कामबीज एवं ज्ञानबीज की शक्ति सामर्थ्य का रहस्योद्घाटन

मानवी सत्ता के दो ध्रुव प्रदेश हैं। उत्तरी मस्तिष्क का मध्य ब्रह्मरन्ध्र। दक्षिणी जननेन्द्रिय मूल में अवस्थित मूलाधार। सामान्यतया हृदय, मस्तिष्क, जिगर, गुर्दा आदि महत्वपूर्ण अवयव माने जाते हैं, पर विशेष निरीक्षण से ऊर्ध्वलोक- ब्रह्मरन्ध्र और अधःलोक- कामबीज की महिमा अधिक गरिमामयी दृष्टिगोचर होती है। इन्हीं दो केन्द्रों के माध्यम से लघु का विराट से सम्बन्ध बनता और अति महत्वपूर्ण आदान- प्रदान का सिलसिला चलता है। इस क्रम में यदि अवरोध उत्पन्न हो जाय तो घुटन जीवन को न तो सन्तुलित रहने देगी और न सम्भव। सूक्ष्म सत्ता पर विश्वास करने वाले इस परिस्थिति को भली प्रकार जानते हैं। स्व उपार्जित रक्त, माँस से निर्वाह का ढर्रा तो लुढ़कता है, पर महत्वपूर्ण क्षमताएँ तो आदान- प्रदान के आधार पर ही उपलब्ध होती हैं। पृथ्वी सूर्य से आदान- प्रदान न कर सकें तो उस एकाकीपन से, स्वावलम्बन से कैसी विभीषिका उत्पन्न हो जाएगी, इसकी कल्पना करने मात्र से सिर चकरा जाता है।

मस्तिष्क की तीक्ष्णता के सहारे प्राप्त होने वाली उपलब्धियों से सभी परिचित हैं, बुद्धिमान सुशिक्षित व्यक्ति हर क्षेत्र में सफलता प्राप्त करते हैं। इस तथ्य से परिचित होने के कारण लोग शिक्षा साधना में मुक्त हस्त से धन और समय लगाते हैं। मस्तिष्क के अन्तराल में उसका नाभिक न्यूक्लियस ब्रह्मरन्ध्र है। जिसके सहारे न केवल मस्तिष्क का स्तर प्रभावित होता है। वरन् सूक्ष्म जगत के साथ वैसे ही आदान- प्रदान का द्वार खुलता है जैसा कि पृथ्वी का सूर्य एवं अन्यान्य ग्रह- नक्षत्रों के साथ चलता है।

मानवी काया की धुरी ब्रह्मरन्ध्र स्थित जिस अति सूक्ष्म केन्द्र नाभिक में सन्निहित है उसे सहस्रार चक्र कहते हैं। यह अपने क्षेत्र को, मस्तिष्क को प्रभावित करता है, उसके स्तर का निर्धारण करता है साथ ही ब्रह्माण्डीय चेतना के साथ संपर्क बनाकर आदान- प्रदान का पथ प्रशस्त करता है। भौतिकी ऋद्धियाँ और आत्मिकी सिद्धियाँ जागृत सहस्रार के सहारे निखिल ब्रह्माण्ड से आकर्षित की जा सकती हैं। वृक्ष अपने चुम्बकत्व से सजातीय धातु कणों को आकर्षित करते हैं। धातु खदानें अपने चुम्बकत्व से सजातीय धातु कणों को खिचती और जमा करती रहती हैं। सहस्रार में जैसा भी चुम्बक तत्त्व हो उसी स्तर का अदृश्य विश्व वैभव खिंचता और एकत्रित होता रहता है। यही जीवन का अदृश्य उपार्जन उसके स्तर एवं व्यक्तित्व का सूक्ष्म निर्धारण करता है। चेतन और अचेतन मस्तिष्कों द्वारा जो इन्द्रियग य अतीन्द्रिय ज्ञान उपलब्ध होता है उसका केन्द्र यही संस्थान है। ध्यान से लेकर समाधि तक और आत्म- चिन्तन से लेकर भक्तियोग तक की समस्त आध्यात्मिक साधनायें यहीं से फलित और विकसित होती हैं। ओजस्, तेजस् और ब्रह्मवर्चस् के रूप में पराक्रम, विवेक एवं आत्मबल की उपलब्धियों का अभिवर्द्धन भी यहीं से उभरता है।

