अतीन्द्रिय सामर्थ्य एवं परब्रह्म की विधि व्यवस्था

यह समस्त विश्व ब्रह्माण्ड चेतना का एक सुविस्तृत समुद्र हैं। स्थूल जगत में जो होता है, उसकी प्रतिक्रिया सूक्ष्म जगत में निश्चित रूप से होती है। उसे देख समझ सकना हर किसी के लिए सम्भव नहीं होता, पर जिनकी चेतनात्मक स्थिति विशिष्ट है, वे उस अदृश्य को दृश्य की तरह देख सकते हैं और सुविदित की तरह जान सकते हैं।

प्रयत्नपूर्वक चेतना का अतीन्द्रिय विकास किया जा सकता है और अपनी जानकारी का क्षेत्र इन्द्रिय शक्ति के आधार पर सीमित रहने का बंधन तोड़कर वह सब भी जाना जा सकना है जो इस ब्रह्माण्ड में किसी भी क्षेत्र में हो रहा या हो चुका है। जब तक बूँद समुद्र से अलग है तब तक उसका विस्तार, मूल्य एवं बल स्वल्प है, किन्तु जब वह समुद्र में मिल जाती है, तो फिर उसका स्वल्प सागर जैसा बन जाता है और ज्वार- भाटों की तरह ऊँचा उठने लगता है और नीचे गिरने की नई सामर्थ्य प्राप्त करने का अवसर मिल जाता है। बूँद रहने पर उसका अपना अलग स्वरूप और स्वाद था, पर अब उसमें आमूल- चूल परिवर्तन हो गया। समुद्र जल का खारीपन- भारीपन उसमें ओत- प्रोत हो गया। ब्रह्माण्डीय चेतना से, ब्रह्म- सत्ता से सम्बद्ध व्यक्ति सीमा बन्धन तोड़कर असीम बनता है। उसकी जानकारी का क्षेत्र असीम हो जाता है। स्तर बढ़ने पर स्थिति और भी आगे बढ़ती है। आत्मा में वे गुण उत्पन्न हो जाते हैं जो परमात्मा में है। परमात्मा सत्चित आनन्दमय है- सत्यं शिवं सुंदर है। ब्रह्म परायण का व्यक्तित्व इन्हीं विभूतियों का प्रतीक प्रतिनिधि बन जाता है। इतना ही नहीं ईश्वर में जो सामर्थ्य एवं विशेषताएँ है उनकी झाँकी भी ऐसे मनुष्यों में होने लगती है। वे महान आत्माओं- महामानवों एवं देवात्माओं- अवतारों जैसे उस प्रकार के काम करते है जो सामान्य लोगों को अपने लिए अद्भुत एवं असम्भव प्रतीत होते हो। युग प्रवाह को मोड़ना और व्यापक असंतुलन को सन्तुलन में बदलना ऐसे ही महामानवों के लिए सम्भव होता है, जो ब्रह्मसत्ता के साथ अपना विशेष सम्बन्ध बनाकर असाधारण आत्मशक्ति के अधिकारी बन गए है। सीमित व्यष्टि चेतना भव- बन्धनों में- पंचभूत कलेवर में जकड़े हुए लोग तो अपना सामान्य निर्वाह तक ठीक प्रकार नहीं कर पाते और उतने भर प्रयोजन में रोते- कलपते असफलता पर हाथ मलते पाए जाते है। जबकि आत्मशक्ति सम्पन्न न केवल अपनी वरन् व्यापक क्षेत्र को प्रभावित करते और समय की आवश्यकता को पूरी करते देखे जाते हैं।

