प्रज्ञायोग- सर्वोत्तम किन्तु सर्व सुलभ साधना

यह प्रज्ञा युग के अवतरण की बेला है। इन दिनों युग धर्म के अनुरूप आद्यशक्ति महाप्रज्ञा की उपासना आवश्यक है। अवतारों का एक- एक काल होता है। राम, कृष्ण, बुद्ध आदि के समय पर देवताओं ने उनका अनुगमन किया और प्रयोजन साधा था। इन दिनों आस्था संकट का असुर विनाश के लिए उतारू है। इस भस्मासुर, हिरण्य कश्यप, महिषासुर, वृत्तासुर को निरस्त करने के लिए महाप्रज्ञा का अवतरण इसी महापरिवर्तन के प्रभात पर्व में हो रहा है। इन दिनों देवात्माओं के लिए प्रज्ञायोग की साधना करके अपने आत्मबल और प्रभाव कौशल का अभिवर्धन करना चाहिए। 

आद्यशक्ति गायत्री यों सदा- सर्वदा सार्वजनीन उपासना का आधार रही है और उसका ऋषियों- देवताओं से लेकर जन साधारण तक की साधना में समान समावेश रहा है। पर इन दिनों तो उसकी प्रमुखता युगधर्म के  अनुरूप भी है, उससे साधक का दृष्टिकोण निखरेगा और गुण, कर्म, स्वभाव में उपयोगी सुधार परष्किार सम्भव होगा। गायत्री साधना से ओजस्, तेजस् और वर्चस् की अभिवृद्धि एक तथ्य है। 

इन समस्त प्रयोजनों के लिये जिस आत्मबल की आवश्यकता है, उसे उपलब्ध करने के लिये साधना का अवलम्बन लेना ही पड़ेगा। कल्प साधना सत्र में सभी के लिए समान रूप में प्रयुक्त होने वाली अनिवार्य साधना में प्रज्ञायोग को प्रमुख रखा गया है। गायत्री साधना का यह सर्वांग सम्पन्न, सर्वतोमुखी प्रयोग है। मात्र जप से ही उसकी पूर्ति नहीं हो जाती। मात्र भोजन ही सब कुछ नहीं होता। उसके साथ जल, सांस, शयन, शौच, स्नान, वस्त्र आदि की भी व्यवस्था करनी पड़ती है। ठीक इसी प्रकार गायत्री साधना को यदि एकांगी न रखना हो, तो उसे समग्र प्रज्ञा योग के साथ सम्पन्न करना चाहिए। 

सर्व साधारण के लिए प्रज्ञायोग में न्यूनतम तीन मालाओं का जप तीनों शरीरों के परिशोधन के लिए नित्य नियम में सम्मिलित रखने का विधान है। कल्प साधना में उसे बढ़ाना पड़ता है। १०८ मालाओं के तीन अनुष्ठान एक महीने में सम्पन्न करने होते हैं। जो नौ दिन की संक्षिप्त साधना करते हैं, उनके लिए १०८ माला का एक अनुष्ठान निर्धारित है। जप करते समय सविता प्रात:कालीन स्वर्णिम सूर्य का ध्यान करना होता  है और भावना की जाती है कि वह प्रकाश अपने शरीर, मन और अन्त:करण में देवत्व की मात्रा भर रहा है। दिव्य प्राण की ऊर्जा उभार रहा है। फलतः: समग्र व्यक्तित्व को देवोपम ढाँचे में ढलने का अवसर मिल रहा  है। 

प्रज्ञायोग का समूचा विधान इस प्रकार है। 
(क) ज्ञानयोग- प्रात:काल आँख खुलते ही आत्मबोध का चिन्तन करें। मनुष्य जन्म को ईश्वर का सर्वोपरि उपहार अनुभव करें। इस अमानत को आत्म कल्याण का स्वार्थ और विश्व कल्याण का परमार्थ साधते हुए  लक्ष्य प्राप्ति का अलभ्य अवसर मानें। आज के दिन को एक सम्पूर्ण जीवन मानकर उसके श्रेष्ठतम सदुपयोग की दिनचर्या बनायें। उसे निभाने की सुव्यवस्थित योजना बनायें। पन्द्रह मिनट इस आत्मबोध साधना में लगाएँ। 