इस तथ्य को पौराणिक गाथाओं में ब्रह्मलोक, विष्णुलोक और शिवलोक के रूप में अलंकृत चित्रित किया गया है। ब्रह्माजी की प्रलय जलराशि में कमल पुष्प पर, विष्णु क्षीर सागर में शेष शैया पर और शिव मानसरोवर में कैलाश पर्वत पर विराजते हैं। ब्रह्मा के कमलासन में सहस्र पंखुड़ियाँ हैं। विष्णु सहस्र फन वाले शेषनाग पर सोए हैं। शिव के शरीर पर सहस्र फन और सान्निध्य में सहस्र भूतगण रहते हैं। इन अलंकारों में मस्तिष्क स्थित सहस्रार चक्र का ही चित्रण है। खोपड़ी के मध्य भरा हुआ ह्वाइट और ग्रे मैटर ही क्षीरसागर, कैलाश, दिव्य सागर है। सर्प, कमल, भूतगणों का सहस्र की संख्या युक्त होना मस्तिष्कीय नाभिक सहस्रार चक्र समझा जाता है।

दूसरा महत्वपूर्ण केन्द्र दक्षिणी ध्रुव के समतुल्य जननेन्द्रिय मूल में अवस्थित ‘काम- बीज’ है। इसी को साधना शास्त्र में मूलाधार चक्र कहा गया है। इसकी उपयोगिता और गरिमा अपने स्तर की है। मस्तिष्क ज्ञान का और कामबीज सामर्थ्य का उद्गम है। आत्मिक बल ऊपर है और भौतिक बल नीचे। भावनाएँ, विचारणाएँ, आस्थाएँ ऊपर से उतरती हैं और पराक्रम, उत्साह और उल्लास नीचे से उभरता है। ऊर्ध्व केन्द्र को बह्मा का, अधः केन्द्र को प्रकृति का, संपर्क द्वार कह सकते हैं। अपने- अपने स्तर के आदान- प्रदान इन्हीं केन्द्रों से सम्भव होते हैं।

अधःक्षेत्र से विसर्जन होते प्रत्यक्ष देखा जाता है। मल, मूत्र, वीर्य का क्षरण इसी क्षेत्र से होता है। कामुकता यहीं से उठती है और मस्तिष्क की सरसता का प्रलोभन देकर अपने चंगुल में जकड़े रहती है। विवाह सन्तान का ताना- बाना इसके चरखे- करघे पर तैयार होता है। इन्हीं दो प्रयोजनों में जीवन- सम्पदा का अधिकाँश भाग खर्च हो जाता है। दक्षिणी ध्रुव से विसर्जन प्रक्रिया कामकेन्द्र द्वारा किस प्रकार होती है यह प्रत्यक्ष देखा जा सकता है। ओजस् का दिव्य उत्पादन शरीर में होता है उसे क्रमशः अति सूक्ष्म और विकसित करते रहा जाय तो मानसिक तेजस् और आत्मिक वर्चस की अभिवृद्धि करते करते मनुष्य प्रचण्ड पराक्रमी हो सकता है, पर वे सभी दिव्य विभूतियाँ इसी कामक्षेत्र के उभारों में होकर अस्त- व्यस्त हो जाती है। शारीरिक और मानसिक ब्रह्मचर्य साधने और इस संचय को कलात्मक एवं भावनात्मक दिव्य प्रयोजनों में लगाकर मनुष्य क्या नहीं बन सकता?

कामकेन्द्र का यह अद्भुत चमत्कार है कि वहाँ से नये मनुष्य जन्म का अवतरण सम्भव होता है। प्राणियों का उत्पादक परमात्मा है, पर जीव को अपने ही समतुल्य नया जीव बनाते देखा जाता है तो जी चाहता है कि उसे भी सृष्टा कहा जाय? अपने शरीर में से अपने जैसे नए नए शरीर बनाकर खड़े करते जाना अनौखे किस्म का जादू है। जादूगर अपनी झोली, हथेली, मुख आदि से अन्य वस्तुएँ तो निकालते हैं, पर अपने जैसा मनुष्य निकाल सकना उनमें से किसी के लिए भी सम्भव नहीं हो सका। यह जादू मनुष्य काया में स्थित कामकेन्द्र का ही है जो ऐसा अद्भुत उत्पादन सम्भव बना देता है।

