ईथर तत्त्व में शब्द प्रवाह के संचरण को रेडियो यन्त्र अनुभव करा सकता है, पर ईथर को उसके असली रूप में देखा जा सकना सम्भव नहीं। गर्मी, सर्दी, सुख, दु:ख की अनुभूति होती है, उन्हें पदार्थ की तरह प्रत्यक्ष नहीं देखा जा सकता। मन्त्र में उच्चरित शब्दावली मन्त्र की मूल शक्ति नहीं वरन् उसको सजग करने का उपकरण है। किसी सोते को हाथ से झकझोर कर जगाया जा सकता है, पर यह हाथ ‘जागृति’ नहीं। अधिक से अधिक उसे जागृति का निमित्त होने का श्रेय ही मिल सकता है। मंत्रोच्चार भी अन्तरङ्ग में और अन्तरिक्ष में भरी पड़ी चेतन शक्तियों में से कुछ को जागृत करने का एक निमित्त कारण भर है।
किस मन्त्र से किस शक्ति को, किस आधार पर जगाया जाय, इसका संकेत हर मन्त्र के साथ जुड़े हुए विनियोग में बताया जाता है। वैदिक और तान्त्रिक सभी मन्त्रों का विनियोग होता है। आगम और निगम शास्त्रों में मन्त्र विधान के साथ ही उसका उल्लेख रहता है। जप तो मूल मन्त्र का ही किया जाता है, पर उसे आरम्भ करते समय विनियोग को पढ़ लेना अथवा स्मरण कर लेना आवश्यक होता है। इससे मन्त्र के स्वरूप और लक्ष्य के प्रति साधना काल में जागरूकता बनी रहती है और कदम सही दिशा में बढ़ता रहता है।
मन्त्र विनियोग के पाँच अङ्ग हैं- (क) ऋषि (ख) छन्द (ग) देवता (घ) बीज (ङ) तत्त्व। इन्हीं से मिलकर मन्त्र- शक्ति सर्वांगपूर्ण बनती है। ‘ऋषि’ तत्त्व का संकेत है- मार्गदर्शक गुरु, ऐसा व्यक्ति जिसने उस मन्त्र में पारंगतता प्राप्त की हो। सर्जरी, संगीत जैसे क्रिया- कलाप अनुभवी शिक्षक ही सिखा सकता है। पुस्तकीय ज्ञान से नौकायन नहीं सीखा जा सकता, इसके लिए किसी मल्लाह का प्रत्यक्ष पथ प्रदर्शन चाहिए। चिकित्सा ग्रन्थ और औषधि भण्डार उपलब्ध रहने पर भी चिकित्सक की आवश्यकता रहती है। विभिन्न मनोभूमियों के कारण साधना- पथिकों के मार्ग में भी कई प्रकार के उतार- चढ़ाव आते हैं, उस स्थिति में सही निर्देशन और उलझनों का समाधान केवल वही कर सकता है जो उस विषय में पारंगत हो।
छन्द का अर्थ है- लय। वाक्य में प्रयुक्त होने वाली पिंगला प्रक्रिया के आधार पर भी छन्दों का वर्गीकरण होता है, यहाँ उसका कोई प्रयोजन नहीं। मन्त्र रचना में काव्य प्रक्रिया अनिवार्य नहीं है। हो भी तो उसके जानने न जानने से कुछ बनता बिगड़ता नहीं। यहाँ लय को ही छन्द समझा जाना चाहिए, किस स्वर में किस क्रम से, किस उतार- चढ़ाव के साथ मन्त्रोच्चारण किया जाय, यह एक स्वतन्त्र शास्त्र है। सितार में तार तो उतने ही होते है, उँगलियाँ चलाने का क्रम भी हर वादन में चलता है, पर बजाने वाले का कौशल तारों पर आघात करने के क्रम में हेर- फेर करके विभिन्न राग- रागनियों का ध्वनि प्रवाह उत्पन्न करता है। मानसिक, वाचिक, उपांशु, उदात्त, अनुदात्त, स्वरित ही नहीं मंत्रोच्चार के और भी भेद- प्रभेद हैं जिनके आधार पर उसी मन्त्र द्वारा अनेक अकार की प्रतिक्रियायें उत्पन्न की जा सकती हैं।
