प्रायश्चित से अन्तराल का परिशोधन परिष्कार

आध्यात्मिक प्रगति में सबसे बड़ी बाधा संचित दुष्कर्मों से उत्पन्न कुसंस्कारों की होती हैं। उन्हें हटाये बिना गाड़ी आगे बढ़ती ही नहीं। कुकर्मों का दण्ड दु:ख- दारिद्रय, शोक संताप के रूप में मिलना निश्चित है। साधना प्रयत्नों को यह संचित असुरता उसी प्रकार अस्त- व्यस्त, नष्ट- भ्रष्ट करती रहती है जैसे कि पूतना, सूर्पणखा, ताड़का, त्रिजटा, सुरसा आदि ने दैवी प्रयत्नों को नष्ट करने में कुछ कमी न रखी थी। इन्हें निरस्त करने की संभावना साधना उपासना द्वारा बनती है, पर दुष्कृत्यों को यह स्वीकार नहीं, अतएव वे कोई न कोई कारण ऐसा बना देते हैं, जिससे विघ्न पड़ते रहे और वह सही रीति से सम्पन्न न हो सके। इस विघ्न को हटाने के लिए साधना काल में आत्मशोधन का, कुसंस्कार परिमार्जन का प्रयत्न करना होता है।

कल्प साधना में अपने आप को अध्यात्म दर्शन एवं ईश्वर सान्निध्य के लिए तत्पर करना होता है। यह एक प्रकार से अपने आप को रंगना है। रंगाई से पूर्व कपड़े को धोया जाता है। बीज बोने से पूर्व जमीन की जुताई होती है। भोजन करने से पूर्व बर्तन माँज लेते हैं। पूजा उपकरणों को भी प्रयोग से पूर्व माँजना पड़ता है। शरीर का स्नान और शुद्ध वस्त्र धारण भी इसी भावना का प्रतीक है कि मलीनता से निवृत्त होकर जप, यज्ञ, पूजन आदि पुण्य प्रयोजनों के लिए कदम बढ़ाया जाय।

पाप को पुण्य से काटा जाता है। लोहे को काटने के लिए लोहा, विष को मारने के लिए विष, काँटा निकालने के लिए काँटे का प्रयोग करना होता है। तपश्चर्या की आग में अपने को इसी हेतु तपाना पड़ता है। मलीनता चाहे किसी भी क्षेत्र की हो मांजे, रगड़े, पीटे और तपाये बिना दूर हो नहीं सकती। साधक को भी इस प्रक्रिया से अनिवार्य रूप में गुजरना पड़ता है।

धातुयें भट्टी में डाल कर शोधी जाती हैं। रसायन बनाने के लिए अग्नि संस्कार की विधि प्रयुक्त होती है। तपाने पर ईटों से लेकर मृत्तिका पात्रों तक को मजबूत बनाया जाता है। तपश्चर्या से अन्तरात्मा को मल रहित बनाया जाता है। कुण्डलिनी योग में नाड़ी शोधन विधान की अनिवार्यता है। राजयोग में यम नियमों का विधान है। प्राकृतिक चिकित्सा में उपवास, एनीमा का प्रयोग होता है। यह परिशोधन आध्यात्मिक प्रगति के लिए प्रायश्चित रूप में सम्पन्न किया जाता है।

वाल्मीकि, अशोक, अँगुलिमाल, बिल्वमंगल, अम्बपाली आदि ने आत्मिक क्षेत्र में प्रवेश करते ही प्रायश्चित, परिशोधन सम्पन्न किया था। उनने क्षतिपूर्ति के लिए अपनी संचित सम्पदा पुण्य अर्जन के लिए विसर्जित कर दी। साथ ही शरीर श्रम और मनोयोग द्वारा लोकहित में निरत रहकर पुण्य अजित करते रहे। धृतराष्ट्र, गान्धारी बच्चों को सुसंस्कारी न बना सकने पर प्रायश्चित करने के लिए हिमालय में तप साधना के लिए गये थे।

आयुर्वेदीय कायाकल्प उपचार में शरीर में भरे हुए विकारों को सर्वप्रथम पंचकर्म द्वारा निकाल बाहर किया जाता है, इसके बाद ही उपचार प्रारम्भ होता है। वमन, विरेचन, नस्य, स्वेदन, स्नेहन यह पंचकर्म कहलाते हैं। इनमें मलशोधन करने के उपरान्त ही प्रयोग की सफलता बन पड़ती है। आध्यात्मिक कल्प साधना के लिए भी प्रकारान्तर से इसी प्रयोग को प्रमुखता देनी पड़ती है।

