उदारशीलता विवेकसम्मत हो

जो समर्थ हैं उन्हें सहायता देना उचित है ताकि साधनों के अभाव में जो प्रगति रुकी पड़ी थी उसका पथ प्रशस्त हो सके। समुन्नत व्यक्तियों का कर्तव्य है कि वे दूसरे पिछड़े हुए व्यक्तियों को ऊँचा उठाने के लिए साधन उपलब्ध करें और वह प्रकाश भरी प्रेरणा प्रदान करें, जिससे निराशा और अवसाद की मनःस्थिति को साहस एवं उत्साह का जन जीवन मिल सके। ऐसी सहायता करना किसी समर्थ व्यक्ति की उदारता का चिन्ह है, दूसरे शब्दों में इसे महानता की प्रतीति भी कह सकते हैं। यह उदार सहकारिता समाज को स्वस्थ परम्परा प्रस्तुत करती है और हर सामर्थ्यवान को यह उद्बोधन करती है कि सफलताओं का लाभ अपने तक ही सीमित न रखा जाय वरन् उससे उन्हें भी लाभान्वित होने दिया जाय जो उचित मार्ग दर्शन एवं सहकार के अभाव में गई गुजरी स्थिति में पड़े हुए दिन काट रहे हैं। यह उदारता की सद्भावना का उज्ज्वल पक्ष हुआ।

दान वृत्ति का एक अँधेरा पक्ष भी है। वह यह कि कोई व्यक्ति अपने पैरों पर खड़ा होने की स्थिति में रहने पर भी श्रम और मनोयोग का उपयोग करने में आलस्य, प्रमाद बरते, काम से जी चुराये, मेहनत से कतराये और दूसरों के कन्धों पर लढ़कर सुविधाएँ प्राप्त करते रहने का प्रयास करे। यह बुरी बात है। इसे भिक्षावृत्ति के हेय नाम से पुकारा जाता है। किसी समर्थ व्यक्ति के लिए इससे अधिक अपमान की बात दूसरी नहीं हो सकती कि वह स्वयं निर्वाह कर सकने की क्षमता सम्पन्न होते हुए भी गुजारे के लिए दूसरों के सामने हाथ पसारे, ऐसा परावलम्बन उन्हें ही स्वीकार हो सकता है जो आत्म सम्मान खो चुके हों।

अहर्निशि परमार्थ प्रयोजनों में संलग्न व्यक्तियों की सम्मानपूर्वक निर्वाह व्यवस्था करना विज्ञ समाज का कर्तव्य है सो किया भी जाता है। लोकसेवी साधु ब्राह्मणों को सम्मानपूर्वक ब्रह्मभोज एवं दान दक्षिण की व्यवस्था जनता चिरकाल से करती रही है, किन्तु वह लाभ जब वैसा ही वेष बनाकर व्यक्तिवादी जीवन जीने वाले मुफ्तखोर लोग प्राप्त करने के लिए आगे बढ़ते हैं तो इससे भ्रष्टाचार पनपता है। जो बिना उचित बदला चुकाये प्राप्त किया गया है वह स्पष्टतः अनधिकार है, अग्राह्य है। मुफ्तखोरी को चारित्रिक भ्रष्टता का पापाचार माना जाना चाहिए। भले ही उसे अपनाने वाले किसी भी वेष या वंश के लोग क्यों न हों।

मुफ्तखोरी को प्रोत्साहन देना उस उद्देश्य से सर्वथा विपरीत है जो उदार दानवृत्ति से साथ जुड़ा हुआ है। सहायता इसलिए दी जानी चाहिए कि प्रगति पथ पर आगे बढ़ने के लिए उन साधनों की उपलब्धि हो सके, जिसके बिना पिछड़े हुए व्यक्ति को विकास की दिशा मे कदम उठा सकना शक्य नहीं हो रहा था, दान का उपयोग बीज बोने की तरह किया जाना चाहिए जिसका प्रतिफल बहुमुखी प्रगति एवं समृद्धि के रुप में देख जा सके।

जो सर्वथा अपंग हैं जिनकी समस्त उपार्जन क्षमताएँ समाप्त हो गई, उन्हें जीवित रहने के लिए समाज की उदारता पर निर्भर रहने का अधिकार है। उस असमर्थ व्यक्ति को करुणापूर्वक निर्वाह मिलना चाहिए। किन्तु इससे आगे बढ़ने वाली भिक्षावृत्ति को सर्वथा निरुत्साहित किया जाना चाहिए। प्रकृति ने जिन्हें बाधित बनाया, मनुष्य का कर्तव्य है कि उस बाधा पर विजय प्राप्त करने के लिए उन्हें पुरुषार्थ का अवसर दे। अपंगों को, अविकसितों को, पिछड़े हुओं को ऐसा सहकार मिलना चाहिए, जिसके आधार पर वे काम करके उपार्जन की क्षमता एवं सुविधा प्राप्त कर सकें। इसके लिए श्रम संस्थाएँ एवं उद्योग ग्रहों की स्थापना होनी चाहिए।

