जप प्रक्रिया का वैज्ञानिक आधार

जप में शब्दों की पुनरावृत्ति होते रहने से उच्चारण का एक चक्रव्यूह- सर्किल बनता है। क्रमिक परिभ्रमण से शक्ति उत्पन्न होती है। पृथ्वी अपनी धुरी पर घूमती है। उस परिभ्रमण से आकर्षण परिभ्रमण बन्द हो जाय तो उस पर घोर नीरवता, निर्जीवता एवं अशक्तता छा जायगी। शक्ति उत्पादन के लिए परिभ्रमण कितना आवश्यक है, इसे डाइनेमो के प्रयोगकर्ता जानते हैं। घुमाव बन्द होते ही बिजली बनना बन्द हो जाती है। स्थूल और सूक्ष्म शरीर में विशिष्ट स्तर के विद्युत् प्रवाह उत्पन्न करने के लिए विशिष्ट शब्दों का विशिष्ट गति एवं विधि से उच्चारण करना पड़ता है। मन्त्र जप का सामान्य विज्ञान यही है।

जप में एक शब्दावली को एक क्रम और एक गति से बिना विश्राम दिये गतिशील रखा जाता है। साधारण वार्तालाप में अनेकों शब्द अनेक अभिव्यक्तियाँ लिये हुए अनेक रस और भावों सहित उच्चारित होते हैं। अस्तु इनमें न तो एकरूपता होती है न एक गति। कभी विराम, कभी प्रवाह, कभी आवेश व्यक्त होते रहते हैं। पारस्परिक वार्तालाप में प्रतिपादन का एक केन्द्र या एक स्तर नहीं होता। अतएव उससे वार्ताजन्य प्रभाव भर उत्पन्न होता है, कोई विशिष्ट शक्तिधारा प्रवाहित नहीं होती। जप की स्थिति इससे सर्वथा भिन्न है। इसमें सीमित शब्दावली ही प्रयुक्त होती है और वही लगातार बोली जाती रहती है। रेखागणित के विद्यार्थी जानते हैं कि एक रेखा यदि लगातार सीधी खींचे जाती रहे तो वह अन्ततः उसी केन्द्र से आकर जुड़ जायगी, जहाँ से आरम्भ हुई थी। प्रत्येक गतिशील पदार्थ गोल हो जाता है। पृथ्वी गोल है। ग्रह- नक्षत्र सभी गोल हैं। भौतिक जगत का छोटा घटक परमाणु और चेतन जगत का छोटा घटक जीवाणु दोनों ही गोल हैं। गोलाई पर चलते रहा जाय तो उसका अन्त आरम्भ वाले स्थान पर ही होगा। ग्रह- नक्षत्रों की भ्रमण कक्षाएँ इसी आधार पर सुनिश्चित रहती हैं। सीधी रेखा में हम पृथ्वी की परिक्रमा करने निकल पड़ें तो लौटकर वहीं आ जायेंगे, जहाँ से चले थे। इस सिद्धान्त के अनुसार मन्त्र- जप की परिणति एक गतिशील शब्द- चक्र की स्थापना के रूप में होती है।