ध्वनि तरंगों के कम्पन इस लय पर ही निर्भर हैं। साधना विज्ञान में इसे यति कहा जाता है। मन्त्रों की एक यति सब के लिए उचित नहीं। व्यक्ति की स्थिति और उसकी आकांक्षा को ध्यान में रखकर यति का, लय का निर्धारण करना पड़ता है। साधक को उचित है कि मन्त्र साधना में प्रवृत्त होने से पूर्व अपने लिए उपयुक्त छन्द की लय का निर्धारण कर लें।
विनियोग का तीसरा चरण है- देवता। देवता का अर्थ है, चेतना सागर में से अपने अभीष्ट शक्ति प्रवाह का चयन। आकाश में एक ही समय में अनेकों रेडियो स्टेशन बोलते रहते हैं, पर हर एक की फ्रीक्वेंसी अलग होती है। ऐसा न होता तो ब्राडकाष्ट किये गये सभी शब्द मिलकर एक हो जाते। शब्द धाराओं की पृथकता और उनसे सम्बन्ध स्थापित करने के पृथक माध्यमों का उपयोग करके ही किसी रेडियो सेट के लिए सम्भव होता है कि अपनी पसन्द का रेडियो प्रोग्राम सुने और अन्यत्र में चल रहे प्रोग्रामों को बोलने से रोक दे। निखिल ब्रह्माण्ड में ब्रह्म चेतना की अनेक धारायें समुद्री लहरों की तरह अपना पृथक अस्तित्व भी लेकर चलती है। भूमि एक ही होने पर भी उसमें परतें अलग- अलग होती हैं। इसी प्रकार ब्रह्म चेतना के अनेक प्रयोजनों के लिए उद्भूत अनेक शक्ति तरंगें निखिल ब्रह्माण्ड में प्रवाहित रहती है। उसके स्वरूप और प्रयोजनों को ध्यान में रखते हुए ही उन्हें देवता कहा जाता है।
साकार उपासना पक्ष देवताओं की अलङ्कारिक प्रतिमा भी बना लेता है और निराकार पक्ष प्रकाश किरणों के रूप में उसको पकड़ता है। सूर्य की सात रंग की किरणों में से हम जिसे चाहें उसे रंगीन शीशे के माध्यम से उपलब्ध कर सकते है। एक्सरे मशीन अल्ट्रा वायलेट उपकरण आकाश में से अपनी अभीष्ट किरणों को ही प्रयुक्त करते हैं। हंस दूध पीता है, पानी छोड़ देता है। इसी प्रकार किस मन्त्र के लिए ब्रह्म चेतना की किस दिव्य तरंग का प्रयोग किया जाये, इसके लिए विधान निर्धारित है। स्थापन, पूजन, स्तवन आदि क्रियायें इसी प्रयोजन के लिए होती हैं। निराकारी साधक ध्यान द्वारा उस शक्ति को अपने अङ्ग- प्रत्यंगों में तथा समीपवर्ती वातावरण में ओतप्रोत होने की भावना करते हैं। किसके लिए देव सम्पर्क का क्या तरीका ठीक रहेगा, यह निश्चय करके ही मन्त्र साधक को प्रगति पथ पर अग्रसर होना होता है। दबी हुई प्रसुप्त क्षमता को प्रखर करने के लिए ऊर्जा की आवश्यकता पड़ती है। यन्त्र को चलाने के लिए ईंधन चाहिए। हाथ या पैर से चलने वाले यन्त्रों के लिए न सही, उन्हें चलाने, हाथ पैरों को काम