कामकेन्द्र मात्र रति प्रेरणा ही नहीं उभारता। उसमें कला, सौन्दर्य, उत्साह, उल्लास, साहस जैसी अनेकों सृजन सम्वेदनाएँ उफनती रहती हैं। ‘नपुंसक’ शब्द एक प्रकार की गाली माना जाता है ऐसे व्यक्ति राजकीय सेवा में स्वास्थ्य की दृष्टि से अनफिट कर दिए जाते हैं। सेना, पुलिस जैसे साहसिक कार्यों में उनको प्रवेश नहीं मिलता। श्राद्ध और यज्ञ संचालन करने में नपुंसक आचार्यों को बहिकृत ठहराया गया है। गीता में कृष्ण ने अर्जुन को ‘क्लीव’ कहकर प्रकारान्तर से गाली ही दी थी। अध्यात्म क्षेत्र की नपुंसकता, नीरसता, निष्क्रियता के रूप में दृष्टिगोचर होती है। इन प्रवृत्तियों में उभार या उतार की स्थिति बनने के लिए काम केन्द्र की स्थिति को उत्तरदायी माना गया है। सन्तानोत्पादन से लेकर सृजनात्मक क्षमताओं तक सम्बन्ध इसी केन्द्र से जुड़ता है। ऐसे- ऐसे अनेकों तथ्य मिलाकर यह सिद्ध करते हैं कि भौतिकी क्षमताओं और सफलताओं की दृष्टि से काम संस्थान का, मूलाधार चक्र का कितना महत्व है।

कामबीज का प्रतीक मूलाधार और ज्ञानबीज का प्रतिनिधि सहस्रार चक्र है। इन्हें मानवी सत्ता के दो अति महत्वपूर्ण शक्ति केन्द्र कहा जा सकता है। यहाँ एक बात विशेष रूप से स्मरणीय है कि इन्हें शरीर शास्त्र के अनुसार कोई प्रत्यक्ष अवयव नहीं मानना चाहिए यह सभी सूक्ष्म शरीर में रहने वाली सत्ताएँ है। स्थूल शरीर में सूक्ष्म शरीर से मिलते जुलते अवयव पाए जाते हैं और उनके सहारे स्थूल शरीरों के बीच आदान- प्रदान भी रहता है। इतने पर भी दोनों के अस्तित्व एक दूसरे से सर्वथा भिन्न हैं। रक्त संचार की थैली भी हृदय है और सहृदयता एवं हृदयहीनता के रूप में विद्यमान अन्तरात्मा भी हृदय कहलाती है। हृदय गुफा में ध्यान करने के लिए कहा गया है। यह ‘हृदय’ रक्त शोधक थैला नहीं, वरन् सूक्ष्म शरीर में अवस्थित विशिष्ट चेतना केन्द्र है। ठीक इसी प्रकार मूलाधार एवं सहस्रार को प्रत्यक्ष शरीर का कोई अवयव विशेष नहीं मानना चाहिए।

कुण्डलिनी जागरण में मूलाधार और सहस्रार में अवस्थित भौतिक एवं आत्मिक शक्तियों के पारस्परिक शिथिल सम्बन्ध को सघन बनाया जाता है। दोनों के बीच आदान- प्रदान की गति तीव्र की जाती है। इन दोनों सरोवरों के बीच सम्बन्ध मार्ग है- मेरूदण्ड। इसी को महामार्ग कहा गया है। महाप्रयाण की, ऊर्ध्वगमन की देवयान प्रक्रिया यही है। पाण्डवों के स्वर्गारोहन को इसी प्रयास का अलंकारिक कथा प्रसंग कहना चाहिए।