संचित कुकर्मों का परिशोधन प्रायश्चित प्रकिया द्वारा ही सम्भव होता है। जितनी खाई खोदी है उतनी ही मिट्टी डालकर गड्ढा भरना पड़ता है। यह कार्य पंचगव्य पान, तीर्थ पर्यटन, दान पुण्य, व्रत उपवास, तप, साधना आदि के द्वारा किया जाता है। इसमें कुछ प्रतीक हैं, कुछ निर्धारण, स्थान, पान, उपवास आदि को प्रतीक कहा गया है। उस आधार पर पश्चाताप एवं आत्म प्रताड़ना द्वारा भविष्य में न करने का संकल्प प्रकट होता है।

इतना हो जाने पर भी वह खाई नहीं पटती, जिसके द्वारा व्यक्ति को पीड़ा पहुँचाई गई, पतन के गर्त में गिराया गया था अथवा भ्रष्ट परम्परा प्रचलित करने, समाज प्रवाह में विषाक्तता उत्पन्न करने का प्रयत्न किया गया। इसके लिए समाज का हित करने वाले परमार्थ कार्य उतने ही वजन के करने होते है, जितना कि पाप कर्मों का भार था। यह कार्य क्षमा याचना या छुट- पुट पूजा उपचारों से सम्भव नहीं हो सकता। कार्य अपना फल दिये बिना रहते नहीं। नियति का यही विधान है। पश्चाताप क्षमा- याचना, मात्र भूल स्वीकारने और भविष्य में वैसा न करने जैसी मनःस्थिति का बोधक है। इतने भर से भरपाई नहीं होती। प्रायश्चित्त को इष्टापूर्ति भी, क्षति पूर्ति भी कहते है। उसके पाप का परिमार्जन पुण्य से करना पड़ता है।

दोष- दुर्गुणों के रहते चिरस्थायी प्रगति के पथ पर चल सकना किसी के लिए भी सम्भव नही हुआ है। फूटे बर्तन में दूध दुहने से पल्ले कुछ भी नहीं पड़ता। इसलिए छेदों को बन्द करना आवश्यक है। बर्तन का पेंदा जब गल जाता है, तो उसे हटाकर उतना ही बड़ा नया पेंदा लगाना पड़ता है। अन्त:करण को दुष्कृत्यों से जितना गला दिया है उसके स्थान पर पुण्य सम्पदा की, श्रद्धा सद्भावना की उतनी ही साधना जुटानी पड़ती है। मकान के आसपास सौन्दर्य अभीष्ट है तो केवल मात्र सफाई पर्याप्त नहीं। फूल पौधे उगाने और हरीतिमा बढ़ाने से ही यह प्रयोजन पूर्ण नहीं होगा। इस आरोपण को भविष्य में सींचना भी होता है।

प्रसिद्ध है कि महान सन्त माधवाचार्य ने तेरह वर्ष तक वृन्दावन में गायत्री पुरश्चरण किए, पर उन्हें न कोई अनुभूति हुई न सिद्धि मिली। असफलता से खिन्न होकर वे काशी चले गये। एक कापालिक के परामर्श से मणिकर्णिका श्मशान में रहकर तन्त्र साधना करने लगे। एक वर्ष में उन्हें भैरव सिद्ध हुए। उनने वरदान माँगने के लिए तो कहा, पर सामने प्रकट नहीं हुए। माधवाचार्य सामने प्रकट होने का आग्रह करने लगे तो भैरव ने इतना ही कहा कि गायत्री उपासना से उत्पन्न आपके ब्रह्मतेज के सम्मुख मेरा प्रकट होना बन नहीं पा रहा।

माधवाचार्य अपने ब्रह्मतेज की बात सुनकर चकित हुए और कहने लगे यदि ऐसा ही है तो बताये कि मेरी साधना क्यो निष्फल रही। भैरव ने बताया कि पिछले तेरह जन्मों के पाप तेरह वर्षों के अनुष्ठानों से कटे है। अब आपके पाप समाप्त हो गये। जो भी साधना करेंगे सफल होगी। माधवाचार्य वापिस वृन्दावन लौटे, एक वर्ष और साधना करके सिद्धि प्राप्त कर सके और माधव निदान जैसे महान ग्रन्थ की रचना की।

