जा सकता है।

आँखें देखती जरूर हैं, पर उसका निष्कर्ष और प्रभाव स्पष्ट करने वाला संस्थान मस्तिष्क के पिछले भाग में स्थित है। टेलीफोन पद्धति में क्रस टाक जैसी प्रक्रिया ही नेत्र संस्थान पर होती है और उसी से देखने की प्रक्रिया ठीक तरह काम कर पाती है। मस्तिष्कीय दृष्टि संस्थान में सन्निहित कोषों को तीन वर्गों में विभक्त किया जा सकता है। यह कोष वाह्य जगत के लाल, हरे और नीले रंगों से प्रभावित होते हैं। इन्हीं कारणों से रगों के उतार- चढ़ाव एवं सम्मिश्रण से बनने वाले अगणित रंग हमें परिलक्षित होते हैं। मस्तिष्क ज्ञान का ८५ प्रतिशत भाग इन्हीं नेत्र गोलकों द्वारा उपलब्ध एवं विकसित होता है।

आँखों की स्थूल शक्ति की भी अपनी महत्ता है। आँखें न रहने पर संसार में सर्वत्र जब घोर अन्धकार ही शेष रह जाता है, उस स्थिति की कल्पना करें तो प्रतीत होगा की ज्योति मानव जीवन की कितनी बड़ी आवश्यकता है। पर इससे बढ़कर है हमारी सूक्ष्म दृष्टि जो उस अदृश्य जगत् को दृश्यमान करती है जो चर्म चक्षुओं की पकड़ से बाहर है।

यह नहीं समझना चाहिए कि प्रकाश के माध्यम से हमारी आँखें जो देख पाती हैं, उतना ही दृष्टि क्षेत्र है। वस्तुतः प्रकाश का सूक्ष्म स्वरूप ऐसा भी है, जो हमारी नेत्र सीमा से बाहर रहते हुए भी संसार में विद्यमान है और उसे भी देखा समझा जा सके तो हम समस्त विश्व को अपने दृष्टि क्षेत्र में ले सकते हैं। तब ‘दूरदर्शी’ शब्द मात्र समझदार लोगों के, आगे की बात सोचने वालों के लिए ही लागू न होगा वरन् सचमुच हम उस स्थिति में पहुँच जायेंगे कि दूर की, अति दूर की, समस्त संसार की घटनाओं को देख सकें।

रडार यन्त्र में यही होता है। वह प्रकाश किरणों से अधिक सूक्ष्म रेडियो किरणों के आधार पर दूरवर्ती वस्तुओं को, उनकी हलचलों को देख सकता है। टेलीविजन पर दूरवर्ती दृश्य हमारे सामने छाया रूप में प्रस्तुत होते हैं, उसी से मिलता जुलता पर दूसरे सिद्धान्त पर आधारित रडार उपकरण है। दूरदर्शन में हमें टेलीविजन की तरह वह भी सहायता पहुँचाता है।

रडार एक प्रकार की वैज्ञानिक आँख है जो प्रकाश तरंगों की अपेक्षा रेडियो तरंगों के माध्यम से देखने का प्रयोजन पूरा करती है। रडार- शब्द ‘रेडियो ऐंगल डायरेक्शन एण्ड रेंज’ का संक्षिप्तीकरण है।

हमारी आँखें किसी वस्तु को तभी देख पाती हैं जब प्रकाश की किरणों उससे टकराकर परावर्तित होती हैं। अँधेर में न देखने का कारण यही है कि प्रकाश के अभाव में उसकी किरणें वस्तुओं पर पड़ती ही नहीं तो फिर वे परावर्तित होकर आँखों तक लौटेंगी ही कैसे? आँखों में स्वयं तो इतनी शक्ति है नहीं कि वे किसी वस्तु को प्रकाशवान बना सकें।

रडार को जादुई आँख कह सकते हैं, जिसमें देखने की ही नहीं, वस्तुओं को प्रकाशित करने की भी क्षमता है। रडार के एन्टेना में एक ऐसा ट्रान्समीटर लगा होता है जो वस्तुओं को प्रकाशवान बनाता है। साथ ही एक ऐसा रिसीवर भी लगा होता है जो प्रकाशित वस्तु से टकराकर लौटने वाली किरणों को ग्रहण कर सके।

यहाँ यह जान लेना चाहिए कि रडार द्वारा फेंका हुआ प्रकाश सूर्य या बिजली के प्रकाश जैसा चमकीला नहीं होता, न वह खुली आँखों से दिखाई पड़ता है। इसे वस्तुतः प्रकाश नहीं, रेडियो कम्पन कहना चाहिए। प्रकाश किरणों की तरह रेडियो किरणें भी होती हैं, पर वे चमकीली न होने के कारण आँखों को दिखाई नहीं पड़तीं। अन्य बातों में दोनों समान हैं।