आत्म- शक्ति का अभिवर्धन ही सत्ता के साथ घनिष्ठता स्थापित करने से सम्भव होता है। तपश्चर्याएँ एवं योग साधनाएँ उसी प्रयोजन के लिए की जाती है ।। यह ऊँची स्थिति एवं आगे की बात हुई। ऊपर की पंक्तियों में ब्रह्म सम्बन्ध बनाने और योगी की दिव्य शक्ति प्राप्त करने का प्रसंग है। इससे पहले की हलकी स्थिति वह है जिसमें आत्मशक्ति बढ़ने के लक्षण तो नहीं मिलते पर मस्तिष्कीय चेतना से सीमा बन्धन टूटते और असीम के साथ सम्बन्ध बनते है। यह पंच भौतिक प्रकृति के व्यापक क्षेत्र में प्रवेश की बात है। भौतिक जगत उतना ही नहीं है जितना कि आँख से देखा, हाथ से छुआ या अन्य इन्द्रियों के आधार पर प्रत्यक्षतः जाना जाता है। अप्रत्यक्ष एवं अविज्ञात भी असीम है। वैज्ञानिक शोधों द्वारा उसी को खोजा जा रहा है जो अप्रत्यक्ष होने पर भी प्रत्यक्ष की तुलना में अत्यधिक शक्तिशाली है। इसी सूक्ष्म प्रकृति के क्षेत्र में मस्तिष्कीय चेतना का प्रवेश होता है और प्रत्यक्ष जगत की जो छाया- प्रतिक्रिया जगत में विद्यमान है उसका परिचय स्पष्ट रूप से मिलने लगता है।

अतीन्द्रिय चेतना की चर्चा अध्यात्म ग्रंथों में आज्ञाचक्र एवं तृतीय नेत्र के रूप में होती रही है। शिव के, दुर्गा के मस्तक में भृकुटि के मध्य एक तीसरा नेत्र होने का उल्लेख है। इसे दिव्य चक्षु भी कहते है। दिव्य दृष्टि इसी में रहती है। शिव ने इसी का उन्मीलन करके काम विकार को जला कर भस्म किया था। अर्जुन को विराट ब्रह्म का दर्शन इसी दिव्य चक्षु से हुआ था। संजय ने महाभारत का घटनाक्रम इसी नेत्र से देखते हुए धृतराष्ट्र को सारा वृत्तान्त सुनाया था। अदृश्य दर्शन इसी केन्द्र का काम है। यह रूप शक्ति का, दृष्टि क्षेत्र का प्रसंग है। शब्द, रस, गन्ध, स्पर्श की अन्य अनुभूतियाँ भी अतीन्द्रिय क्षमता से हो सकती है जो प्रत्यक्ष सम्पर्क से तो बहुत परे है, पर देश काल की सीमा लाँघकर अपना अस्तित्व अन्यत्र कहीं न कहीं सूक्ष्म रूप से बनाए हुए है। इस प्रकार के अनुभव सर्वसाधारण को नहीं होते, इसलिए वे अद्भुत, अलौकिक प्रतीत होते है, किन्तु वस्तुतः वे होते सर्वथा लौकिक एवं सामान्य ही है। इस संसार में जो कुछ घटित होता है वह नितांत क्रमबद्ध और प्रकृति व्यवस्था के अनुरूप ही होता है। अन्तर इतना ही है कि हम प्रकृति के थोड़े से नियमों से ही परिचित है। जो अभी भी अविज्ञात बना हुआ है उसका क्षेत्र, विज्ञात की तुलना में असंख्य गुना अधिक है।

प्रकृति व्यवस्था की सामान्य जानकारी अत्यल्प है। उससे गहरे जाकर जो लोग अन्तर्निहित नियम- सूत्रों तथा विधि- व्यवस्थाओं की जानकारी प्राप्त कर लेते हैं और प्रकृति की सूक्ष्म तथा गहरी परतों के विश्लेषण एवं अर्थ संकेतों को समझने की क्षमता अपने में विकसित कर लेते है, उन्हें यद्यपि प्रकृति के गर्भ में पक रही घटनाएँ प्रत्यक्षवत् ही दृष्टिगोचर होती हैं, किन्तु सामान्य लोकानुभव में तो इन घटनाओं को वर्षों बाद ही आना है और उस समय तो वे सर्वत्र अज्ञात व अनुमानित ही होती है। अतः भविष्य की उन घटनाओं का कथन जन सामान्य में विस्मय का कारण बने, यह स्वाभाविक ही है।