कहा जाता है कि वाल्मीकि ऋषि ने उलटा मन्त्र जपा था, अर्थात् राम- राम के स्थान पर मरा- मरा कहा था। वस्तुतः यह सुनने- समझने वालों का ही भ्रम रहा होगा। हैं लगातार एक ही गतिक्रम से राम- राम कहते रहने पर उसकी गति गोल हो जायगी और उसे आसानी से मरा- मरा समझा जा सकेगा। इसी प्रकार मरा- मरा मन्त्र का संकल्प लेकर किया गया उच्चारण भी राम- राम प्रतीत होने लगेगा। असल में होता यह है कि एक शब्दावली को अनवरत गति से बोलने पर उसमें आदि अन्त का भेद नहीं रहता, पुरी शब्दावली एक गोलाई में घूमने लगती है और शब्द- चक्र बनाती है। मन्त्र जप के विधान का निर्देश करते हुए ‘तैलधारावत्’ सूत्र में कहा गया है कि जिस तरह तेल को एक गति से गिराने पर इसकी धारा बँधा जाती है, उसी प्रकार मन्त्रोच्चारण का क्रम एक ही गति से चलना चाहिए। न उसके प्रवाह क्रम में अन्तर आवे और न उच्चारण स्तर में। रुक- रुककर, कभी धीमे, कभी तीव्र, कभी उच्च स्वर, कभी मन्द, ऐसा जप में नहीं हो सकता। वेदमन्त्रों के सस्वर उच्चार की बात दूसरी है। वे छन्द हैं, इसलिए पाठ करते समय उन्हें स्वरबद्ध अनुशासन का ध्यान रखते हुए गाया जाना अथवा पाठ करना उचित है। जप की व्यवस्था इससे सर्वथा भिन्न है। गायत्री, मृत्युञ्जय आदि वेद मंत्रों को भी जप करते समय स्वर रहित ही जपा जाता है, साथ ही धारा जैसी एक रस, एक सम गति बनाये रखी जाती है। इसमें कोई अन्तर तो नहीं पड़ता, इसकी जाँच- पड़ताल माला के आधार पर की गई गणना से होती है। गायत्री मन्त्र जप में साधारणतया एक घण्टे में १०- ११ माला होती हैं। नित्य वही क्रम चला या नहीं, इसकी जाँच- पड़ताल घड़ी और माला के समन्वय से हो सकती है। प्रत्येक माला पूरी होने में समान समय लगना चाहिए, तभी मन्त्र शक्ति का वैज्ञानिक आधार बन गया, ऐसा समझा जा सकता है। भक्ति- विभोर होकर बिना गति का ध्यान रखे भी जप हो सकता है, पर वह भावनात्मक प्रक्रिया हुई। उसका परिणाम भावना की शुद्धता और गहराई पर निर्भर है। ऐसे जप को शब्द- शक्ति के आधार पर उत्पन्न होने वाले मन्त्र- जप से भिन्न स्तर का समझा जाना चाहिए। ब्लडप्रेशर नापने की मशीन रोगी की बाँह पर बाँधकर डाक्टर घड़ी पर निगाह लगाये रहते हैं, हवा का दबाव बढ़ाते रहते हैं, कान में स्टेथेस्कोप से धड़कन गिनते रहते हैं, तभी वे समझ पाते हैं कि रक्तचाप कितना है। घड़ी और माला- गणना पर ध्यान लगाये रहकर नये साधक को अपने जप की गति को एक रस- एक सम बनाना पड़ता है। उतना बन पड़े तो समझना चाहिए कि शब्द गति का चक्र बन गया और उसके आधार पर मन्त्र विज्ञान के विशिष्ट परिणाम उत्पन्न होंगे। विशेष पुरश्चरणों में जप विद्या के निष्णात साधक इसी लिए बिठाये जाते हैं कि उनकी सही जप- प्रक्रिया सही परिणाम उत्पन्न कर सके।

गति जब गोलाई में घूमने लगती है तो उससे उत्पन्न होने वाले चमत्कार हम अपने दैनिक जीवन में नित्य ही देखते रहते हैं। बच्चे छोटी फिरकनी अथवा लट्टू जमीन पर घुमाने का खेल- खेलते हैं। एक बार होशियारी से घुमा देने पर यह खिलौने देर तक अपनी धुरी पर घूमते रहते हैं और गिरते नहीं, जबकि गति बन्द होते ही वे जमीन पर गिर जाते हैं। यह गति का चमत्कार ही है कि एक बार का धक्का देर तक काम देता है और उत्पन्न गति प्रवाह को देर तक चलते रहने की स्थिति उत्पन्न करता है। जप के द्वारा उत्पन्न गति भी साधना काल के बहुत पश्चात् तक चलती रहती है और साधक की आत्मिक विशेषता को गतिशील एवं सुस्थिर बनाये रहती है।

