हम बदलेंगे- युग बदलेगा’’ उद्घोष ही न रहे, व्यवहार में उतरे

चासनी देखते ही टूट पड़ने वाली मक्खी अपने पंख फँसाती और जान गँवाती है। यही दुर्गति आटे की गोली की आतुर मछली की तथा दानों का लोभ संवरण न कर सकने वाली जाल में जा फँसने वाली चिड़िया की होती है। बीन पर मुग्ध हिरण, मोर और साँप पकड़े जाते हैं। तत्काल का लाभ ही जिनके लिए सब कुछ है, वे विलास, वैभव और प्रदर्शन की उद्विग्नता को सीधे रास्ते पूरी होते न देखकर आमतौर से अनीति का रास्ता अपनाते हैं। कुछ ही क्षण उस उपार्जन का स्वाद चखकर आत्म प्रताड़ना, लोक भर्त्सना और दैवी दण्ड विधान के भागी बनते हैं। यही है इन दिनों का प्रचलन जिस पर अन्धी भेड़ोंं की तरह एक के पीछे दूसरा चलता और पतन पराभव के गर्त में गिरता जा रहा हैं।

चिर स्थाई सुख शान्ति की, उज्ज्वल भविष्य की, जीवन की सार्थकता की उपयोगिता समझी जा सके, तो स्वतन्त्र चिन्तन अपनाना पड़ेगा। प्रवाह में बहने वाले तिनके की तरह नहीं, लक्ष्य पर टूटने वाले बाण का अनुकरण करना पड़ेगा। प्रज्ञा युग के कर्णधारों में सम्मिलित होकर महामानवों जैसी भूमिका निभाने का यदि साहस उभरे, तो कुछ समय रुककर यह सोचना चाहिए कि प्रस्तुत विचारणा और गतिविधियों में कुछ हेर- फेर करना है क्या? इस प्रश्र पर जितनी गम्भीरता पूर्वक पर्यवेक्षण किया जाय, उतना ही यह स्पष्ट होता जायेगा। भूल- भुलैयों के भटकाव में अपनी गतिविधियाँ बेतरह उलझ गयी हैं। नये सिरे से सोचने, नया उपक्रम अपनाने और नया रास्ता खोजने के अतिरिक्त और कोई चारा नहीं। जन प्रवाह इन दिनों अवांछनीयता अपनाकर महाविनाश के गर्त में गिरता जा रहा है। उसमें तत्काल लाभ के लिए भविष्य को अन्धकारमय बनाने वाले उन्माद ही बेतरह छाये हुये हैं। इसके साथ बहने में छाया के पीछे दौड़ने की तरह थकान, दुर्गति और निराशा के अतिरिक्त और कुछ पल्ले बँधने वाला नहीं है।

विवेकवानों की विचारणा महामानवों जैसी होनी चाहिए। उनमें से प्रत्येक ने लोक प्रवाह में बहने से इन्कार किया है और अपना रास्ता आप चुना है। इसमें उन्हें प्रवाह को चीरकर उलटा चल सकने वाली मछली का उदाहरण प्रस्तुत करना पड़ा। यह नहीं देखा कि जब हाथी तक बहते जा रहे हैं, तो इसी धारा में हम क्यों न बहने लगें। भागीरथ, हरिश्चन्द्र, ध्रुव, प्रह्लाद, बुद्ध, शंकर, समर्थ, विवेकानन्द, गाँधी, कबीर, सूर, तुलसी, पार्वती, मीरा आदि ने हर क्षेत्र के महामानवों ने अपना रास्ता स्वयं चुना और कुटुम्बी, सम्बन्धी एवं मित्र पड़ौसियों के परामर्श से सर्वथा प्रतिकूल निर्णय किया। यदि वे स्वतन्त्र चिन्तन में समर्थ न हों, प्रवाह से प्रतिकूल चलने का साहस न सँजोयें तो निश्चय ही जिन महामानवों की गरिमा से इतिहास धन्य हो रहा हैं, उनमें से एक का भी कहीं कोई जिक्र न हो सके। वे भी अन्यान्यों की तरह पेट प्रजनन के कोल्हू में चलते ठेलते- पिलते मौत के मुँह में अगणित अभागों की तरह घुस गये होते।