वर्तमान में जो सामने है, जिसे जानने के साधन उपलब्ध है उसे जाना जा सकता है, पर जो स्थान की दृष्टि से दूर है, जहाँ के समाचार साधन रहित स्थिति में है, पहुँच नहीं सकते वहाँ की परिस्थितियों को प्रत्यक्ष घटना की तरह दृश्य रूप से देखने, श्रव्य रूप से सुनने की घटनाएँ निश्चय ही आश्चर्यजनक है। वर्तमान का ज्ञान भी तभी मिल सकता है जब वे इन्द्रिय अनुभूति के द्वारा प्रत्यक्ष हो अथवा पत्र, सन्देश, टेलीफोन, तार, रेडियो, टेलीविजन जैसे उपकरणों के सहारे उन्हें जाना जा सकता है। ऐसी स्थिति न होने पर भी यदि कोई घटनाक्रम प्रत्यक्ष की भाँति ही जाना जा सके तो उसे आश्चर्यजनक एवं अतीन्द्रिय क्षमता का चमत्कार ही कहा जायेगा।

वर्तमान में दूरवर्ती घटनाक्रमों को देख या सुन सकना भी विकसित इन्द्रिय शक्ति की परिधि में आ सकता है, पर भूतकाल की अविज्ञात घटनाओं को इस प्रकार प्रस्तुत करना कि उनकी प्रामाणिकता में कोई सन्देह न रहे, सचमुच ही आश्चर्य की बात है। इससे भी अधिक आश्चर्य उन सम्भावनाओं की जानकारी का है, जो अभी घटित ही नहीं हुई और अनुमान के आधार पर भी उस प्रकार की कल्पना करने का कोई कारण प्रतीत नहीं होता।

भूतकाल और वर्तमान के बीच समय की दूरी एक प्रकार की खाई है, जिसे पाट सकना सामान्यतया अति कठिन प्रतीत होता है। ये इतिहास के पृष्ठों पर अंकित लेखों- खण्डहरों शोधों तथा जनश्रुति प्रसंगों के आधार पर ही भूतकाल का आधा, अधूरा विवरण प्राप्त होता है, पर उसे ज्यों का त्यों जान सकना- प्रसंगों को उसी प्रकार देख या सुन सकना कठिन है। सामान्य मानवी चेतना इतनी लम्बी खाई छलांग सके ऐसे साधन उसके पास नहीं है। विकसित चेतना भूतकाल की घटनाओं को उसी प्रकार देख, सुन या जान सकती है, जिस प्रकार कि हम सब वर्तमान के प्रत्यक्ष घटनाक्रम की जानकारी सरलता पूर्वक जान लेते है।

भविष्य दर्शन और भी कठिन है। जो हो चुका उसके स्थूल अथवा सूक्ष्म प्रमाणों का मिल सकना समझ में आता है। पुरातत्व शोधें जिस प्रकार अवशेषों के सहारे प्राचीन घटनाक्रम का निष्कर्ष निकालती है उसी प्रकार सूक्ष्म जगत में विद्यमान किन्हीं प्रमाणों को सूक्ष्म चेतना द्वारा जान सकना तार्किक दृष्टि से सम्भव हो सकता है। उस प्रकार के उपकरणों का विकास अभी नहीं हो सका, यह दूसरी बात है, पर उसे जानने की सम्भावना को सिद्धान्ततः स्वीकार करने में किसी को कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए।

यदि भविष्य निश्चित है और उसे हम जान सकते है, तो एक नया संकट यह उत्पन्न होता है कि कर्म की कोई उपयोगिता या महत्ता नहीं रहती। विधि का विधान, भाग्य का निर्धारण यदि पूर्व निश्चित ही है तो फिर उसी की प्रतीक्षा में बैठे रहना कोई बुद्धिमानी है? तब विविध- विधि दौड़- धूप करने की आवश्यकता क्या रहीं? ऐसी दशा में मनुष्य मात्र भाग्य की कठपुतली बन जाता है और पुरुषार्थ का कोई मूल्य नहीं रहता। यह विचित्र स्थिति है।