मशीनों का बड़ा पहिया ‘फ्लाईह्वील’ एक बार घुमा देने पर मशीन के अन्य पुर्जों को न केवल गतिशील ही करता है, वरन् उनकी चाल को नियन्त्रित भी करता है। आरी का उपयोग हाथ से आगे पीछे की गति से करने पर भी लकड़ी कटती तो है, पर यदि गोलाई में घुमा दिया जाय तो वही आरी कई गुनी शक्तिशाली सिद्ध होगी और अधिक मात्रा में अधिक जल्दी कटाई कर सकेगी। आरा मशीनें यही करती हैं। वे मोटे- मोटे लट्ठे और कठोर जड़ें आसानी से चीर- चारकर रख देती हैं, जबकि आगे पीछे करने पर उसी आरी के लिए वही लकड़ी काटना काफी कठिन पड़ता। यह सब गोलाई में घूमने वाले गति प्रवाह का चमत्कार है।

तेजी के साथ गोलाई का घुमाव सैन्ट्रीफ्यूगल फोर्स उत्पन्न करता है। गोफन में कंकड़ रखकर घुमाने और उसे छोड़कर पक्षी भगाने का कार्य पकी फसल रखाने के लिए किसानों को बहुधा करना पड़ता है।

घुमाव की शक्ति के यह आश्चर्यचकित करने वाले परिणाम साधारणतया देखने में आते रहते हैं। जप के माध्यम से गतिशील शब्द शक्ति का प्रतिफल भी वैसा ही होता है। झूले पर बैठे बच्चों को जिस तरह अधिक बड़े दायरे में तेजी से घूमने का और गिरने की आशंका होने पर भी न गिरने का आनन्द मिलता है, उसी प्रकार अन्तःचेतना की सीमा परिधि छोटी सीमा से बढ़कर कहीं अधिक व्यापक क्षेत्र तक अपना विस्तार देखती है और दुर्भावनाओं एवं दुष्प्रवृत्तियों के कारण अधःपतन की जो आशंका रहती है, उसके बचाव की सहज संभावना बन जाती है। गोफन द्वारा फेंके गए कंकड़ की तरह साधक अभीष्ट लक्ष्य की ओर द्रुतगति से दौड़ता है और यदि फेंकने वाले के हाथ सधे हुए हैं तो वह ठीक निशाने पर भी जा लगता है। घुमाव की स्थिति में रहने पर तिरछा हो जाने पर भी लोटे का पानी नहीं फैलता। उसी प्रकार अपने भीतर भरे जीवन तत्व के, संसार के अवाँछनीय आकर्षणों में गिर पड़ने का संकट घट जाता है। लोटा धीमे घुमाया गया हो तो बात दूसरी है, पर तेजी का घुमाव पानी को नहीं ही गिरने देता। जप के साथ जुड़ा विधान और भावना स्तर यदि सही हो तो आन्तरिक दुष्प्रवृत्तियों से आए दिन जूझने और कदम- कदम पर असफल होने की कठिनाई दूर हो जाती है।

चेतना को प्रशिक्षित करने के लिए मनोविज्ञान में चार आधार और स्तर बताये गये हैं। इनमें प्रथम है- शिक्षण, जिसे अँग्रेजी में लर्निङ्ग कहते हैं। स्कूल के बच्चों को इसी स्तर पर पढ़ाया जाता है। उन्हें तरह- तरह की जानकारियाँ दी जाती हैं। उन जानकारियों को सुन लेने भर से काम नहीं चलता, विद्यार्थी उन्हें बार- बार दुहराते हैं। स्कूली पढ़ाई का सारा क्रम ही दुहराने- याद करने के सहारे खड़ा होता है। पहाड़े रटने पड़ते हैं। संस्कृत को तो रटन्त विद्या ही कहा जाता है। प्रकारान्तर से यह रटाई किसी न किसी प्रकार हर छात्र को करनी पड़ती है। स्मृति पटल पर किसी नई बात को जमाने के लिए बार- बार दुहराये जाने की क्रिया अपनाये बिना और कोई रास्ता नहीं।