नीर क्षीर विवेक की, मोती चुनने, कीड़े न खाने की हँस वृत्ति अपनाकर ही महानता के पथ पर अग्रसर हो सकना सम्भव होता है। कौए जैसी चतुरता अपनाने वाले अभक्ष्य भक्षण से अपने अग्रिम होने का  ढिंडोरा भले ही पीटते रहें, उन्हें घृणा तिरस्कार के अतिरिक्त और कुछ मिलता नहीं है। जागृत आत्माओं को प्रसुप्तों और अर्ध मृतकों का अनुकरण नहीं करना चाहिए। उन्हें अपनी जिम्मेदारी और दूसरों की सुरक्षा का भार वहन करना चाहिए। सदा- सदा से समाज में ऐेसे ही व्यक्ति अग्रगामी की भूमिका निभाते चले आए हैं, जिन्होंने समाज के प्रति अपने उत्तरदायित्वों को प्रमुख माना एवे स्वयं के स्वार्थों की उपेक्षा की। उन्हें ही जागृत अग्रदूत कहा जा सकता है। महाकाल ने सदा- सदा से ही ऐसे व्यक्तियों का आह्वान किया व परिवर्तन हेतु उन्हें अपना सहभागी बनाया है।

प्रज्ञा युग के मनुष्य में देवत्व का उदय होना है। इतना बन पड़ते ही धरती पर स्वर्ग का अवतरण अविलम्ब दीखने लगेगा। मनुष्य का चिन्तन चरित्र ही भली बुरी परिस्थितियों के लिए पूरी तरह जिम्मेदार है। स्तर में परिवर्तन आते ही वातावरण के उलट जाने में देर नहीं लगने वाली है। एक शब्द में यही है युग परिवर्तन का स्वरुप और कार्यक्रम। इसे प्रमुख उद्घोष के रुप में सर्व साधारण पर प्रकट भी कर दिया गया है। हम बदलेंगे युग बदलेगा ही नवयुग के अवतरण का बीज मन्त्र है। प्रवाह के साथ बहने से इन्कार करना और अपनी रीति- नीति, दिशाधारा का दूरदर्शिता के आधार पर निर्णय करना यही है वह कार्य जो अग्रगामियों को करना पड़ेगा। प्रवाह बदलने का अर्थ ही युग परिवर्तन है। भ्रान्तियों और विकृतियों से ग्रसितों की भीड़ ने ही ये प्रस्तुत प्रचलन खड़े कर दिये हैं। इन्हें कोसते रहने से काम नहीं चलेगा। जागृतों को मिलकर नया शुभारम्भ करना चाहिए। कुछ समय बाद यह भी एक परम्परा बन जायेगी। जन समुदाय में प्रचलन का अनुकरण करने की प्रवृत्ति ही प्रमुख होती है। भीड़ में स्वतन्त्र चिन्तन और विवेक पूर्ण निर्धारण की क्षमता कहाँ? यहाँ तो अन्धों के पीछे अन्धों के चलते रहने की परम्परा है। भ्रष्टाचार इसी आधार पर पनपा है। दुष्प्रवृत्तियों को भी नशा पीने की तरह एक ने दूसरे से सीखा है। जहाँ वैसा माहौल नहीं वहाँ नशेबाजी का कोई नाम भी नहीं लेता। सत्प्रवृत्तियों के वातावरण में टेढ़े भी सीधे होते चले जाते हैं।