रात्रि को सोने से पूर्व शैया पर पड़े- पड़े जीवन के अन्त का स्मरण करें। मृत्यु को अनिवार्य अतिथि मानें। उसके उपरान्त ईश्वर के दरबार में पहुँचने और जीवन सम्पदा के सदुपयोग- दुरुपयोग के सम्बन्ध में लेखा- जोखा मांगे जाने की बात सोचें। बरते हुए प्रमाद की परिणति निकृष्ट योनियों में भटकने, यंत्रणायें सहने और पतन- पराभव के गर्त में गिरने की यथार्थता को समझें, लोक के साथ परलोक को भी जोड़ें। वर्तमान ऐसा बनायें, जिससे निर्वाह ही नहीं भविष्य भी सधे। सोते समय इन्हीं भावनाओं को लेकर चिर निद्रा की तरह दैनिक निद्रा की गोद में चले जाये। आज के दिन की समीक्षा करें। बन पड़े तो दोष दुर्गुणों का पश्चाताप, प्रायश्चित करे और कल के लिए ऐसा विचार करें कि इसे आज की अपेक्षा अधिक श्रेष्ठ समुन्नत बनाना है। 

प्रात: आत्मबोध की साधना के साथ पन्द्रह मिनट तक चिन्तन में निमग्न रहें और रात्रि को सोते समय पन्द्रह मिनट मनन में निरत रहें। चिन्तन में परिमार्जन की और मनन में परिष्कार की प्रक्रिया है। दोनों को मिला कर ज्ञानयोग बनता है। चिन्तन में चार संयम पर विचार किया जाता है। चटोरेपन व कामुक चिन्तन की रोकथाम को इन्द्रिय संयम कहते हैं। समय संयम में ऐसी व्यस्त दिनचर्या बनानी पड़ती है, जिससे व्यर्थ या अनर्थ की हरकतें बन पड़ने की कोई गुंजाइश ही न रहे। अर्थ संयम में औसत भारतीय स्तर का निर्वाह, उपार्जन एवं समाज ऋण से मुक्त होने के लिए अनुकरणीय अंशदान का बजट बनाकर चलना पड़ता है। विचार संयम में चिन्तन को निरर्थक असामाजिक, अनैतिक कल्पनाओं से हटाकर मात्र उपयोगी योजना, कल्पना एवं भावना के क्षेत्र में ही सीमाबद्ध रखना पड़ता है। इन चारों संयमों को ही व्यवहारिक तप साधना कहा गया है। 
मनन के चार अंग हैं- १. आत्म- चिन्तन २. आत्म- सुधार ३. आत्म- निर्माण ४. आत्म- विकास। इनका स्वरूप इस प्रकार है। 

