सर्वांगीण प्रगति शिक्षा एवं विद्या के समन्वय से ही सम्भव

प्राणि जगत में मनुष्य सर्वश्रेष्ठ प्राणी माना गया है। संसार के अन्य सारे पशुओं पर उसने सदा से शासन किया है। उन्हें अपने अधीन बनाया, प्रशिक्षण दिया और उपयोगी बनाया है। यों तो प्राणि शास्त्र के अनुसार मनुष्य व पशु में कोई विशेष अन्तर नहीं है। मनुष्य भी एक पशु ही है। प्राणि जगत में सर्वोपरिता का गौरव पाने और अन्य पशुओं पर शासन कर उनको उपयोगी बना सकने का जो श्रेय मनुष्य को मिला है, उसका मूल कारण उसकी विकसित बुद्धि एवं विवेक ही है। पशुओं एवं मनुष्यों के बीच यही तो एक अन्तर है। मनुष्य में यही एक ऐसी विशेषता है, जिसके कारण वह अन्य प्राणि जगत का स्वामी तथा गुरु बना हुआ है। यद्यपि शारीरिक रूप से अन्य असंख्यों पशु ऐसे हैं जिनकी तुलना में मनुष्य बहुत ही निर्बल तथा अपूर्ण है। किन्तु परमात्मा के विशेष वरदान के रूप में मिली बुद्धि ने उसे सर्वश्रेष्ठता एवं ज्येष्ठता प्रदान करा दी है।

पशुओं में मनुष्यों की तरह आगे की बात सोच सकने, वर्तमान को समझ सकने और परिस्थितियों पर विजय प्राप्त कर सकने की क्षमता नहीं होती। वे तो सामने की, जो भी खाने- पीने तथा प्रजनन सम्बन्धी बातें अपनी नैसर्गिक प्रवृत्ति पर ही जान पाते हैं। जबकि मनुष्य दिन, मास, वर्षों तथा युगों की बात आज ही सोच सकता है।

मनुष्य के बौद्धिक विकास के प्रमाण रूप में हम आज के उन्नत ज्ञान आश्चर्य जनक वैज्ञानिक प्रयोग, विशाल उद्योग, यातायात तथा न्याय, चिकित्सा आदि की ओर विस्मय तथा संतोष के साथ देखते और मनुष्य होने पर गर्व करते हैं। यह सब कुछ मनुष्य की विकसित बुद्धि के ही चमत्कार हैं। बुद्धि के विकास से मनुष्य का जीवन धन्य हो जाता है, उसका मनुष्य होना सार्थक और संसार से सुन्दरतर हो जाता है। बुद्धि विकास के अभाव में मनुष्य अन्य पशुओं की भाँति ही सींग पूँछ से रहित पशु ही रहता है। मनुष्यता का लक्षण बुद्धि एवं विवेक का विकास ही है। पूर्ण मनुष्य बनने और सर्वोपरिता का श्रेय पाने के लिये हर सम्भव उपाय से मनुष्य को अपने बुद्धि विकास में लगा ही रहना चाहिये।

ईश्वर की ओर से लगभग समान बुद्धि तत्व का हर मनुष्य को अनुग्रह मिलता है। कोई जन्म जात मेधावी विद्वान अथवा विवेकी कदाचित ही होता है जन्म लेने और चेतना अनुभव करने के बाद मनुष्य अपने अध्यवसाय के बल पर ही विकसित होता तथा बढ़ता है। जो जन्मजात मेधावी माने जा सकते हैं, वे भी अपने पूर्व जन्म के अध्यवसाय के फलस्वरूप वह विशेषता लेकर वर्तमान जीवन में जाग्रत होते हैं। आशय यह कि मनुष्य के लिए विवेक एवं बुद्धि का विकास उसके अध्यवसाय के आधार एवं अनुपात पर ही होता है।