युग परिवर्तन का बीज मन्त्र ‘हम बदलेंगे युग बदलेगा’ अपने निजी जीवन क्रम में सम्मिलित करना चाहिए। कहते सुनते रहने से काम चला होता तो धर्मोपदेशकों और भक्तजनों की कथा सत्संग की विडम्बना ने चलते चलाते मोर्चा मार लिया होता और इन दिनों धर्म युग का मध्याह्न काल होता। बात तो कुछ करने से बनती है। हमें बदलना चाहिए ताकि दूसरों को अपने साँचे में ढाल सकने की व्यवस्था बन सके। किसी को आगे तो चलना ही पड़ेगा। इन्जन ठण्डा हो तो डिब्बे किस बलबूते पटरी पर दौड़ेंगे। प्रज्ञा युग की आद्योपान्त विधि व्यवस्था यही है कि जागृत अपना परिवर्तित स्वरुप प्रस्तुत करें, ताकि प्रेरणाप्रद वातावरण बने और उसका अनुगमन करने का असंख्यों को साहस मिले।

सर्व प्रथम क्या बदला जाय? इसका एक ही उत्तर है- चिन्तन, अभ्यास एवं निर्धारण। किस में नफा, किस में नुकसान? यह प्रश्र सर्वप्रथम हल होना चाहिए। सोचा जाना चाहिए कि तात्कालिक लाभ के लिए भविष्य को अन्धकारमय बनाने वाली जो रीति- नीति जन समुदाय ने बनाई है, उसे सर्वथा अस्वीकार कर दिया जाय। लोगों का अनुकरण करने से साहस पूर्वक इन्कार कर दिया जाय। आत्मा और परमात्मा का परामर्श पर्याप्त माना जाय और सदुद्देश्य की राह पर एकाकी साहस पुरुषार्थ संजोकर महानता की दिशा में अपने पैरों आप चल पड़ा जाय। यहाँ सर्वप्रथम संघर्ष अपनी मान्यताओं तथा आदतों से करना पड़ता है। इसके उपरान्त वे लोग आड़े आते हैं, जिन्हें स्वजन सम्बन्धियों के नाम से जाना जाता है। परन्तु समुदाय कितना ही हितैषी कितना ही निकटवर्ती क्यों न हो, आदर्शों की महानता से सर्वथा अपरिचित होता है। जिनने जन्म से लेकर अद्यावधि मात्र स्वार्थ और विलास ही देखा सुना है। उनसे आदर्शवादी समर्थनों की आशा नहीं की जा सकती। भले ही अपनी आदतें हों, भले ही स्वजनों की मण्डली, सभी का आग्रह एक होगा- औरों की तरह ढर्रे पर चलते रहने में ही लाभ है।

महानता का मार्ग अपनाने के पक्ष में यदि निर्णय हो सके तो फिर परिवर्तन का प्रथम चरण यह होना चाहिए कि अपने चिन्तन ही नहीं चरित्र एवं व्यवहार में भी उस आदर्शवादिता को प्रतिष्ठित होने देना चाहिए। इसके बिना अपने पास कल्पना की उड़ानों के अतिरिक्त ऐसा कुछ बचा ही नहीं रहेगा, जिसे महानता के व्यवसाय में आरम्भिक पूँजी की तरह लगाया जा सके। प्रज्ञावतार के प्रत्येक सहचर को कुछ न कुछ अनुदान प्रस्तुत करने होंगे। जीभ से होने वाली बक- झक से कहाँ काम चलने वाला है? अनुदान के लिए मनुष्य के पास दो ही सम्पदायें हैं एक समय- श्रम, दूसरा साधन वैभव। यह दोनों ही आमतौर से पेट प्रजनन के निर्वाह और परिवार के लिए पूरी तरह नियोजित रहते हैं। बचता कुछ भी नहीं। वरन् खाई पाटने के लिए कुकृत्यों में निरत रहने से भी काम नहीं चलता। लोभ और मोह से न पुर्ति होती है न तृप्ति। प्रथम परिवर्तन इसी क्षेत्र में होना चाहिए। इसमें कटौती किये बिना किसी के पास ऐसा कुछ बच नहीं सकता जिसे ईमानदारी के साथ भगवान के आदर्शों के सम्मुख सच्ची श्रद्धांजलि के रूप में प्रस्तुत किया जा सके।