जीवसत्ता सामान्यतया शरीराभ्यास में डूबी रहती है। इसी वस्तु स्थिति का चित्रण कुण्डलिनी ज्ञान में इस प्रकार किया गया है कि मूलाधार क्षेत्र में एक महासर्पिणी किसी लिंग प्रतीक से साढ़े तीन लपेटे मारकर सोई है। उसका मुख नीचे की ओर है उससे विष झरता है। यह लिंग केन्द्र संसार का आकर्षण है। जीवसत्ता सर्पिणी है। वह आत्मबोध के सम्बन्ध में प्रसुप्त स्थिति में पड़ी है। न उसे अपने स्वरूप का ज्ञान है न लक्ष्य का। मोह मदिरा पीकर वह अज्ञान की मूच्छा से ग्रसित हो रही हैं। साढ़े तीन फेरों में तीन तो वासना, तृष्णा और अहंता के पूरे हैं। बीच- बीच में कभी- कभी आत्म- कल्याण की बात भी हलके- फुलके ढंग से उभरती है। अन्तरात्मा की यह पुकार पूरी तरह कोई भी कुचल नहीं सकता। वह अपनी माँग करती ही रहेगी, भले ही उसे पग- पग पर अनसुनी किया जाता रहे। यही है आधा लपेट, जिसे मिलाकर साढ़े तीन फेरे बनते हैं। सुप्त- प्रसुप्त कुण्डलिनी का मुख नीचे की ओर अधःपतन की ओर है। हमारी निकृष्ट आकांक्षाएँ और प्रवृत्तियाँ आत्म कल्याण से नीचे ही धकेलने वाली बन गई हैं। शक्तियों का क्षरण अधोमुखी बना हुआ है। वीर्यपात से लेकर अन्य कार्य भी उठाने वाले नहीं, गिराने वाले ही बने हुए है। उनके दुष्परिणाम विष तुल्य होते हैं। जीव सत्ता की दुर्गति का चित्रण प्रसुप्त सर्पिणी के रूप में किया गया है तो यह उचित ही है।

कुण्डलिनी जब जागती है प्रसुप्ति छोड़ती है। लपेटे खोल देती है। तनकर खड़ी हो जाती है। मेरुदण्ड मार्ग से ऊपर की ओर चढ़ना प्रारम्भ करती है। उसके मुख से विषाक्त दुर्गन्ध के स्थान पर अमृतमयी सुगन्ध के श्वास निकलने लगते हैं। यह दृश्य आत्मोत्थान की ओर उन्मुख होने का है। कुण्डलिनी मेरुदण्ड मार्ग से ऊपर चलती है और सहस्रार अवस्थित महासर्प से जा लिपटती है। इसे शिव पार्वती की कथा- गाथा के रूप में समझाने का प्रयत्न किया गया है। सती- शिव से विमुख होकर पिता के घर गई थी और खिन्न होकर अग्नि कुण्ड में जल मरी थीं। यह आत्मा का परमात्मा से विमुख होकर नारकीय यातनाओं के जलकुण्ड में जल मरना है। स्थिति बदलती है। सती नया जन्म पार्वती के रूप में लेती है। तप करती है शिव की अर्धांगिनी बन जाती है। यह जीवसत्ता का योग तप की साधना अपनाकर अपनी पात्रता को विकसित करना और ऊर्ध्वगामी बनकर परमात्मा में समन्वित हो जाने का विकास क्रम है। कुण्डलिनी जागरण साधना का तत्त्वदर्शन इन कथानकों के माध्यम से अच्छी तरह समझा जा सकता है।

समुद्र मन्थन की कथा प्रकारान्तर से कुण्डलिनी जागरण प्रक्रिया का दिग्दर्शन है। जो समुद्र मथा गया था वह यह अपना खारी पानी वाला सागर नहीं, वरन् अग्नि समुद्र- शक्ति समुद्र था। उसका मन्थन देव असुर सहयोग से हुआ था। हमारी भौतिक शक्तियाँ आध्यात्मिक आस्थाओं का सहयोग करने लगें तो गतिविधियों का स्वरूप ऐतिहासिक महामानवों जैसा बन सकता है। फलस्वरूप एक से एक बड़ी उपलब्धियाँ सामने आ सकती हैं। समुद्र मन्थन से अमृत, कौस्तुभमणि, ऐरावत, धन्वन्तरि, लक्ष्मी जैसे उपहार उपलब्ध हुए थे। मानवी सत्ता भी उच्चस्तरीय पुरुषार्थ, स्वास्थ्य, सन्तोष, उल्लास, सन्तुलन, यश, वैभव, सहयोग, सम्मान, नेतृत्व, स्वर्ग, मोक्ष जैसे श्रेष्ठ जीवन को धन्य बना देने वाले अनुदान प्राप्त कर सकती है।