सस्ती भावुकता के साथ प्रदर्शित की गई दानशीलता कई बार पुण्य के बदले भयंकर पाप जैसा पुष्परिणाम उत्पन्न करती है। अपने को लोगों की दृष्टि में पुण्यात्मा प्रदर्शित करने के लिए कितने ही दानशीलता के पाखण्ड रचते हुए अनेक व्यक्ति देखे जाते हैं। दंभ, प्रदर्शन और अहंकार की पूर्ति के सस्ती विज्ञापन बाजी जैसी भ्रष्ट दानशीलता का ही आज बाहुल्य है। धर्म के नाम पर ऐसी ही विडम्बनाएँ चलती रहती हैं। इसका परिणाम एक ही होता है अकर्मण्यता और परावलम्बन का अभिवर्धन। प्रकारान्तर से यह प्रवृत्ति समाज और व्यक्ति के लिए अभिशाप ही सिद्ध होती है। भिक्षुक ने निर्वाह के लिए कुछ प्राप्त करके जो लाभ उठाया उसकी तुलना में आत्म गौरव खोने तथा परोपजीवी निष्क्रियता जैसी दुष्प्रवृत्तियाँ ओढ़ लेने की हानि भी तो उठानी पड़ी। वस्तुतः यह हानि इतनी बड़ी है जिसकी तुलना में भिक्षा से मिला लाभ नगण्य ही समझा जाना चाहिए।

वातावरण ऐसा बनाया जाना चाहिए जिसमें भिक्षावृत्ति को प्रोत्साहन न मिले। आज के भिक्षुकों में अधिकाँश ऐसे है, जो यदि चाहें तो प्रसन्नता पूर्वक उपार्जन कर सकते और स्वावलम्बी सम्मानित जीवन जी सकते हैं। उन्हें भिक्षा मांगने की आदत इसलिए हो जाती है कि उथली भावुकता, दम्भी अहंकारिता और धर्मध्वजी बनने की प्रदर्शन प्रियता कहीं न कहीं अपना पैसा बिखरेगी ही। उसे कोई तो लेगा ही। अतः आलसी उस दान वृत्ति के लिए बढ़कर आगे आ जाते हैं और हाथ पसार कर उन धर्म दम्भियों की मनोकामनापूर्ण करते हैं जो कुछ ही पैसे देकर सस्ती स्वर्ग की टिकट खरीदने के लिए आतुर फिरते रहते हैं। वे यह भूल जाते है कि जिन्हें दान दिया जा रहा है उन्हें मुफ्तखोरी की बुरी आदत लगाने और स्वाभिमान बेचकर आत्मिक पतन के गर्त में धकेलने का कितना बड़ा उपहास उनके साथ किया जा रहा है। उथली दानशीलता यदि दूरदर्शी विवेक में रहती और इन समर्थ भिक्षुकों को निराश रहना पड़ता तो सम्भवतः इनमें तीन चौथाई लोग अपने स्वावलम्बी उपार्जन की समस्या हल कर चुके होते। ऐसा नहीं बन पड़ा इसका एक कारण जहाँ भिक्षुकों की आत्म हीनता को कारण माना जायेगा वहाँ इन सस्ते दानवीरों को भी कम दोषी नहीं ठहराया जा सकता।

अहंकारवश या उदारता का बड़प्पन सिद्ध करने वालों की तरह बिना सोचे समझे दान देने वालों का वर्ग अन्ध श्रद्धालु कहा जा सकता है। दान पुण्य करना धर्म है, दरवाजे आये भिखारी को खाली हाथ लौटने देना पाप है, आदि की मान्यता रखने वाला कम पढ़ा लिखा और अशिक्षित आदमी धर्म मानकर भी देश काल पात्र का विचार किये बिना दानी बनने लगता है। भगवद्गीता में प्रत्युपकार की भावना से रहित होने के साथ देश काल पात्र का विचार कर दान देने की बात कही गयी है। किस समय में कैसे व्यक्ति को, किस स्थान पर दान देना चाहिए, दान को धर्म स्तर का बनाये रखने के लिए यह जानना भी आवश्यक है कि यदि कुपात्र को हर कहीं और हर कभी देता रहा जाय तो दाता का गौरव और धन तो घटता ही है, जिसे दिया जाता है उसका भी पतन होता है। जैसे कोई व्यक्ति मदिरालय के सामने खड़ा है, भिक्षा पात्र को इसलिए फैलाये खड़ा है कि इसमें कुछ दिया जाय और जो पैसा मिले उससे मद्यपान का व्यसन पूरा हो। अहंकार को तुष्ट करने अथवा अन्ध श्रद्धा से प्रेरित होकर ऐसी स्थिति में देने वाले का दान कभी सत्प्रयोजनों में नहीं लगता। समाज के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करना ही यदि दान का अर्थ है तो यह कैसी कृतज्ञता जो समाज के दूसरे सदस्य को पतन की ओर धकेल दे।