एक बार याद कर लेने से कुछ बातें तो देर तक याद बनी रहती हैं, पर कुछ ऐसी हैं जो थोड़े दिन अभ्यास छोड़ देने से एक प्रकार से विस्मरण ही हो जाती हैं। स्कूली पढ़ाई छोड़ देने के उपरान्त यदि वे विषय काम में न आते रहें तो कुछ समय बाद विस्मृत हो जाते हैं। फौजी सिपाहियों को नित्य ही परेड करनी पड़ती है। पहलवान लोग बिना नागा अखाड़े में जाते और रोज ही दण्ड बैठक करते हैं। संगीतकारों के लिए नित्य का रियाज आवश्यक हो जाता है। कुछ समय के लिए भी वे गाने बजाने का अभ्यास छोड़ दें तो उँगलियाँ लड़खड़ाने लगेंगी और ताल स्वरों में अड़चन उत्पन्न होने लगेगी है।

शिक्षण की लर्निंग भूमिका में पुनरावृत्ति का आश्रय लिया जाना आवश्यक है। जप द्वारा अनभ्यस्त ईश्वरीय चेतना को स्मृति पटल पर जमाने की आवश्यकता होती है ताकि उपयोगी प्रकाश की अन्तःकरण में प्रतिष्ठापना हो सके। कुएँ की जगत में लगे पत्थर पर रस्सी की रगड़ बहुत समय तक पड़ते रहने से उसमें निशान बन जाते हैं। हमारी मनोभूमि भी इतनी हो कठोर है। एकबार कहने से बात समझ में तो आ जाती है, पर उसे स्वभाव की, अभ्यास की भूमिका तक उतारते के लिये बहुत समय तक दुहराने की आवश्यकता पड़ती है। पत्थर पर रस्सी की रगड़ से निशान पड़ने की तरह ही हमारी कठोर मनोभूमि पर भगवत् संस्कारों का गहराई तक जम सकना संभव है।

शिक्षण की दूसरी परत है- ‘रिटेन्शन’, अर्थात् प्रस्तुत जानकारी को स्वभाव का अंग बना लेना। तीसरी भूमिका है- ‘रीकाल’, अर्थात् भूतकाल की किन्हीं विस्मृत स्थितियों को कुरेद बीनकर फिर से सजीव कर लेना। चौथी भूमिका है- ‘रीकाग्नीशन’ अर्थात् मान्यता प्रदान कर देना ; निष्ठा, आस्था, श्रद्धा एवं विश्वास में परिणत कर देना। उपासना में इन्हीं सब प्रयोजनों को पूरा करना पड़ता है। यह चारों ही परतें छेड़नी होती हैं। भगवान की समीपता अनुभव कराने वाली प्रतीक पूजा ‘रिटेन्शन’ है ।। ईश्वर के साथ आत्मा के अति प्राचीन सम्बन्धों को भूल जाने के कारण ही जीवन में भटकाव होता है। पतंग उड़ाने वाले के हाथ से डोरी छूट जाती है तो वह इधर- उधर छितराती फिरती है। बाजीगर की उँगलियों से बँधे कठपुतली के सम्बन्ध सूत्र टूट जाय तो फिर वे लकड़ी के टुकड़े नाच किस प्रकार दिखा सकेंगे? कनेक्शन तार टूट जाने पर बिजली के यन्त्र अपना काम करना बन्द कर देते हैं।