वर्तमान मन:स्थिति की समीक्षा करके उसमें से उचित अनुचित का पर्यवेक्षण वर्गीकरण करना पड़ता है। यह आत्म समीक्षा हुई। आत्म सुधार में यह योजना बनानी पड़ती हैं कि अभ्यस्त अनुपयुक्तताओं से किस  प्रकार पीछा छुड़ाया जाय। आत्म निर्माण में उन सत्प्रवृत्तियों को बढ़ाने की योजना बनानी पड़ती है, जो अब तक अपने में उपलब्ध नही, किन्तु प्रगति प्रयास के लिए आवश्यक है। आत्म विकास में अपने आपको विश्व नागरिक मानना पड़ता है और वसुधैव कुटुबकम् की उदार व्यापकता को व्यवहार में सम्मिलित करना पड़ता है। संकीर्ण स्वार्थपरता से प्रेरित लोभ, मोह के भव बन्धन तोड़ने होते हैं और सबमें अपने को, अपने में सबको समझते हुए सुख और दु:ख बांटने की उमंगे उछालनी पड़ती हैं। संक्षेप में यही व्यवहारिक जीवन का योग साधन है। चिंतन को तप और मनन को योग कहा गया है। इन दोनों को अपनाकर बढ़ते हुए कदम परम लक्ष्य तक पहुँच सकते हैं। संक्षेप में इसे प्रज्ञायोग का ब्रह्मविद्या ज्ञान पक्ष कहा जा सकता है। 
(ख) कर्मयोग- पूजा उपचार को क्रिया योग कहते हैं। इसे नित्य कर्म में सम्मिलित रखें। शौच- स्नान से निवृत्त होकर नियत स्थान, नियत समय पर शाँत चित्त से बैठें। तीन माला गायत्री मन्त्र का जप आवश्यक है। इतना कृत्य प्राय: आधा घण्टे में सम्पन्न हो जाता है। 
प्रज्ञायोग के क्रिया परक पाँच प्रमुख अंग हैं- १.आत्मशोधन २. देव पूजन ३. जप ४. ध्यान ५. विसर्जन। 

(१)आत्मशोधन- पालथी पर बैठें। पाँच कृत्य करें। १. पवित्रीकरण- शरीर पर जल छिड़कना। २. आचमन- चम्मच से तीन आचमन। ३. शिखा स्पर्श वन्दन। ४. प्राणायाम श्वांस को धीमी गति से गहरी खींचना, रोकना और बाहर निकालना। ५. न्यास- बायीं हथेली पर जल रखकर दायें हाथ की पाँचों उँगलियों से निर्धारित क्रम के अनुसार शरीर के प्रमुख अंगों से स्पर्श करना। 
इन पाँच कृत्यों के साथ पवित्रता एवं प्रखरता की अभिवृद्धि की, मलीनता अवांछनीयता की निवृत्ति की भावना जुड़ी रहनी चाहिए। पवित्रता एवं प्रखर व्यक्तित्व ही ईश्वर के दरबार में प्रवेश पाने और अनुग्रह उपलब्ध करने के अधिकारी होते हैं। इसलिए आत्म कल्याण के मार्ग पर चलने वाले को सर्वप्रथम आत्मशोधन करना पड़ता है। इसी तथ्य का स्मरण करने के लिए उपरोक्त पाँच कृत्य करने होते हैं। 

(२) देव पूजन- प्रज्ञायुग के अवतरण की इस संधि बेला में महाप्रज्ञा ऋतम्भरा गायत्री को सभी जागृत आत्माएँ अपनी उपासना का आधार केन्द्र मानें। महाप्रज्ञा का प्रतीक गायत्री माता का चित्र है। इसे सुसज्जित पूजा वेदी पर रखें और विश्वव्यापी महाप्रज्ञा का करबद्ध नत मस्तक होकर वन्दन करें। 

घनिष्ठता स्थापना के पाँच उपाय उपचार हैं, इन्हें विधिवत् सम्पन्न करें। जल, अक्षत, पुष्प, धूप- दीप, नैवेद्य। इन प्रतीक समर्पणों को आराध्य के सम्मुख प्रस्तुत करने को पंचोपचार कहते हैं। एक एक करके एक छोटी तश्तरी में इन पाँचों को पूजा अभ्यर्थना के उद्देश्य से समर्पित करते चले। जल का अर्थ नम्रता सहृदयता। अक्षत का अर्थ है- प्रसन्नता प्रगति, शोभा। धूप- दीप अर्थात् स्वयं जलकर आलोक का वितरण, पुण्य परमार्थ। नैवेद्य अर्थात् स्वभाव, चरित्र एवं व्यवहार में सज्जनता का माधुर्य। पाँच उपचार कृत्यों के द्वारा व्यक्तित्व को सत्प्रवृत्तियों को जानना आवश्यक है, जो इन पंचोपचार कृत्यों के साथ भाव रूप में अविच्छिन्न  रूप से सम्बद्ध हैं। 