न केवल आत्मिक प्रगति के लिए वरन् कुकर्म जन्य कुसंस्कारों की भयावह परिस्थितियों से पीछा छुड़ाने के लिए भी प्रायश्चित परिमार्जन आवश्यक है। शारीरिक एवं मानसिक रोगों का कारण मात्र आहार विहार का विपर्यय ही नहीं होता। जलवायु का प्रदूषण एवं विषाणुओं के आक्रमण से ही आधि- व्याधियों की उत्पत्ति नहीं होती, वरन् उनका एक बड़ा कारण है, मन:क्षेत्र की गहराई में जमी हुई विष ग्रन्थियाँ। मस्तिष्कीय चेतना ही समूचे शरीर का संचालन करती है। इसी प्रवाह से विष ग्रन्धियों का प्रभाव अंङ्ग अवयवों में पहुँचता है और उन्हें रोगी बनाता रहता है। औषधि उपचार से उनमें कोई सुधार नहीं होता क्योंकि मूल कारण तो मन:क्षेत्र में बैठा है। जड़ यथावत जमी रहे तो मात्र पत्ते तोड़ने से क्या बने? विषैले रक्त के कारण उत्पन्न होने वाले फोड़े फुन्सियों का निराकरण मात्र मरहम लगाने के ऊपरी उपचार से कैसे संभव हो? उपाय गहराई में उतर कर करना होता है।

इन दिनों अधिकांश शारीरिक मानसिक रोग अन्त:क्षेत्र में जमी हुई, कुकर्मों से उत्पन्न हुई विष ग्रन्थियाँ ही उत्पन्न करती हैं। डाक्टर और दवायें बदलते रहने पर भी कोई लाभ नहीं होता। इसका उपचार जड़ उखाड़ने से ही बन पड़ता है। यह कार्य प्रायश्चित विधान अपनाने पर ही होता है। मानसिक, आर्थिक, पारिवारिक, सामाजिक क्षेत्रों की विकृतियों और विपत्तियों से भी एक बड़ा कारण अन्त:क्षेत्र में जमे हुए कषाय- कल्मष ही होते हैं। उन्हें उखाड़ देने पर ही कर्मफल या भाग्य विधान का कुचक्र टूटता है। पाप का प्रतिफल दु:ख है। उसकी निवृत्ति के लिए पुण्य संचय का उपचार ही काम देता है।

प्रायश्चित के तीन चरण है-

() इस जन्म में जो भी कुकृत्य बन पड़े हों उनका विस्तृत विवरण मार्गदर्शक के सम्मुख प्रकट करना। कारण, निदान जानने पर ही कोई चिकित्सक सही उपचार बता पाता है। पाप कितना बड़ा या छोटा था, किन परिस्थितियों में बन पड़ा, कितने समय तक चलता रहा, उसे स्वेच्छा से किया गया या दबाव, प्रलोभन, भय के वातावरण में, यह विवरण बता देने पर दुराव और अन्तर्द्वन्द्व की विष ग्रन्थियाँ खुलती है।

यह विवरण ऐसे व्यक्ति के सम्मुख प्रकट किया जाय, जो उस कथन का अनुचित प्रयोग न करे वरन् उदार चिकित्सक की तरह मात्र उपचार की ही बात सोंचे और निराकरण का वैसा उपाय बताये, जिसे कर सकना साधक के लिए शक्य हो।

() पश्चाताप एवं परिष्कार- इसके लिए व्रत, उपवास, पंचगव्य, मुण्डन, जप, अनुष्ठान आदि उपचारों का विधान है। इससे कुकृत्यों पर पश्चाताप और भविष्य में वैसा न करने का संकल्प प्रकट परिपक्व होता है।

() कुकृत्यों द्वारा जो पाप बन पड़ा उसके बदले में पुण्य अजित करने के लिए इतना परमार्थ करना जो खाई पाट सकने जितने स्तर का हो। जिस व्यक्ति की हानि की है उसका संतोष करना उचित होते हुए भी प्राय:वह सम्भव नहीं होता। इसलिए लोकहित के निमित्त किए गये परमार्थ से ही वह समाधान करना होता है।

श्रम और धन परस्पर सम्बद्ध हैं, दोनों एक ही तथ्य की परिणति है। श्रम सेवा एवं धन दान दोनों को ही परमार्थ का अङ्ग माना गया है। परमार्थ से लिए समयदान, श्रमदान के कितने ही निर्धारण परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए किये जा सकते है। प्राचीनकाल में तीर्थ यात्रायें इसी प्रयोजन के लिए होती थी। धर्म प्रचार की पद यात्रा को तीर्थ यात्रा कहते हैं। इसके लिए विस्तृत क्षेत्र में जन सम्पर्क साधने और लोक मानस को परिष्कृत करने वाले कितने ही कार्यक्रम बन सकते हैं। समीपवर्ती क्षेत्र में भी यह प्रयास किये जा सकते हैं। कार्यक्रमों का निर्धारण भी इसी दृष्टि को ध्यान में रख कर किया जा सकता है।

शरीर दण्ड के रूप में तीर्थयात्रा, श्रमदान, समयदान, प्रायश्चित प्रक्रिया के महत्त्वपूर्ण भाग रहे है। नव जागरण के लिए, जन सम्पर्क साधने के लिए, अपने गांव नगर तथा क्षेत्र में घर- घर जाने के लिए नियमित समय लगाना तीर्थयात्रा की सबसे छोटी एवं सरल साधना है। यह क्रम कोई भी सरलतापूर्वक अपना सकता है। मुख्य उद्देश्य शरीर को कष्ट देना है। सो पद यात्रायें अधिक उपयुक्त रहीं।