करते रहने के लिए ऊर्जा की जरूरत रहती है। यह तापमान जुटाने पर ही यन्त्र काम करते हैं। मन्त्रों की सफलता भी इसी ऊर्जा उत्पादन पर निर्भर है। साधना विधान का सारा कलेवर इसी आधार पर खड़ा किया गया है। आयुर्वेद में भी नाड़ी- शोधन के लिए वमन, विरेचन, स्नेहन, स्वेदन, नस्य यह पञ्चकर्म शरीर शोधन के लिए है। मन्त्र साधन में व्यक्तित्व के परिष्कार के अतिरिक्त पाँच आधार- ऋषि, छन्द, देवता, बीज और तत्त्व हैं। जो इन सब साधनों को जुटा कर मन्त्र साधन कर सके, उसे अभीष्ट प्रयोजन की प्राप्ति होकर ही रहती है।
मन्त्र योग- साधना का एक ऐसा शब्द और विज्ञान है कि उसका उच्चारण करते ही किसी चमत्कारी शक्ति का बोध होता है। ऐसी धारणा है कि प्राचीन काल के योगी, ऋषि और तत्त्वदर्शी महापुरुषों ने मन्त्रबल से पृथ्वी, देवलोक और ब्रह्माण्ड की अनन्त शक्तियों पर विजय पाई थी। मन्त्र शक्ति के प्रभाव से वे इतने समर्थ बन गये थे कि इच्छानुसार किसी भी पदार्थ का हस्तान्तरण, पदार्थ को शक्ति में बदल देते थे। शाप और वरदान मन्त्र का ही प्रभाव माना जाता है। एक क्षण में किसी का रोग अच्छा कर देना एक पल में करोड़ों मील दूर की बात जान लेना, एक नक्षत्र से दूसरे नक्षत्र की जानकारी और शरीर की ७२ हजार नाड़ियों के एक- एक जोड़ की ही अलौकिक शक्ति थी। इसलिए भारतीय तत्त्वदर्शन में मन्त्र शक्ति पर जितनी शोधें हुई हैं, उतनी और किसी पर भी नहीं हुई। मन्त्रों के आविष्कार होने के कारण ही ऋषि मन्त्र- दृष्टा कहलाते थे। वेद और कुछ नहीं, एक प्रकार के मन्त्र विज्ञान है जिनमें विराट् ब्रह्माण्ड की उन अलौकिक सूक्ष्म और चेतन सत्ताओं और शक्तियों तक से सम्बन्ध स्थापित करने के गूढ़ रहस्य दिये हुए हैं, जिनके सम्बन्ध में विज्ञान अभी ‘क ख ग’ भी नहीं जानता।
मन्त्र का सीधा सम्बन्ध उच्चारण या ध्वनि से है। इसलिए इसे ‘ध्वनि- विज्ञान’ भी कह सकते है। अब तक इस दिशा में जो वैज्ञानिक अनुसंधान हुए और निष्कर्ष निकले हैं वह यह बताते हैं कि सामान्य भारतीय मन्त्रशक्ति पर भले ही विश्वास न करे, पर वैज्ञानिक अब उसी दिशा में अग्रसर हो रहे हैं। वह समय समीप ही है, जब ध्वनि विज्ञान की उन्नति ऋषियों जैसे ही कौतूहल वर्द्धक कार्य करने लगेगी। उदाहरण के लिए ‘ट्रान्स्डूयसर’ यन्त्र से सूक्ष्म शब्द को व्यापक बनाया जा सकता है वह शब्द की कर्णातीत शक्ति का ही फल है।
मन्त्रों में चार शक्तियाँ मानी गई हैं- (क) प्रामाण्य शक्ति (ख) फल प्रदान शक्ति (ग) बहुलीकरण शक्ति (घ) आयातयामता शक्ति। इसका विवेचन महर्षि जैमिनी ने पूर्व मीमांसा में किया है। उनके कथानुसार मन्त्रों की प्रामाण्य शक्ति वह है जिसके अनुसार शिक्षा, सम्बोधन, आदेश का समावेश रहता है। इसे शब्दार्थों से सम्बन्धित कह सकते हैं।