(३) जप- गायत्री मन्त्र का जप न्यूनतम तीन माला अर्थात् प्राय: पन्द्रह मिनट नियमित रूप से किया जाय। अधिक बन पड़े तो अधिक उत्तम, जप को एक प्रकार की मल शोधक रगड़ माना जाय, जिस तरह बार- बार घिसने पर वस्तुएँ चिकनी हो जाती हैं। अन्तराल में जीवनक्रम में घुल जाने के लिए ईश्वर को आग्रहपूर्वक आमन्त्रित करना ही जप का प्रयोजन है। 

(४) ध्यान- शरीर के अंग अवयव जप कृत्य करते हैं, मन को खाली न छोड़े, परम तत्व में नियोजित रखे रहने के लिए जप के साथ- साथ ध्यान भी करना पड़ता है। साकार ध्यान में गायत्री माता के अंचल की छाया  में बैठने तथा उसका दुलार भरा प्यार अनवरत रूप से प्राप्त होने की भावना की जाती है। 

निराकार ध्यान में प्रभात कालीन स्वर्णिम सूर्य की किरणों को शरीर में श्रद्धा, मस्तिष्क में प्रज्ञा काया में निष्ठा के दिव्य अनुदान उतरने की मान्यता परिपक्व की जाती है। जप और ध्यान के समन्वय से ही चित्त एकाग्र रहता है और आत्म सत्ता पर उस कृत्य का महत्त्वपूर्ण प्रभाव पड़ता है। 

(५) सूर्य अर्घ्यदान विसर्जन- पूजा वेदी पर रखे छोटे कलश का जल सूर्य की दिशा में अर्घ्य रूप में चढ़ाया जाय। इसके लिए घर में तुलसी का थाँवला रहे तो और भी उत्तम। जल को आत्मसत्ता का प्रतीक प्रतिनिधि माना जाता है और सूर्य को विराट् ब्रह्म विश्व का। अपनी सत्ता सम्पदा को समष्टि के लिए समर्पित विसर्जित करने का भाव सूर्यार्घ्य में है। 
सप्ताह में एक दिन रविवार या गुरुवार एक समय भोजन करें अथवा अस्वाद व्रत निबाहें, ब्रह्मचर्य रखें। दो घण्टे का मौन रखें। प्रात:काल का समय इसके लिए अधिक उपयुक्त है। 

इन दिनों हिमालय के अदृश्य धु्व्र केन्द्र से जागृत आत्माओं को युगधर्म का निर्वाह कर सकने की विभिन्न विशिष्ट शक्ति धाराओं का प्रवाह अनुदान प्रेरित किया जा रहा है। वह प्रात: सूर्योदय से एक घण्टा पूर्व से लेकर सूर्योदय तक और रात्रि को सूर्यास्त से एक घण्टे बाद तक चलता है। हर दिन तो उसे ग्रहण करने का साहस किन्हीं विशिष्टों को ही करना चाहिए और उस सम्बन्ध में शान्तिकुञ्ज से परामर्श करना चाहिए। किन्तु सप्ताह में एक समय उसका लाभ लेने की छूट सभी प्रज्ञा परिजनों को है। जिस दिन उपरोक्त तीनों व्रत निबाहें जायें उसी दिन शक्ति प्रवाह का अवधारण भी किया जाय। 

नियत समय पर किसी शांत एकान्त स्थान में पूर्व की ओर मुँह करके बैठे। स्थिर शरीर, शान्त चित्त, कमर सीधी, दोनों हाथ एक के ऊपर एक रखकर गोदी में, आँखें बन्द यह ध्यान मुद्रा है। 