भव बन्धन दो ही हैं- लोभ और मोह। इन्हें काटना हो तो सादा जीवन उच्च विचार की नीति अपनानी होगी, औसत भारतीय स्तर का निर्वाह स्वीकार करना होगा। लोकसेवी का अर्थ सन्तुलन इसी नियमन के आधार पर बैठता है। मोह का परिष्कार इस प्रकार बनता है कि वंश परम्परा को बढ़ने न दिया जाय। उसे स्वावलम्बी सुसंस्कारी भर बनाने का उत्तरदायित्व किसी ईमानदार माली की तरह निभाने भर में पर्याप्त सन्तोष अनुभव किया जाय। न तो सन्तानोत्पादन द्वारा अतिरिक्त भार लादा जाय और न उनकी प्रसन्नता खरीदने के लिए विलास जुटाने एवं उत्तराधिकार में वैभव छोड़ मरने की बात सोची जाय। इतनी कटौती करने के बाद ही किसी के लिए यह सम्भव हो सकता है कि युग देवता की झोली में अपनी कुछ कहने लायक श्रद्धार्जित प्रस्तुत कर सकें।

परमार्थ के धर्मक्षेत्र और उत्तरदायित्व के कुरुक्षेत्र में प्रत्येक अर्जुन को महाभारत में लड़ने के लिए भगवान उभारते, धिक्कारते हैं। यह धर्म युद्ध अन्त:क्षेत्र में लड़ना ही होता है। लोभ और मोह ही है वे रावण, कुम्भकरण, कंस, दुर्योधन, वृत्तासुर, भस्मासुर, हिरण्याक्ष, मधुकैटभ जिनसे जूझने के लिए छोटे रीछ वानरों से लेकर बड़े हनुमान अर्जुनों तक को अपनी- अपनी स्थिति में रहते हुए समान रुप से पराक्रम करना होता है। इतना न बन पड़े तो किसी धन कुबेर के लिए भी युगधर्म जैसे महान कार्य के लिए एक पाई खर्च कर सकना कठिन पड़ेगा। कोई इन्द्र जितने परिकर वाला व्यक्ति भी एक मिनट लगा न सकेगा।

प्रज्ञा परिजनों में से प्रत्येक को युग देवता के चरणों में नव सृजन के लिए भावभरी श्रद्धाजलि अर्पित करनी है। इसके लिए समय और अंशदान जितना अधिक सम्भव हो सके, उतना बड़ा उदार साहस जुटाना है। इस हेतु हर कोई कुछ न कुछ कर सकता है। शबरी और गिलहरी से अधिक अभावग्रस्त कोई नहीं हो सकता, उनके छोटे अनुदान भी अविस्मरणीय अभिनन्दनीय बनकर रहे हैं। प्रशंसा विस्तार, वजन की नहीं, अनुपात की है। अपने समय और धन में से कौन किस अनुपात में प्रस्तुतीकरण कर सका, भगवान के यहाँ लेखा- जोखा इसी आधार पर रखा जाता है। वहाँ घरों और रुपयों में किसी के अनुदान की संख्या नहीं गिनी जाती।

रोज कुँआ खोदने, रोज पानी पीने वाले भी आठ घण्टे कमाने के लिए, सात घण्टे सोने के लिए, पाँच घण्टे नित्य कर्म तथा इधर- उधर के कामों के लिए लगा देने के उपरान्त भी चार घण्टे हर किसी के पास परामर्श के लिए बचा सकते हैं। महीने में एक दिन की आजीविका बिना कोई कठिनाई उठाये हर किसी के लिए निकाल सकना सम्भव है।