मनुष्य के बुद्धि विकास के अध्यवसायों में विद्याध्ययन का स्थान प्रमुख तथा व्यापक है। विद्या की आवश्यकता न केवल बुद्धि विकास के ही लिये है, प्रत्युत यह लोक से लेकर परलोक तक की सभी सफलताओं का आधार है। जीवन को सफल, उच्च तथा परिपक्व बनाने के लिये युगों से संचित मानवीय ज्ञान की नितान्त आवश्यकता है। उन सारे महान व्यक्तियों ने, जिन्होंने उन्नति के चरम शिखरों को छूने का प्रयास किया है, अपने जीवन में अध्ययन सम्बन्धी अध्यवसाय को प्रधानता ही है। उन्होंने लाख संकट उठाये, हजारों अभावों में रहे, कितनी ही व्यग्रता एवं व्यथा की परिस्थितियाँ क्यों न आई हों अपने अध्ययन एवं ज्ञान सम्बन्धी अभ्यास में व्यवधान न आने दिया। वे पुराने ज्ञान से जीवन का अनुभव और तात्कालिक विषयों का अधिकाधिक अध्ययन कर आधुनिक ज्ञान का लाभ उठाते ही गये।

यदि उन्हें ज्ञान की इतनी उत्कट अभिलाषा न होती या उसके महत्व को कम आंक कर यो ही मनोरंजन के रूप में कुछ पढ़ कर काम चलाने की सोची होती, तो निश्चय ही वे उन्नति के उन सोपानों पर भी चरण न रख सकते, जिसके अधिकारी बनकर आज विद्या, बुद्धि, ज्ञान, विवेक तथा आध्यात्मिक क्षेत्रों के उदाहरण बन चुके हैं। नित्य नियम से उत्तमोत्तम ग्रन्थों तथा विषयों का अध्ययन करते रहने से मनुष्य की बुद्धि में उस प्रखरता का सचमुच विकास होता रहता है, जिसके आधार पर अच्छाई, बुराई, पाप- पुण्य का ठीक- ठीक निर्णय किया जा सकता है, अपनी पाशविक प्रवृत्तियों पर विजय पाई जा सकती है और प्रगति की ओर विश्वस्त तथा निर्भय पग बढ़ाया जा सकता है।

विद्या के अभाव में उन्नति असम्भव है। यही वह पूँजी है जो सच्चे अर्थों में मनुष्य का उत्थान कराती और यश व गौरव का अधिकारी बनाती है। ऐसा एक भी उदाहरण इस संसार में नहीं पाया जा सकता, जिसके आधार पर यह कहने का साहस किया जा सके कि बिना ज्ञान एवं विद्या के भी उन्नति एवं प्रगति सम्भव मानी जा सकती है।

नि:सन्देह विद्या ऐसी ही अक्षय सम्पदा है जिसका तीनों लोक, तीनों कालों में नाश नहीं होता। वह जन्म- जन्मान्तरों में मित्र की तरह मनुष्य के साथ बनी रहती है। प्रथम तो विद्या का फल आर्थिक सफलता के रूप में देखना ही नहीं चाहिये। फिर भी यदि वह अर्थकारी न भी हो पाती है तथापि उसके ज्ञान का जो एक अनिवर्चनीय एवं अहेतुक सन्तोष, शान्ति अथवा आनन्द है, उसको तो कोई परिस्थति नहीं छीन सकती।

विद्या के सर्वथा अभाव में सम्पन्नता भी नहीं और यदि वह उत्तराधिकार, संयोग अथवा किन्हीं उचित- अनुचित उपायों से सुलभ भी हो गई, तब भी उसका कोई मूल्य महत्व मनुष्यता के रूप में नही माना जा सकता। सच्चा मनुष्य वही है जिसके पास ज्ञान की विशेषता है, विद्या का भी धन है। विद्या की कृपा से मनुष्य का जीवन सार्थक बनता है। विद्या के कारण ही मनुष्य सभ्य समाज में आदर का अधिकारी बनता है। धन के आधार पर विद्या रहित व्यक्ति का आदर, आडम्बर तथा प्रदर्शन मात्र होता है। उसमें कोई सत्यता अथवा हार्दिकता नहीं होती है। वह लोग उसे ठगने अपना उल्लू सीधा करने के लिये ही ऊपरी मन से आदर दिया करते हैं। सफलता, समाज, परिवार, आनन्द, उल्लास, आदर सम्मान आदि के जो भी भौतिक सुख हैं, विद्यावान व्यक्ति उन्हें यथार्थ रूप में भोगता ही है, साथ ही वह उसी आधार पर आगे बढ़ता हुआ आत्म प्रकाश अथवा मोक्ष पद तक पा लेता है। विद्या ही सारे सुखों की जड़ और अविद्या ही सारे दु:खों का हेतु माना गया है।