भावना एवं धारणा करनी चाहिए कि हिमालय के मध्यवर्ती हिमाच्छादित सुमेरू शिखर पर प्रात:कालीन स्वर्णिम सूर्य का उदय हुआ। उसकी सुनहरी किरणें फैली। किरणें हिमालय से चलकर साधक तक पहुँची। उसके तीनों शरीर में तीन केन्द्रों द्वारा प्रवेश करने लगी। स्थूल शरीर में नाभि केन्द्र से सूक्ष्म शरीर में भ्रूः मध्य भाग आज्ञाचक्र से। कारण शरीर में हृदय केन्द्र से। यह तीनों ही शरीर प्रकाशवान प्राण ऊर्जा से भरते चले गये। रोम- रोम में, कण- कण में, नस- नस में दिव्य प्रकाश का प्रवेश हुआ और समूची काय सत्ता ज्योति पिण्ड प्राण पुञ्ज बन गयी। प्रकाश परमात्मा का प्रतीक। ज्योतिर्मय काय कलेवर आत्मा का घर। दोनों के मध्य सघन एकता, भक्त का समर्पण। भगवान का अनुग्रह। दोनों का आदान- प्रदान। समर्पण विसर्जन, विलय, एकत्व, अद्वैत स्तर का अनुभव। अमृतवर्षा की अनुभूति। रस विभोर, आनन्द से सराबोर मन:स्थिति। उपलब्धि स्थूल शरीर में निष्ठा, सूक्ष्म शरीर में प्रज्ञा। कारण शरीर में श्रद्धा। अनुभूति, तृप्ति, तुष्टि, शान्ति। 

यह ध्यान धारणा आरम्भ में पन्द्रह मिनट की जाय। हर सप्ताह एक- एक मिनट बढ़ाते हुए आधा घण्टे तक पहुँचाया जाय। समापन के समय तमसो मा ज्योतिर्गमय, असतो मा सद्गमय, मृत्योर्मामृतंगमय का मौन पाठ किया जाय और अन्त में पाँच बार मानसिक ओंकार का गुँजन करते हुए शक्ति संचार की इस साप्ताहिक साधना का समापन किया जाय। 

प्रज्ञा योग की इस साधना में जप एवं ध्यान के साथ अग्रिहोत्र को अविच्छिन्न रखा गया है। गायत्री तीर्थ में नित्य यज्ञ होता है उसमें साधकों को सम्मिलित रह कर अपनी साधना को समग्र बनाना होता है। जिनकी आर्थिक स्थिति उपयुक्त है वे इसका खर्च अपने पास से दें। जो नहीं दे सकते वे मिशन की ओर से की गई इस व्यवस्था का लाभ उठाएँ। 

जप, यज्ञ और ब्रह्मभोज अनुष्ठान के यह तीन अंग है। ब्रह्मभोज के लिए जिस तिस पात्र कुपात्र को खिलाते फिरने की अपेक्षा यह अधिक अच्छा है कि शान्तिकुञ्ज के भोजन भण्डार में अपनी श्रद्धानुसार कुछ जमा किया जाय। इस राशि से साधकों के लिए भोजन पकाने में आने वाले खर्च की पूर्ति होती है। कितने ही साधक अपना भोजन व्यय वहन नहीं कर पाते, उनकी पूर्ति इस ब्रह्मभोज के लिए दी गई राशि से पूरी होती रहती है। फिर कितने ही तीर्थ यात्री भी इस भोजनालय से प्रसाद आतिथ्य पाते रहते है। इस पुण्य कृत्य में अपनी उदार श्रद्धा नियोजित करने से उस स्तर का पुण्य फल मिलता है, जिसे सच्चे अर्थों में ब्रह्मभोज कहा जा सके। प्रज्ञायोग साधना का समग्र स्वरूप इन सबके समुच्चय से ही बनता है। 






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