लम्बा प्रवास चक्र बनाकर साथियों सहित साइकिलों पर निकलने, मार्ग में मिलने वालों को युग चेतना से अवगत कराने, दीवारों पर आदर्श वाक्य लिखते चलने की तथा रात्रि में जहाँ ठहरना हो वहाँ कथा कीर्तन द्वारा अनुप्राणित करना भी तीर्थ् यात्रा का बड़ा प्रयोग है। प्रायश्चित स्वरुप इसके लिए संकल्प पूर्वक कुछ समय निकाला जा सकता है। घर से हरिद्वार तक एक रास्ते पहुँचना और दूसरे रास्ते लौटना भी तीर्थ यात्रा का एक प्रयोग है। अपने- अपने क्षेत्रों में भी ऐसी यात्रा, पद यात्रायें की जा सकती हैं।

अर्थ दण्ड के रूप में दूसरा उपाय है धनदान, अंशदान। जिनके पास संचित सम्पदा है वे इसका एक उपयुक्त भाग उदारता पूर्वक विसर्जित कर सकते है। जिनकी स्थिति वैसी नहीं है वे दैनिक आजीविका में से एक निश्चित अंशदान इस निमित्त लम्बे समय तक लगाते रह सकते है। आवश्यक नहीं कि जितना पाप कमाया है उतना ही पुण्य किया जाय। आगे के लिए भी तो कुछ इस स्तर की पूँजी जमा करनी चाहिए। भविष्य को उज्ज्वल बनाने में पुण्य परमार्थ के अतिरिक्त और कोई साथी, सहयोगी नहीं हो सकता। पुण्य अर्जित करने के लिए कुछ उदारता दिखानी हो, तो उसके पीछे दूरदर्शी विवेकशीलता का भी समावेश रहना चाहिए।

प्राथमिक व्यवस्था के मूल में जो दर्शन है उसे भली- भाँति समझा जाना चाहिए। जो गड्ढा खोदा है उसे भरना चाहिए। जो लिया है उसे वापिस करना चाहिए। धर्म परम्परा को क्षति पहुँचाई गई है, उसकी पुर्ति के लिए उतना ही बड़ा पुण्य परमार्थ करना चाहिए। कामुकता के लिए दूसरों का चरित्र गिर गया है तो उसके बदले अन्यान्यों का चरित्र सुधारने वाला श्रमदान, अंशदान करना चाहिए। चोरी, बेईमानी, कामचोरी आदि से कमाने वाले धन को सत्प्रयोजनों के लिए वापिस कर देना चाहिए। जिसको क्षति पहुँचाई गई है उसे उसी रूप में वापिस करना कठिन है। जिस नारी का शील बिगड़ा उसे फिर से शुद्ध कैसे किया जाय? जिस आदमी की जेब कटी, उसे कहाँ तलाश किया जाय। जो मर गया या दूर है उसे वह राशि किस प्रकार लौटाई जाय। तरीका एक ही है कि पुण्य परम्परा के आधारभूत कारणों के सोचने में अपना श्रम और धन उसी अनुपात से खर्च किया जाय, जितना कि भारी पाप था। इस क्षतिपूर्ति को शास्त्रकारों ने इष्टापूर्ति कहा है। सच्चा प्रायश्चित यहीं है। मात्र पंचगव्य पीने, गंगा नहाने, एकादशी व्रत रखने जैसे छुट- पुट उपचारों से उन भारी भरकम दुष्कर्मों का प्रायश्चित नहीं हो सकता, जो आत्मिक प्रगति के मार्ग में चट्टान की तरह अवरोध बनकर अड़े हुए है और सुख- शान्ति की परिस्थितियाँ उत्पन्न होने का सुयोग बनने ही नहीं दे रहे हैं।

कहना न होगा कि सर्वोत्तम पुण्य ब्रह्मदान है। लोक मानस के परिष्कार और सत्प्रवृत्ति संवर्धन के पुण्य प्रयासों से असंख्यों पुण्य परमार्थ अनायास ही होते हैं। प्रज्ञा अभियान की गतिविधियों का परिपोषण अपने समय का सर्वश्रेष्ठ अंशदान है। इसके साथ प्रायश्चित भावना जोड़नी चाहिए और भाव भरे भारी भरकम समयदान, अंशदान प्रस्तुत करते हुए सच्चे अर्थों में प्रायश्चित विधि सम्पन्न करनी चाहिए। इससे पाप परिशोधन और प्रगति के पुण्यार्जन का दुहरा लाभ हस्तगत होता है।







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