रात में सामने से मोटर आ रही हो तो उसके प्रकाश से सामने वाले ड्राइवर की आँखें चौंधियाने का खतरा रहता है। तेज रोशनी की ओर कुछ देर देखा जाय तो भी आँखें चौंधिया जाती हैं और उनका दीखना बन्द हो जाता है। इसके लिए लगातार देखना रोकना पड़ता है। या तो पलक झपक कर या रोशनी को जलाते बुझाते रहकर यह व्यवस्था करनी पड़ती है कि लगातार देखने का सिलसिला न चले। ठीक यही बात रडार में होती है। रेडियो तरंगें भेजने और ग्रहण करने के बीच थोड़ा सा व्यवधान रखना पड़ता है। यह सिलसिला चालू रखकर दूरवर्ती वस्तुओं को देख सकना रडार के लिए सम्भव होता है।

रेडियो तरंगों की चाल भी लगभग उतनी ही है जितनी कि प्रकाश किरणों की होती है- एक सेकेण्ड में लाख किलो मीटर। साधारण राडारों की शक्ति आमतौर से ५०० किलोमीटर तक की होती है। इतनी दूरी तक रेडियो किरणों के जाने और वापिस लौटने में एक सेकेण्ड के दस लाखवें भाग जितना समय लगता है। यह अत्यधिक स्वल्प समय है। इस अवधि में भी विराम की व्यवस्था करना कठिन प्रतीत होता है। फिर भी वैज्ञानिकों ने इसके लिए उपकरण बना लिये हैं। रेजोनेन्ट ट्रांसफार्मर इम्पीडेन्स, इन्वर्टर और स्पार्क गैपों का समन्वय करके एक विचित्र प्रकार का ड्यूप्लेकसर विनिर्मित किया गया है जो स्वल्प समय में भी प्रेषण ग्रहण के बीच व्यवधान रखे जाने की व्यवस्था पूरी करता रहता है।

रेडियो किरणें जिस वस्तु से टकराकर जितनी देर में लौटती हैं, उस समय गणना के आधार पर यह जाना जाता है कि अभीष्ट वस्तु कितनी दूरी पर और उसकी आकृति किस प्रकार की है। यन्त्र में रहने वाली ‘ए- स्कोप’ प्रक्रिया वस्तु की दूरी का ठीक निर्धारण कर देती है। इन दिनों सुरागी पद्धति में और भी सुधार हुए हैं। सूक्ष्म तरंगों का प्रयोग करने वाले केलैस्ट्रीन एवं कैवटी मैग्रेट्रोन यन्त्र अब हर बात को और भी अच्छी तरह अंकित करने लगे हैं।

रेडियो तरंगें बादल, धुआँ, कुहरा, अँधेरा सामने होने पर रुकती नहीं और वे निर्दिष्ट दिशा में बिना किसी अवरोध के बढ़ती चली जाती हैं, जबकि प्रकाश किरणें ऐसी रुकावट आने पर अवरुद्ध और कुण्ठित हो जाती हैं। रडार पद्धति में इसीलिए प्रकाश किरणों की अपेक्षा रेडियो तरंगों का उपयोग किया जाता है।

आकाश में उड़ने वाले जहाजों की दूरी, दिशा तथा शकल यह रडार ठीक- ठीक बता देता है। आँधी तूफानों की परिधि तथा चाल का पता चल जाता है। आकाश के ग्रह नक्षत्रों का अध्ययन करने में उससे बड़ी सहायता मिलती है।

हवाई जहाज आकाश में उड़ते हैं। अँधेरे और कुहरे में उन्हें रास्ते का पता कैसे लगे? उनमें लगे बैठीगेटर इसी पद्धति से नगर, नदी, पर्वत आदि को दिन की तरह देखते चलते हैं। पानी के जहाजों को भी यह पद्धति सामने के टापुओं, चट्टानों, जहाजों का विवरण बताती है। युद्ध के समय इनका बहुत उपयोग है।

रेडियो तरंगें अनेक प्रकार की होती हैं। पर उनमें से रडार उन सुपर फ्रीक्वेंसी वाली तरंगों का ही प्रयोग करता है जो अत्यधिक कम्पन वाली किन्तु अल्पावधिक की होती हैं। यह एक सीमा तक ही जाती हैं। कितनी दूरी तक उन्हें प्रयुक्त करना है, इसकी सीमा इन्डीकेटर में पहले से ही व्यवस्थित कर देनी पड़ती है। यह यन्त्रों की शक्ति और देखने की देखने की आवश्यकता के अनुरूप सीमा बन्धन किया गया है। इसका अर्थ यह नहीं कि रेडियो तरंगों की सीमा इतनी ही है। यह तो उनका एक सीमाबन्धित विशेष प्रयोग है। उनकी ऊर्जा अनन्त दूरी तक चलती हुई, सब व्यवधानों को पार करती हुई असीम तक चली जा सकती है।

दोनों भवों के मध्य भाग में जो बाल रहित खाली स्थान है, उसे भृकुटि कहते हैं। उसके नीचे अस्थि आवरण के उपरान्त एक बेर की गुठली जैसी ग्रन्थि है। उसे आज्ञा चक्र कहते हैं। शरीर शास्त्र की दृष्टि से उसका कार्य और प्रयोजन अभी पूरी तरह नहीं समझा जा सका। पर आत्मविद्या के अन्वेषी इसके अति महत्त्वपूर्ण कार्य को बहुत पहले से ही जानते हैं। इसे तीसरा नेत्र या दिव्य नेत्र कहते हैं। दिव्य दृष्टि यहीं से निःसृत होती है।