तत्त्वतः भविष्य दर्शन और भाग्यवाद एक दूसरे से सर्वथा भिन्न हैं। आसान दीखते हुए भी उनकी स्थिति में जमीन- आसमान जितना अन्तर है। भाग्यवाद सुनिश्चित विधि- विधान का प्रतिपादन करता है जबकि भविष्य दर्शन इस बात पर निर्भर है कि जो कुछ वर्तमान में घटित हो रहा है अथवा भूतकाल में घट चुका है, उसकी संयुक्त प्रतिक्रिया निकट भविष्य में क्या होने वाली है।

असामान्य को देखा समझा जाय, सूक्ष्म जगत का पर्यवेक्षण किया जाय तो प्रतीत होगा कि भूत और वर्तमान के घटनाक्रमों की प्रतिक्रिया अपने ढंग से पकती और पनपती रहती है। समयानुसार उसका प्रकटीकरण तो होता ही है, पर सूक्ष्म बुद्धि उसका अनुमान पहले से ही लगा लेती है। प्रसव के बाद यह पता हर किसी को चल जाता है कि लड़का पैदा हुआ या लड़की। पर जानकर लोग गर्भवती में उभरे लक्षणों को देखकर उसकी भविष्यवाणी पहले से ही कर देते है। अमुक मुकदमें का क्या फैसला हो सकता है इसका अन्दाज न्याय विशेषज्ञों को पहले से ही लग जाता है।

सूक्ष्म जगत में प्रस्तुत परिस्थितियों एवं हलचलों के आधार पर संभावना बननी आरम्भ हो जाती है। समयानुसार उसका प्रकटीकरण तो होना ही है, पूर्वाभास के रूप में भी उसे जानना सम्भव हो सकता है। भविष्य वक्ताओं की दिव्य चेतना उस अदृश्य को देखती और अव्यक्त को व्यक्त करती है, जो निकट भविष्य में घटित होने जा रहा है। सामान्य अनुमान तो सभी लगाते और अपनी- अपनी सम्भावना व्यक्त करते हुए शर्त लगाते है। आश्चर्य जब माना जाता है कि सामान्य बुद्धि के आधार पर सोची जा सकने वाली बात की अपेक्षा कोई अटपटी बात कहीं जाती है और वह सत्य सिद्ध होकर रहती है।

विश्व चेतना के गर्भ में वर्तमान की हलचलों का सूक्ष्म रूप विद्यमान रहता है। उसे अन्यत्र पकड़ा और फिर पूर्व रूप में स्थूल किया जा सकता है। इसके प्रमाण रेडियो और टेलीविजन के माध्यम से भली भाँति जानने चाहिए। रेडियो स्टेशन में ब्राडकास्ट की हुई वाणी, ध्वनि कम्पनों के रूप में अनन्त अन्तरिक्ष में उसी तरह बिखरती है जिस तरह तालाब में ढेला फेंक देने पर उसकी लहरे चारों ओर चलने लगती है। इन्हीं लहरों को घरों में लगे रेडियो, ट्रांजिस्टर पकड़ते है और फिर उन्हें प्रत्यक्ष आवाज में परिणित करके सुनने वालों के सामने प्रस्तुत करते है। टेलीफोन में भी वही होता है। आवाज बिजली के रूप में परिणत होती है और तार के सहारे गन्तव्य स्थान तक चली जाती है। उस बिजली को रिसीवर फिर आवाज में बदल देता है। टेलीविजन में प्रकाश की तरंगें आकाश में फैलती है और उन्हें जहाँ भी उपकरण लगे होते है वहाँ फिर दृश्य रूप में बदल लिया जाता है। प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष में बदलना और उसका फिर अप्रत्यक्ष से प्रत्यक्ष हो जाना टेलीविजन, टेलीफोन, टेप रिकार्डर, ग्रामोफोन आदि यन्त्रों से स्पष्ट है।