प्रज्ञायुग के मूर्धन्य अग्रगामियों को बदलने का प्रमाण यही से देना चाहिए कि लोभ मोह पर अंकुश लगायें। निर्वाह और परिवार के लिए लगने वाले समय और धन में कटौती करें और उस बचत को आज के सर्वोपरि पुण्य परमार्थ के लिए प्रस्तुत करें। अनुकरण की परम्परा नहीं चलनी चाहिए। विलासिता में हानि और महानता में लाभ समझने की बात हाँ हाँ करने से कहाँ बनती है? उसके लिए प्रत्यक्ष प्रमाण इसी रुप में प्रस्तुत करना होगा कि लोभ मोह पर किस सीमा तक अंकुश लगा और उस बचत को कितनी उदार साहसिकता अपनाकर युग देवता के चरणों में अर्पित किया गया। अपना उदाहरण प्रस्तुत करके ही ऐसे प्रसंगों में दूसरों को अनुगमन की प्रेरणा दी जा सकती है। बातों के छप्पर बाँधने से उपहासास्पद विडम्बना ही खड़ी होती है।

किसे क्या करना है, इसका उत्तर भी एक ही है- प्रस्तुत आपत्ति काल में सब ओर से ध्यान हटाकर हमें आस्था संकट से जूझना है। लोकमानस के परिष्कार में निरत होना है। एकहि साधे सब सधे की उक्ति इसी में सन्निहित है। इतना बन पड़े तो समझना चाहिए कि समस्त समस्याओं का एकमात्र हल निकल आया। इसकी उपेक्षा होती रही तो समझना चाहिए कि विषाक्तता रहते फोड़े- फुन्सियों के ऊपरी उपचार से बात बन नही पायी। परिशोधन और परिष्कार का यह केन्द्र सँभाला जा सका तो फिर और कुछ करने को शेष न रहेगा।

कौन क्या करे, इसके लिए प्रज्ञा अभियान का क्षेत्र इतना बड़ा है कि उसमें हर स्तर का, हर स्थिति का व्यक्ति कुछ न कुछ कर सकता है। अपने उबरने और दूसरों को पार उतारने हेतु असंख्यों कार्यक्रम विद्यमान हैं। उनमें से किन्हीं को भी मन:स्थिति या परिस्थिति के अनुरुप चुना जा सकता है या चयन निर्धारण के लिए शान्तिकुञ्ज से परामर्श किया जा सकता है।

यह तथ्य हर जागृत आत्मा को गिरह बाँध लेना चाहिए कि युग अवतरण की बेला में सृष्टा की नव सृजन योजना में भागीदार रहने के समान और कोई बुद्धिमत्तापूर्ण निर्धारण नहीं हो सकता। जिनके मन में यह उत्साह उभरे, उन्हें अपने निज के चिन्तन, स्वभाव और निर्धारण में आदर्शवादी साहसिक परिवर्तन करना चाहिए। ‘हम बदलेंगे- युग बदलेगा’ का उद्घोष यदि सही अर्थों में प्रज्ञा परिजनों के जीवन में उतर सके, तो यह बात सुनिश्चित मानना चाहिए कि युग प्रवाह अवश्य बदलेगा, सत्प्रवृत्तियाँ बढ़ेंगी, दुष्प्रवृत्तियाँ मिटेंगी, वातावरण में व्याप्त दुष्टता और भ्रष्टता से जूझने के लिए प्रखरता सम्वर्धन आज की परिस्थितियों में अत्यन्त अनिवार्य है। वह तब ही संभव है जब आदर्शवादी जीवन जीने के लिये स्वयं मन में उमंगे उठने लगें और वैसे ही कर्तव्यों से भरा क्रिया कलाप हो। फिर युग बदलने में कोई संदेह नहीं।







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