भगवान शिव के चित्रों में प्रदर्शित यह एक तीसरा नेत्र इसी स्थान पर अंकित रहता है। कथा है कि इस तीसरे नेत्र को खोलने पर एक प्रचण्ड अग्नि ज्वाला निकली थी और उसी से कामदेव जल कर भस्म हो गया था। भगवती दुर्गा के चित्रों में भी यह तीसरा नेत्र इसी स्थान पर विद्यमान है। यह तीसरा नेत्र हर मनुष्य के शरीर में मौजूद है। प्रश्न केवल विकसित करने का है। सामान्यतया दो चर्मचक्षु ही काम करते हैं और उन्हीं से जीवन के साधारण काम- काज चलाये जाते रहते हैं।

यह तीसरा नेत्र- आज्ञाचक्र यदि विकसित किया जा सके तो उससे राडार, टेलीविजन और एक्सरे यन्त्रों के तीनों काम लिये जा सकते हैं। राडार, रेडियो किरणें फेंकता है और उनके वापिस लौटने से उस स्थान का विवरण प्राप्त करता है, जिस स्थान पर वे किरणें टकराई थीं। टेलीविजन से दूरगामी दृश्य दिखाई पड़ते हैं। संजय ने महाभारत का सारा दृश्य इसी पद्धति से देखा था और धृतराष्ट्र को पल- पल की विस्तृत खबरें देते रहने का कार्य दायित्व भली प्रकार निबाहा था। एक्सरे से आवरण से ढकी वस्तुयें भी दीखती हैं। शरीर के भीतरी भागों के फोटो उसी से लिये जाते हैं और क्षयजन्य घाव, हड्डी टूटना, गोली छर्रा आदि का लगा होना उसी के द्वारा लिये हुए फोटो से जाना जाता है। किसी लकड़ी के बक्स में जेवर आदि रखे हों तो एक्सरे द्वारा उसके फोटो लेकर भीतर क्या है यह जाना जा सकता है। आज्ञा चक्र इन तीनों प्रयोजनों को भली प्रकार पूरा कर सकता है।

सुदूर क्षेत्रों के निवासी व्यक्तियों की परिस्थितियों तथा विभिन्न स्थानों में घटित होने वाली घटनाओं का विवरण आज्ञाचक्र बता सकता है। उससे वहाँ के दृश्य देखे जा सकते हैं, जहाँ नेत्रों की पहुँच नहीं है। भूगर्भ में छिपे हुए रहस्य प्रकट हो सकते हैं और अन्तरिक्ष में जो सूक्ष्म क्रिया कलाप अभी पक रहा है, निकट भविष्य में प्रत्यक्ष होने वाला है, उसका पूर्व रूप समझा जा सकता है। यह सांसारिक अगम्य ज्ञान की उपलब्धि हुई। इससे ऊपर आत्मसत्ता का- आत्मचेतना का, दैवी संकेतों का अभ्यास है। इसे देख सकना इतना अद्भुत और आकर्षक है कि उस स्थिति में पहुँचा हुआ व्यक्ति परा और अपरा प्रकृति के सारे रहस्यों से ही अवगत हो जाता है। तब यह स्थूल जगत के क्रिया कलापों के और बालक्रीड़ा में रचे हुए रेत बालू के घर मकानों जैसी स्थिति में पाता है। ईश्वरी सत्ता, आत्मा की स्थिति, जीवन का स्वरूप, जन्म जन्मान्तरों की शृंखला, कर्तव्य पथ, लोक व्यवहार का आधार आदि महत्त्वपूर्ण आधार ही उसे वास्तविक लगते हैं। ऐसा दिव्यदर्शी मनुष्य बाल बुद्धि से प्रेरित ओछी रीति को त्यागकर अपनी गतिविधियों में उन तत्वों का समावेश करता है जो महामानवों के लिए उचित और उपयुक्त हैं।

तीसरे नेत्र के खोलने से जो विवेक बुद्धि जागृति होती है, उससे काम, क्रोध, लोभ, मोह जैसे मृग मारीच अपने असली रूप में प्रकट हो जाते हैं और नष्ट करने के लिये शिवजी के तीसरे नेत्र की तरह हर विवेकवान की दिव्य दृष्टि खुल जाती है। परिष्कृत दृष्टिकोण विकसित हो जाने के कारण उसके सोचने और करने का तरीका माया मोह ग्रस्त, अज्ञान अन्धकार में भटकने वाले लोगों से सर्वथा भिन्न होता है।

दो नेत्र प्रकृति ने दिये हैं। तीसरा नेत्र खोलने और दिव्य दृष्टि प्राप्त कटने को आज्ञाचक्र साधना करना दूरदर्शी विवेकवान का काम है। हमें इस परम पुरुषार्थ के लिए साहस जुटाना ही चाहिए।

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