जीवात्मा ईश्वर का अंश है। समुद्र की लहरों और सूर्य की किरणों से उसकी तुलना की गई है। इस भिन्नता को घटाकाश और मठाकाश के रूप में भी समझा जाता है। घटाकाश अर्थात् घड़े के भीतर की सीमित पोल और मठाकाश अर्थात् विशाल विश्व में फैली हुई पोल वस्तुत: ब्रह्माडव्यापी पोल का ही एक अंश हैं। घड़े की परिधि से आवृत हो जाने के कारण उसकी स्वतंत्र सत्ता दिखाई पड़ती हैं, पर तात्त्विक दृष्टि से वह कुछ है नही। घड़े के आवरण ने ही यह पृथक रूप से देखने और सोचने का झंझट खड़ा कर दिया है। शान्त समुद्र में लहरें नहीं उठती, पर विक्षुब्धता की स्थिति में वे अलग सी लगती है और उछलती दिखाई पड़ती हैं। सूर्य के तेजस् की विस्तृत परिधि ही उसके किरण विस्तार की सीमा है। सूर्य सत्ता का जहाँ तक जिस स्तर का विस्तार है वहाँ तक उसी स्तर की धूप का अस्तित्व दृष्टिगोचर होता है। इस प्रभा विस्तार की जो विभिन्न प्रकार की हलचलें होती है उन्हीं को किरणें कहते हैं। किरणों का सात रंगों में अथवा अल्ट्रावायलेट, अल्ट्रावायलेट, एक्स- लैसर आदि को अलग से जाना माना जा सकता है, पर यह विभाजन सूर्य से भिन्न किसी पृथक सत्ता का भान नहीं करता। ऐसे ही उदाहरणों से और ईश्वर की एकता भिन्नता समझी जा सकती है।
पानी में से असंख्य बुलबुले उठते तैरते और फिर उसी में समा जाते हैं। विश्वव्यापी अग्नितत्त्व तीली या लकड़ी में प्रकट और प्रत्यक्ष दिखाई पड़ता है। आग बुझ जाने से वह उसी मूल सत्ता में लीन हो जाती है। इन उदाहरणों में भी जीव और ईश्वर की पृथकता एवं एकता का अनुमान लगाया जा सकता है। एक बड़ा ढ़ेला फूटकर रज- कण के रूप में बिखर जाता है। पानी ऊपर से गिरने पर जमीन से टक्कर खाता है और उसकी बूंदें अलग से छितराती हुई दीखती है। जीव और ईश्वर की पृथकता के सम्बन्ध में ऐसे ही उदाहरणों से वस्तुस्थिति समझी जा सकती है। सृष्टि के आरंभ में ब्रह्मा ने एकोऽहम बहुस्याम की इच्छा की और उसने अपने आपको टुकड़ों में बिखेर दिया। यह बिखराव प्रकृति के साथ संयुक्त हुआ और इसके साथ धुल कर अहंता का आवरण अपने ऊपर लपेट बैठा। सूखी मिट्टी पर जब पानी पड़ता है तो वह गीली हो जाती है और उस पर काई तथा दूसरी वनस्पति जमने लगती है। आत्मा के अंश प्रकृति के साथ मिलकर आधे तीतर, आधी बटेर बन जाते हैं। कच्ची धातुएँ खदान से मिट्टी मिली स्थिति में निकलती हैं, पीछे उन्हें भट्टी में डालकर शुद्ध किया जाता है। जीव को मिट्टी मिला लोहा कहा जा सकता है। जिसमें प्रकृति और पुरुष दोनों का समन्वय है।
जीव की मूल सत्ता ईश्वरीय है। चेतना का समुद्र इस विश्व में एक ही है। उससे भिन्न या प्रतिपक्षी दूसरी कोई सत्ता देवी देवताओं के या जीवों के रूप में कहीं नहीं है। तत्त्ववेत्ताओं ने जाना है- ‘यहां केवल एक है दूसरा नहीं’। जीव की पृथकता प्रकृति के समन्वय से है। प्रकृति के तीन स्तर- सत, रज, तम कहलाते हैं। इन्हीं तीनों की तीन परतें जीव के ऊपर चढ़ जाती हैं और वे तीन शरीर कहलाती है। स्थूल शरीर अर्थात हाड़- मांस की जन्मने- मरने वाली काया। सूक्ष्म शरीर अर्थात् बुद्धि संस्थान, सुख- दुख, प्रिय- अप्रिय, अपने- वीराने का अन्तर करने वाला मस्तिष्कीय विचार विस्तार। कारण शरीर अर्थात् मान्यताओं एवं भावनाओं का समुच्चय- अन्तरात्मा। जिसे अन्त:करण भी कहा गया है। इन तीन शरीरों की यों प्याज के छिलके, केले के तने या एक के ऊपर एक पहने हुए वस्त्रों से तुलना की जाती है, पर यह उपमा बहुत ही अधूरी है। कारण कि यह सब आवरण एक दूसरे से पृथक हैं, जबकि एक दूसरे के साथ इस प्रकार घुले हुए हैं जैसे दूध में घी, सरसों में तेल। प्रयत्न पूर्वक इन्हें पृथक किया जा सकता है। मृत्यु के उपरान्त स्थूल और सूक्ष्म शरीर का सम्बन्ध टूट जाता है। क्लोरोफार्म सुंघा देने या गहरी नींद आ जाने पर सूक्ष्म शरीर का चेतन भाग मुर्छित हो जाता है, अचेतन भर जागता रहता है। समाधि अवस्था में सूक्ष्म- शरीर को कारण से अलग किया जा सकता है। मुक्ति अवस्था में कारण शरीर का आवरण भी छूट जाता है और बूँद समुद्र में समा जाने की तरह आत्मा का लय परमात्मा में हो जाता है। इस प्रकार यह तीनों ही आवरण हटाये तथा मिटाये जा सकते हैं, पर सामान्य स्थिति में वे परस्पर धुले- मिले ही रहते हैं।