कुण्ड समिधा, पात्रपीठ, आज्य चरु, हवि, पीठ आदि को अभिमन्त्रित करके उनके सूक्ष्म प्राणों को प्रखर करने का विधान मंत्रोच्चार, कर्मकाण्ड, न्यास, ऋत्विजों का मनोयोग ब्रह्मचर्य तप, आहार आदि विधि- विधान से मन्त्र की फलदायिनी शक्ति सजग होती है। सकाम कर्मों में मन्त्र की यही शक्ति विभिन्न क्रिया- कृत्यों के सहारे सजग होती है और अभीष्ट प्रयोजन पूरे करती है।
तीसरी शक्ति है ‘बहुलीकरण’ अर्थात थोड़े को बहुत बनाना। यज्ञ में होमा हुआ जरा सा पदार्थ वायुभूत होकर समस्त विश्व में फैल जाता है। पानी के ऊपर जरा सा तेल डाल देने से पानी की सारी सतह पर फैल जाता है। तनिक सा विष सारे शरीर में फैल जाता है। उसी प्रकार साधक का शरीर मंत्रोच्चार एवं साधन में काम आने वाले अंग जरा से होते हैं, पर उनके घर्षण से उत्पन्न शक्ति, दियासलाई से निकलने वाली चिनगारी की तरह नगण्य होते हुए भी दावानल बन जाने की सामर्थ्य से ओत- प्रोत रहती है। एक व्यक्ति की मन्त्र साधना अनेक व्यक्तियों को तथा पदार्थों को परमाणु जीवाणुओं को प्रभावित करती है, तो यह बहुलीकरण शक्ति ही काम कर रही होती है।
चौथी ‘आयातयामता शक्ति’ किसी विशेष क्षमता सम्पन्न व्युत्पन्नमति मेधावी सक्षम व्यक्ति द्वारा विशेष स्थान पर, विशेष व्यक्ति की सहायता से विशेष उपकरणों के सहारे विशेष विधि- विधान के साथ मन्त्रोपासना करने पर विशेष शक्ति उत्पन्न होती है। विश्वामित्र और परशुराम ने गायत्री मन्त्र की साधना, विशेष प्रयोजन के लिए, विशेष विधि- विधानों के साथ की थी और उससे उन्होंने अभीष्ट परिणाम भी प्राप्त किये। दशरथ जी का पुत्रेष्टि यज्ञ वशिष्ठजी पूरा न करा सके तब शृङ्गी ऋषि ने उसे सम्पन्न कराया, यह शृङ्गी ऋषि की आयातयामता शक्ति ही थी।
कौत्समुनि ने मन्त्रों को अनर्थक माना है। अनर्थक का अर्थ यह है कि उसके अर्थ को नहीं ध्वनि प्रवाह को, शब्द गुन्थन को महत्त्व दिया जाना चाहिए। ह्रीं, श्रीं, क्लीं, ऐं आदि बीज मन्त्रों के अर्थ से नहीं ध्वनि से ही प्रयोजन सिद्ध होता है। नैषध चरित्र के १३वें सर्ग में उसके लेखक ने इस रहस्य का और भी स्पष्ट उद्घाटन किया है। संगीत का शारीरिक, मानसिक स्वास्थ्य पर जो असाधारण प्रभाव पड़ता है, उससे समस्त विज्ञान जगत परिचित है।
शब्द शक्ति का स्फोट मन्त्र शक्ति की रहस्यमय प्रक्रिया है। अणु विस्फोट से उत्पन्न होने वाली भयावह शक्ति की जानकारी हम सभी को हैं। शब्द की एक शक्ति सत्ता है। उसके कम्पन भी चिरन्तन घटकों के सम्मिश्रण से बनते हैं। इन शब्द कम्पन्न घटकों का विस्फोट भी अणु विखण्डन की तरह ही हो सकता है। मन्त्र योग साधना के उपचारों के पीछे लगभग वैसी ही विधि व्यवस्था रहती है। मन्त्रों की शब्द रचना का गठन तत्त्वदर्शी, मनीषी तथा दिव्यद्रष्टा मनीषियों ने इस प्रकार किया है कि उसका उपात्मक, होमात्मक तथा दूसरे तप साधनों एवं कर्मकाण्डों के सहारे अभीष्ट स्फोट किया जा सके। वर्तमान बोलचाल में स्फोट का भी प्रयोग किया जाता है। मंत्राराधन वस्तुतः शब्द शक्ति का विस्फोट ही है।