समुद्र मंथन की कथा में जीव की वस्तुस्थिति और कुण्डलिनी जागरण साधना से उसकी प्रगति सद्गति का अच्छा खासा चित्रण है। कूर्म अर्थात भगवान- पैर समेटे- गई गुजरी स्थिति में सबसे नीचे। मन्थन के लिए लाया गया मदिराचल पर्वत उनकी पीठ पर। मथने के कार्य में प्रयुक्त होने वाली वासुकी सर्प की रज्जु। देवता और असुरों द्वारा उसका मन्थन। यही है समुद्र मन्थन का दृश्य चित्र। हमारे दैनिक जीवन में ईश्वर का स्थान सबसे नीचे है। वह कुछ करा सकने की स्थिति में नहीं है। कछुए की तरह सिकुड़ा सिमटा ज्यों- त्यों करके मानवी सत्ता का भार वहन कर रहा है। मदिराचल वैभव। मदिरा (मादक) अचल (संग्रहीत)। अपना धन, वैभव, उद्धत अहंता की तृप्ति में तथा अचल (संग्रह) करने के लिए प्रयुक्त होता है। वासुकी सर्प- विषधर जीव। साढ़े तीन लपेटों के साथ मदिराचल के साथ लिपटा है और दोनों दिशाओं में देव- दानवों द्वारा घसीटे जाने के कारण दुर्दशाग्रस्त हो रहा है। हड्डी पसलियों का कचूमर निकला जा रहा है। इस चित्र में हम अपनी दुर्दशा का चित्र तथा भावी प्रगति का उपाय आभास देखने का दुहरा लाभ प्राप्त कर सकते हैं।

जीवनक्रम में संव्याप्त जड़ता को, पशु प्रवृत्तियों के अभ्यस्त प्रवाह को निरस्त किया जाना चाहिए। चिन्तन में समुद्र मन्थन जैसी प्रखरता उत्पन्न की जानी चाहिए। प्रसुप्ति को जाग्रति में मूर्च्छना को क्रान्तिकारी परिवर्तन में परिणत करने की आवश्यकता है। जीवन मन्थन कर डाला जाय। कायाकल्प के लिए कटिबद्ध हुआ जाय। अन्तर्द्वन्दों की क्षमता का अपव्यय होता रहा तो इस जीवन व्यापार में कमाया कुछ न जा सकेगा। जो पूँजी साथ लेकर आए थे वह गवा कर ऋण भार लाद कर वापस जाना पड़ेगा। इस स्थिति से बचने के लिए जीवन मन्थन आवश्यक है। क्रान्तिकारी परिवर्तन अभीष्ट है। समुद्र मन्थन की कथा को मन्थन प्रक्रिया- कुण्डलिनी जागरण पद्धति के साथ सहज भाव से जोड़ा जा सकता है।

कामनाएँ भावनाओं में परिणत होने के लिए संकल्प करती हैं तो उनकी स्थिति गङ्गा के समुद्र में विलय होने की आतुरता जैसी बन जाती है। हिमालय से निकलकर गङ्गा आतुरतापूर्वक समुद्र मिलन के लिए लम्बा मार्ग पार करती हुई दौड़ती है। कुण्डलिनी को गङ्गा, मेरुदण्ड मार्ग को प्रवाह पथ और सहस्रार को समुद्र कहा जा सकता है। अपने प्रियतम को पाकर गङ्गा ने अशान्ति से छुटकारा पाया और महान से मिलकर महान बन गई। आत्मसत्ता कामनाओं के कामबीज से निकलकर सुविस्तृत जीवन यात्रा में असंख्यों को शान्ति तृप्ति प्रदान करती हुई परमात्म सत्ता में जा मिलती है। यही कामबीज और ज्ञानबीज का मूलाधार और सहस्रार का मिलन है। यह महा मिलन सम्भव होने पर नर नारायण बनता है और आत्मा की स्थिति परमात्मा जैसी बन जाती है। इसी लक्ष्य को सरल सम्भव बनाना कुण्डलिनी जागरण साधना का उद्देश्य है।







Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118