जीव को इन आवरणों में लिपटे रहने से कई- तरह के कई स्तर के सुख मिलते हैं, इसलिए वह उन्हें छोडना नहीं चाहता फलत: ‘वृद्ध’ अवस्था में बना रहता है। स्थूल शरीर में कई प्रकार के वासनात्मक सुख है। सूक्ष्म शरीर में कल्पना लोक के मनोरम स्वप्र, विनोद, मनोरंजन, सफलता, पद, सम्मान, वैभव आदि के बुद्धि- विलास के अनेकों साधन मौजूद हैं। कारण शरीर में अहंता की परतें जमी हैं। ‘मैं’ अत्यन्त प्रिय है। इस ‘मैं’ की परिधि में जितना क्षेत्र आता है और जिस प्राणी या पदार्थ पर यह ‘मेरापन’ आलोकित होता है वह भी प्रिय लगने लगता है। आकांक्षाओं की उमंग इसी केन्द्र से उठती है। मान्यताओं की आस्था और संवेदनाओं की पुलकन खट्टी- मीठी गुदगुदी तो हैं, पर वह मिलाकर है- मधुर। जीवन में प्रिय- अप्रिय प्रसंग आते- जाते रहते हैं, पर कुल मिलाकर स्थिति ऐसी है जिसके कारण इन तीनों शरीर आवरणों को छोड़ने को मन नहीं करता। फलत: जीव सत्ता का ऐसा सघन अस्तित्व बन जाता है जिसे स्वतंत्र भी कहा जा सकता है।
परिष्कृत सूक्ष्म शरीर चिन्तन की उत्कृष्टता के कारण स्वयं हर घड़ी सदा सन्तुष्ट, उल्लसित एवं प्रफुल्लित बना रहता है। अवांछनीय मानसिक भार से छुटकारा पाने के कारण उसकी सूझ- बूझ, दूरदर्शी, तत्त्वदर्शी बन जाती है और उसका लाभ न केवल सम्पर्क क्षेत्र को वरन् समस्त संसार को मिलता है।
तीसरा कारण शरीर अर्थात् आस्थाओं की परिष्कृति से मनुष्य महात्मा, देवात्मा एवं परमात्मा बन सकता है। यहीं वह ध्रुव केन्द्र है जहाँ आत्मा और परमात्मा का पारस्परिक पतला सा सम्बन्ध सूत्र जुड़ा हुआ है उसे तनिक सा और परिष्कृत कर दिया जाय तो ब्रह्म चेतना का जीव चेतना से विशिष्ट सम्बन्ध स्थापित कर सकता है और ऐसे आदान- प्रदान का पथ प्रशस्त कर सकता है, जिसके आधार पर नर में नारायण का अवतरण प्रत्यक्ष देखा जा सके। ऐसी स्थिति में पहुँची हुई आत्माओं की देव संज्ञा होती है। देवताओं की अलौकिक कथा पुराणों में भरी पड़ी है। उन्हें इन पुरुषों में प्रत्यक्ष देखा जा सकता है।
अध्यात्म विज्ञान की पृष्ठभूमि को संक्षेप में इतना कुछ समझ लेने के उपरांत तत्वज्ञान के एक जिज्ञासु को इस निष्कर्ष पर पहुँचना पड़ता है कि मनुष्य को मिली हुई तीन शरीरों के रूप में तीन विभूतियाँ प्राणि जगत की सबसे बड़ी ईश्वर प्रदत्त उपलब्धियाँ है। इन तीन क्षेत्रों में जो विकृतियाँ घुस पड़ी है उन्हीं ने जीव को निकृष्ट स्तर का दीन- दयनीय बनाकर रख दिया है। प्रकृति का- भौतिकता का- अनावश्यक और अवांछनीय भार लद पड़ने से पिता और पुत्र का वियोग उपस्थित हो गया है। इसी अशक्ति, अविद्या और अलक्ष्मी से जीव की दुर्गति हुई है। प्रकृतिगत आकर्षणों की ओर अस्वाभाविक और असाधारण रूप से दौड़ पड़ने से ही कुसंस्कारों की परतें जमी हैं और उनने पतनकारी दुर्दशा उत्पन्न की है। उस अवांछनीयता से जूझना ही वह साधना समर है, जिसमें प्रत्येक हनुमान और अर्जुन को- साधक को अपना पराक्रम दिखाना पड़ता है।
आत्मा को परमात्मा से मिला देने के लिए कुसंस्कारों से पीछा छुड़ाना पड़ता है और ईश्वरीय प्रेरणा का अनुगमन करते हुए अपनी अन्तरंग और बहिरंग स्थिति ऐसी बनाती पड़ती है जो ब्राह्मी कहीं जा सके। दूध और पानी एक रस होने से घुल सकते है। लोहा और पानी का घुल सकना कठिन है हम अपने भौतिकवादी स्तर से ऊँचे उठे और ईश्वरीय चेतना के अनुरूप अपनी क्रिया, विचारणा एवं आस्था को ढाले तो ईश्वर प्राप्ति का जीवन लक्ष्य पूरा हो सकता है। वियोग का अन्त योग में होना चाहिए- यही ईश्वर की इच्छा है।