धन, वैभव, जमीन- जायदाद, शक्ति, सुन्दरता आदि के आधार पर किसी की उन्नति, विकास अथवा व्यक्तित्व को परखने की कसौटी मूर्ख जनों की होती है। सज्जन एवं सत्पुरुष की कसौटी तो विद्या, बुद्धि, सद्ज्ञान, सदाचार, योग्यता एवं प्रतिभा ही रहा करती हैं। जिनने विद्वानों तथा बुद्धिमानों से सम्मान पाया, श्रेष्ठता तथा सफलता का प्रमाण पत्र प्राप्त किया हैं, वही वास्तव में सफल एवं श्रेष्ठ हैं अन्यथा व्यक्ति तो सफलता एवं श्रेष्ठता का झूठा सन्तोष कर आत्म- प्रवंचना किया करते हैं।

अध्येता अपनी आत्मा का सफल चिकित्सक माना गया हैं। अध्ययन द्वारा उपार्जित ज्ञान से वह शीघ्र ही अपनी आत्मा की व्याधियों को पहचान लेता है और उसी आधार पर उसका उपचार भी करता है। अविद्या से ग्रस्त मनुष्य की आत्मा प्रकाश से वंचित रह जाती है। आत्मिक प्रगति के अभाव में मनुष्य भी अन्य जीव- जन्तुओं की तरह ही हीन अवस्था में पड़ा रहता है और उन्हीं की तरह प्राकृतिक प्रेरणा से अपना जीवन यापन किया करता है। मनुष्य का वास्तविक लक्ष्य, अधोगामी परिस्थितियों से उठकर ऊर्ध्व दिशा की ओर अभियान करना है। धर्म का सच्चा रूप पहचान कर उन पारमार्थिक कर्त्तव्यों को पूरा करना है, जिससे उसकी आत्मा दिनों दिन मुक्ति की ओर ही अग्रसर होती रहे। नर तन पाकर भी जो मुक्ति की ओर अग्रसर होने से रह गया, वह मानों सब कुछ होते हुए असफल एवं अभाग्यवान ही है। यह आत्मिक प्रगति विद्या के अभाव में कदापि सम्भव नहीं हो सकती। उन्नति एवं अवनति के कर्मों का निर्णय विवेक के आधार पर किया जा सकता है, उसका विकास विद्या के बिना हो ही नहीं सकता।

न केवल आध्यात्मिक प्रगति ही वरन् भौतिक प्रगति भी विद्या के बिना नहीं हो सकती। मानसिक, सामाजिक, आर्थिक तथा वैयक्तिक हर प्रकार की उन्नति का मूल विद्या ही है। विद्या से मनुष्य का मानसिक संस्थान सन्तुलित एवं सुव्यवस्थित हो जाता है, जिससे वह अच्छाई- बुराई, हानि- लाभ, उत्थान- पतन आदि की परिस्थिति पर ठीक- ठीक विचार कर सकता है और उनको समुचित दिशा प्रदान कर सकता है।