ईश्वर और जीव का सम्बन्ध सनातन है, पर वह माया में अत्यधिक प्रवृत्ति के कारण एक प्रकार से टूट ही गया है। इसे फिर से सोचने, सूत्र को नये सिरे से ढूँढ़ने और टूटे सम्बन्धों को फिर से जोड़ने की प्रक्रिया रीकाल है। जप द्वारा यह उद्देश्य भी पूरा होता है। चौथी भूमिका रीकाग्नीशन में पहुँचने पर जीवात्मा की मान्यता अपने भीतर ईश्वरीय प्रकाश विद्यमान होने की बनती है और वह वेदान्त तत्त्वज्ञान की भाषा में अयमात्मा ब्रह्म, तत्त्वमसि, सोहमस्मि, चिदानन्दोहम्, शिवोऽहम् की निष्ठा जीवित करता है। यह शब्दोच्चार नहीं वरन् मान्यता का स्तर है। जिसमें पहुँचे हुए मनुष्य का गुण, कर्म, स्वभाव, दृष्टिकोण एवं क्रिया- कलाप ईश्वर जैसे स्तर का बन जाता है। उसकी स्थिति महात्मा एवं परमात्मा जैसी देखी और की जा सकती है।

आत्मिक प्रगति के लिए चिन्तन क्षेत्र की जुताई करनी पड़ती है, तभी उसमें उपयोगी फसल उगती है। खेत को बार- बार जोतने से ही उसकी उर्वरा शक्ति बढ़ती है। नाम जप को एक प्रकार से खेत की जुताई कह सकते हैं ।। प्रहलाद की कथा है कि वे स्कूल में प्रवेश पाने के उपरान्त पट्टी पर केवल राम नाम ही लिखते थे। आगे की बात पढ़ने के लिए कहे जाने पर भी राम नाम ही लिखते रहे और कहते रहे- इस एक को ही पढ़ लेने पर सारी पढ़ाई पूरी हो जाती है। युधिष्ठिर की कथा भी ऐसी ही है। अन्य छात्रों ने आगे के पाठ याद कर लिये, पर वे पहला पाठ ‘सत्यंवद’ ही रटते लिखते रहे। अध्यापक ने आगे के पाठ पढ़ने के लिए कहा तो उनका उत्तर वही था कि एक पाठ याद हो जाने पर दूसरा पढ़ना चाहिए। उनका तात्पर्य यह था कि सत्य के प्रति अगाध निष्ठा और व्यवहार में उतारने की परिपक्वता उत्पन्न हो जाने तक उसी क्षेत्र में अपने चिन्तन को जोते रहना चाहिए।

जप के लिए भारतीय धर्म में सर्वविदित और सर्वोपरि गायत्री मन्त्र का प्रतिपादन है। उसे गुरुमंत्र कहा गया है। अन्तःचेतना को परिष्कृत करने में उसका जप बहुत ही सहायक सिद्ध होता है। वेदमाता उसे इसीलिए कहा गया है कि वेदों में सन्निहित ज्ञान विज्ञान का सारा वैभव बीज रूप से इन थोड़े से अक्षरों में ही सन्निहित है।

जप का भौतिक महत्त्व भी है। विज्ञान के आधार पर भी उसकी उपयोगिता समझी समझाई जा सकती है। शरीर और मन में अनेक दिव्य क्षमताएँ चक्रों, ग्रन्थियों भेद और उपत्यिकाओं के रूप में विद्यमान हैं। उनमें ऐसी सामर्थ्य विद्यमान हैं जिन्हें जगाया जा सके तो व्यक्ति को अतीन्द्रिय एवं अलौकिक विशेषताएँ प्राप्त हो सकती हैं। साधना का परिणाम सिद्धि है। यह सिद्धियाँ भौतिक प्रतिभा और आत्मिक दिव्यता के रूप में जिन साधना आधारों के सहारे विकसित होती हैं, उनमें जप को प्रथम स्थान दिया गया है।

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