शब्द स्फोट से ऐसी ध्वनि तरंगें उत्पन्न होती है जिन्हें कानों की श्रवणशक्ति से बाहर की कहा जा सकता है। शब्द आकाश का विषय है। इसलिए तान्त्रिक का कार्यक्षेत्र आकाश तत्त्व रहता है। योगी वायु उपासक है। उसे प्राणशक्ति का सञ्चय वायु के माध्यम से करना पड़ता है। इस दृष्टि से मान्त्रिक को योगी से भी वरिष्ठ कहा जा सकता है। सच्चा मान्त्रिक योगी से कम नहीं वरन् कुछ अधिक ही शक्तिशाली हो सकता है।
मन्त्राराधना में शब्द शक्ति का विस्फोट होता है, विस्फोट में गुणन शक्ति है। मन्त्र में सर्वप्रथम देवस्थापन की सघन निष्ठा उत्पन्न की जाती है। यह भाव चुम्बकत्व है। श्रद्धा, शक्ति के उद्भव का प्रथम चरण है। इस आरम्भिक उपार्जन का शक्ति गुणन करती चली जाती है और छोटा सा बीज विशाल वृक्ष बन जाता है। विचार का चुम्बकत्व सर्वविदित है। इष्टदेव की, मन्त्र अधिपति की शक्ति एवं विशेषताओं का स्तवन, पूजन के साथ स्मरण किया जाता है और अपने विश्वास से उसमें सर्वशक्ति सत्ता एवं अनुग्रह तथा तप साधना कष्टसाध्य तितीक्षा के द्वारा मन्त्र की गुह्य शक्ति के करतलगत हो जाने का भरोसा दीर्घकालीन साधना द्वारा साधक के मनःक्षेत्र में परिपक्व बनता है। यह सब निष्ठायें मिलकर मन्त्र की भाव प्रक्रिया को परिपूर्ण चुम्बकत्व से परिपूर्ण कर देती है।
मन्त्र से दो वृत्त बनते हैं एक को भाववृत और दूसरे को ध्वनि वृत कह सकते है। लगातार की गति अन्ततः एक गोलाई में घूमने लगती है। ग्रह नक्षत्रों का अपने- अपने अयन वृत पर घूमने लगना इसी तथ्य से सम्भव हो सका है कि गति क्रमशः गोलाई में मुड़ती चली जाती है।
मन्त्र जप में नियत शब्दों को निर्धारित क्रम से देर तक निरन्तर उच्चारण करना पड़ता है। जप यही तो है। इस गति प्रवाह के दो आधार हैं। एक भाव और दूसरा शब्द। मन्त्र के अन्तराल में सन्निहित भावना का नियत निर्धारित प्रवाह एक भाववृत्त बना लेता है, वह इतना प्रचण्ड होता है कि साधक के व्यक्तित्व को ही पकड़ और जकड़ कर उसे अपनी ढलान में ढाल लें। उच्चारण से उत्पन्न ध्वनिवृत्त भी ऐसा ही प्रचण्ड होता है कि उसका स्फोट एक घेरा डालकर उच्चारणकर्त्ता को अपने घेरे में कस ले। भाववृत्त अन्तरङ्ग वृत्तियों पर, शब्दवृत बहिरंग प्रवृत्तियों पर इस प्रकार आच्छादित हो जाता है कि मनुष्य के अभीष्ट स्तर को तोड़ा- मरोड़ा या ढाला जा सके।