भूतकाल की घटनाएँ भी अनंत आकाश में अपना अस्तित्व बनाये रहती है और ढूँढ़ खोज करने पर उन्हें फिर उसी प्रकार प्राप्त किया जा सकता है जैसी कि वे अपने समय में थी। प्रयत्न करने पर कृष्ण के मुख से निकली हुई गीता जिसे अर्जुन ने सुना था अब पुनः खोजी और उसी रूप में सुनी जा सकती है। आत्मा की तरह पदार्थ भी अविनाशी है। उसका रूपान्तरण तो होता रहता है, पर अस्तित्व समाप्त नहीं होता। सूक्ष्म जगत में भूतकाल का घटनाक्रम अदृश्य रूप में विद्यमान रहता है, वह झीना पड़ता जाता है और बात जितनी पुरानी होती है उतना ही उसका ढूँढ़ निकालना कठिन पड़ता है, फिर भी इतना निश्चित है कि उसका अस्तित्व अनन्त काल तक बना रहता है। आवश्यकतानुसार कभी भी प्रयत्नपूर्वक ढूँढ़ निकाला जा सकता है।

भूतकाल की घटनाएँ ही नहीं, वस्तुओं की सत्ता ही नहीं, कई बार तो उन मृतात्माओं के अस्तित्व का भी परिचय मिलता है जिनके शरीर अंत्येष्टि कर्म द्वारा समाप्त किये जा चुके है। वे अपना अस्तित्व चेतना क्षेत्र में एक प्रत्यक्ष सत्ता की तरह बनाये रहते है। इतना ही नहीं उस प्रकार के आचरण भी करते हैं मानो उनकी स्थिति अभी भी प्रत्यक्ष जगत में हस्तक्षेप करने योग्य बनी हुई हो। स्थूल शरीर न रहने के कारण प्रत्यक्ष इन्द्रियाँ तो शेष नहीं रहती, फिर भी उनका सूक्ष्म शरीर अपने सूक्ष्म उपकरणों के साथ इस स्थिति में बना रहता है कि सांसारिक क्रिया कलापों में अपना योगदान दे सके एवं अभीष्ट व्यक्तियों को प्रभावित कर सके।

भविष्य में होने वाली घटनाओं के भी कई बार ऐसे आभास मिलते हैं जिनकी उस समय कोई सम्भावना नहीं थी, पर वह पूर्व सूचना समय पर सही सिद्ध हुई। ऐसे उदाहरणों की कमी नहीं। फलित ज्योतिष तो भविष्य कथन को आधार बनाकर एक व्यवसाय ही बन गई है। भविष्यवक्ताओं में से अधिकांश तो बाजारू लोग होते है और ऐसे ही तीर- तुक्का मारकर लोगों को बहकाने और जेब काटने में लगे रहते हैं। फिर भी इस तथ्य से इंकार नहीं किया जा सकता कि भविष्य का आभास मिलना एक सच्चाई है और वह बहुत बार अपनी वास्तविकता एवं प्रामाणिकता का परिचय देती है।

परिस्थितियों का प्रवाह बदल जाय तो भविष्य दर्शन भी निश्चित रूप से बदल जायेगा। भविष्यवाणियाँ वही सही उतरती है जिनकी घोषणा तथा फलित होने के मध्य घटना का प्रवाह अपनी चाल पर यथावत चलता रहता है। मनुष्य की सत्ता प्रचण्ड है वह अपने पराक्रम से सामान्य चाल को उलटकर नई रीति- नीति अपना सकता है। साहसी व्यक्ति ऐसे मोड़ बहुदा लेते रहते है। ऐसी दशा में उनके सम्बन्ध में बताया गया भविष्य भी निश्चित रूप से मोड़ लेते देखा जायेगा। व्यक्ति की भाँति ही समूहगत सामाजिक हलचलें भी अपने प्रवाह की दिशा धारा बदल सकती है। चेतना जगत का यह वैचित्र्यपूर्ण लीला संदोह वस्तुतः समझने योग्य है, क्योंकि साधनाएँ इसी क्षेत्र को प्रभावित करती है।

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