समाज में जिधर देखिये, विद्यावान को ही हाथों हाथ लिया जाता है। अशिक्षित तथा अज्ञानी की कहीं पूछ नहीं होती। लोग उसका मन ही मन तिरस्कार किया करते है और सम्पर्क में आने पर मूर्ख, गँवार अथवा अज्ञानी समझकर टालने, हटाने का उपक्रम किया करते हैं। परिवारों में भी प्राय: उन्हीं सदस्यों का प्रभाव रहता है और उन्हीं की बात ज्यादा मानी जाती है, जो शिक्षित तथा विद्यावान होते हैं। अशिक्षित तथा अज्ञानी सदस्यों के प्रति बहुधा उपेक्षा का ही दृष्टिकोण रहा करता है। बच्चों में भी स्नेह तथा प्यार का अनुपात उसी मात्रा में रहा करता है, जिस मात्रा में वे शिक्षा की ओर अधिकाधिक अग्रसर रहा करते हैं। शिक्षित सन्तान पिता के गौरव तथा सन्तोष का कारण बनती हैं।

जिस प्रकार नेत्रहीन के लिये सारा संसार अन्धकार पूर्ण रहता है, सुन्दर दृश्यों तथा रंगों के आनन्द से वह वञ्चित रह जाता है। उसी प्रकार ज्ञानान्य के लिये भी संसार का मधुर रहस्य, ज्ञान- विज्ञान के चमत्कार, साहित्य तथा कलाओं का आनन्द युग- युग संग्रहीत ज्ञान का रसास्वादन आदि सारे सुख निरर्थक ही रहते है। वह इन स्वर्गीय सम्पदाओं के बीच भी एक पशु की तरह ही केवल उदर पालन की क्रिया में ही बहुमूल्य मानव जीवन को नष्ट कर देता हैं। संसार से लेकर आत्मा तक के जितने सुख माने गये हैं, विद्या के अभाव में, अज्ञानी पुरुष उन सबसे सर्वथा वंचित ही रह जाता है।

ज्ञान से दृष्टिकोण परिमार्जित होता हैं, विचार शक्ति बढ़ती है और युक्तायुक्त निर्णय की क्षमता प्राप्त होती है। क्या पाप है, क्या पाप नहीं हैं, इसका ज्ञान जीवन एवं कर्म दर्शन सम्बन्धी पुस्तकों से ही प्राप्त हो सकता है और वे सद्ग्रन्थ है, वेद शास्त्र, गीता, उपनिषद्, रामायण आदि आध्यात्मिक एवं धार्मिक पुस्तकें। इन आर्ष ग्रन्थों के अतिरिक्त विद्वानों द्वारा लिखा हुआ एक से एक बढ़कर नैतिक साहित्य भरा पड़ा है। योग्यता तथा युग के अनुसार उसका लाभ भी उठाया जा सकता है।

ज्ञान- गुण प्राप्त करने के लिये जिस वस्तु की प्रथम एवं प्रमुख आवश्यकता है, वह है शिक्षा। शिक्षा ज्ञान की आधारभूमि है। जो अशिक्षित है, पढ़ा लिखा नहीं है, वह किसी भी जीवन अथवा कर्म- दर्शन सम्बन्धी पुस्तक का अध्ययन किस प्रकार कर सकता है? किस प्रकार उसकी शिक्षाओं को समझ सकता है? और किस प्रकार हृदयंगम कर सकता है? उसके लिये तो ज्ञान सेे भरी पुस्तक भी रद्दी कागज से अधिक कोई मूल्य न रखेगी।

अनेक लोग कबीर, दादू, नानक, तुकाराम, रैदास, नरसी यहाँ तक कि सुकरात, मुहम्मद और ईसा जैसे महात्माओं एवं महापुरुषों का उदाहरण देकर कह सकते हैं कि यह लोग शिक्षित न होने पर भी पूर्ण ज्ञानवान तथा आध्यात्मिक सत्पुरुष थे, इनका सम्पूर्ण जीवन आजीवन निष्पाप रहा और निश्चय ही इन्होंने आत्मा को बन्धन मुक्त कर मोक्ष पद पाया है। इससे सिद्ध होता है कि निष्पाप जीवन की सिद्धि के लिए शिक्षा अनिवार्य नहीं है। ऐसा कहने वाले यह भूल जाते हैं कि अनायास ज्ञान प्राप्त कर लेने वाले महापुरुष अपने पूर्व जन्म के संस्कार साथ लेकर आते हैं।

एक ही शरीर में जीवन की इतिश्री नहीं हो जाती। इसका क्रम जन्म- जन्मान्तरों तक चला है और तब तक चलता रहता है, जब तक जीवात्मा पूर्ण निष्पाप होकर मुक्त नहीं हो जाती। अनायास ज्ञानज्ञों का उदाहरण देने वालों को विश्वास रखना चाहिये कि उक्त देवात्माओं ने अपने पूर्व जन्मों में ज्ञान पाने के लिये अनथक पुरुषार्थ किया होता है। उसके इतने अनुपम एवं उर्वर बीज बोये होते हैं। अपने मन, मस्तिष्क एवं आत्मा को इतना उज्ज्वल बनाया होता है कि किसी समय भी पुनर्जीवन में आँख खोलते ही उनका संस्कार रूप में साथ आया हुआ ज्ञान खुल, खिलकर उनके आदर्श व्यक्तित्व में प्रतिबिम्बित एवं मुखरित हो उठता है। ज्ञान प्राप्ति का प्रारम्भिक चरण शिक्षा के अभाव में कोई भी व्यक्ति ज्ञानवान नहीं बन सकता।

जीवन पद्धति को आध्यात्मिक मोड़ दिये बिना आत्मा के विकास की सम्भावनायें उज्ज्वल नहीं हो सकती। जीवन में आध्यात्मिक गुणों को उदारता, त्याग, सदिच्छा, सहानुभूति, न्यायपरता, दयाशीलता आदि को जागृत करने का काम शिक्षा द्वारा ही पूरा किया जा सकता है। शिक्षा मनुष्य को ज्ञानवान ही नही, शीलवान बनाकर निरामय मानवता के अलंकरणों द्वारा उसके चरित्र का शृंगार कर देती हैं। शिक्षा सम्पन्न व्यक्ति ही वह विवेक शिल्प सिद्ध कर सकता है, जिसके द्वारा गुण, कर्म एवं स्वभाव को वांछित रूप में गढ़ सकना सम्भव हो सकता है। अशिक्षित व्यक्ति का सम्पूर्ण जीवन क्या बाह्य और क्या आन्तरिक विकारों एवं विकृतियों से भरा हुआ ऊबड़- खाबड़ बना रहता है। अशिक्षित व्यक्ति न तो जीवन की साज सँभाल कर सकता है और न उसका उद्देश्य ही समझ सकता हैं।

यदि आपको जीवन में सुख- सम्मान पाना है, अपनी आत्मा को उन्नत बनाकर परमात्मा तक पहुँचने की जिज्ञासा है, तो आज से ही विद्या रूपी धन संचय करने में लग जाइये। यदि आपकी सांसारिक व्यस्तता आपके लिये अधिक समय नहीं छोड़ती तो भी थोड़ा ज्ञान संचय ही करते जाइये। बूँद- बूँद करके घट भर जाता है। जीवन के जिस क्षेत्र में आपको उन्नति करने की अभिलाषा है, आप जिस प्रकार की सफलता प्राप्त करना चाहते हैं। उसी विषय एवं क्षेत्र के अध्ययन में निरत हो जाइये। यदि आपका लक्ष्य सत्यम् शिवम् सुन्दरम् है तो आप उसी से उन्नति करते हुए अन्तत: अपने परम लक्ष्य आत्म साक्षात्कार तक पहुँच ही जायेंगे। मनुष्य ज्यों- ज्यों अपना विकास करता जाता है, ज्ञान बढ़ता जाता है त्यों- त्यों उसकी ज्ञान पिपासा बढ़ती जाती है और वह अध्ययनशील बनता जाता है। संसार का कोई भी विषय प्रथक नही है। वे सब ही ज्ञान सागर की बूँदें है, जो अन्तत: एक ही चिरशान्ति के लक्ष्य पर पहुँचा देती हैं।







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