भीख माँगने वाला दी गयी भीख का उपयोग किन कार्यों में करता है, यह जाने बिना केवल अहंकार की पूर्ति के लिए ही कुछ दिया जाता है तो वह तामसी दान या निकृष्ट स्तर का कृत्य सिद्ध होता है। असाहयवस्था में सचमुच इसी आधार पर अपना निर्वाह करने के लिए विवश लोगों को कुछ दिया जाय, वहाँ तक तो बात समझ में आती है। लेकिन आज कल भिक्षा का एक व्यवसाय सा ही चल पड़ा है और उसमें पात्र को पहचान पाना भी एक कठिन समस्या है। मानवी स्वाभिमान की प्रेरणा यह है कि हर व्यक्ति अपनी जीविका स्वयं कमाये। जो विवश हैं उनकी बात को जाने दें, तो भी भिक्षा को निर्वाह का एक आसान उद्योग मानकर चलने वालों की संख्या बहुत बड़ी है।

भिक्षाजीवियों में सर्वप्रथम तो साधु बाबा आते हैं। जिनके रूप में आबादी का एक बड़ा हिस्सा भिक्षाजीवी है सब के सब कोई उपयोगी श्रम किये बिना सर्वसाधारण की अन्ध श्रद्धा का लाभ उठा कर ही शक्कर खाते हैं। समाज का यदि कुछ काम कर रहा होता तो यह वर्ग अपना सारा समय और श्रम जन हित में लगाता। यदि सभी साधु बाबा ऐसा करते तो उनके निर्वाह का दायित्व समाज द्वारा उठाना भी उचित था, पर कहीं मन्दिर में तो कहीं मठ में, कहीं आश्रम में तो कहीं अखाड़े में अपने चेले और भक्तों की संख्या बढ़ाने के लिए भी इतनी आतुरता इसलिए है कि अधिक मौज मजे का जीवन व्यतीत किया जा सके।

उनहत्तर करोड़ की आबादी वाले अपने इस देश में १५० लाख भिक्षुक हैं। इतनी बड़ी जनसंख्या यदि किसी उत्पादक कार्य में लगे तो अपने देश का नया कायाकल्प हो सकता है। उत्पादन बढ़ने से लेकर कृषि के उन्नत होने की सम्भावनायें बन सकती हैं। कुछेक लोग सचमुच विकलांग हो सकते हैं जिनका जीवन समाज के अन्य सदस्यों की उदारता पर निर्भर है। पर वैसे लोगों की संख्या नगण्य है। कोई उस स्थिति में होता भी है तो स्वाभिमान के विरुद्ध मानकर भिक्षावृत्ति को अपनाने के लिए तुरन्त निश्चय नहीं कर लेता, इस आधार पर करीब- करीब दिखाई देने वाले सभी भिक्षुकों को भिक्षा व्यवसायी कहा जा सकता है।

महानगरों में तो कई ऐसे गिरोह भी पकड़े गये हैं जिनका काम केवल बच्चे उड़ाना और उन्हें लूले लँगड़े बना कर उनसे भिक्षा मंगवाना है। कितने ही अपराधी और असामाजिक व्यक्ति भी अपने आपको छुपाने के लिए इस भीड़ का सहारा लेते हैं। इस प्रकार भिक्षा व्यवसाय कोई साधारण समस्या न रह कर विकट प्र्श्न बन गया है। इस व्यवसाय में लगे व्यक्तियों से कुछ कहने की उतनी गुंजायश नहीं है, जितनी कि उन्हें प्रोत्साहन देने वालों से। चोर, डाकू तो अपने कामों में लगे ही रहते हैं, जन स्तर पर उन्हें परास्त करने, सीधी राह पर लाने की व्यवस्था भी बनायी जा सकती है। जो लोग अवाँछनीय क्रिया कलापों द्वारा फायदा उठाने की प्रवृत्ति अपना चुके होते हैं और उन्हें इस रास्ते पर जितना निर्वाध लाभ दीखता है, यह वृत्ति इतनी गहरी जड़ें जमा चुकी होती है कि उन परिस्थितियों में समझाने बुझाने से ही सही रास्ते पर आ जाने की आशा पूरी होना मुश्किल है। उससे अधिक आसान यह है कि उन द्वारों को ही बन्द किया जाय जिनसे उन्हें प्रोत्साहन मिलता है। उन रास्तों की नाकेबन्दी करना अधिक सहज है, जिन पर वे बेधड़क चले जाते हैं। और भिक्षा व्यवसाय को तो लोग इतना अधिक अवाँछनीय समझते भी नहीं हैं, फिर भी इतनी विराट् जनशक्ति का निष्रिे य, लुंज- पुंज और निर्जीव ही बने रहना वस्तुतः एक विकट समस्या है।

कहा और समझाया जाना उन्हीं लोगों को चाहिए जो दान और पुण्यात्मा बनने के फेर में भिखारियों की संख्या बढ़ाते रहते हैं। इस व्यवसाय में लगे लोगों को जब तक अपना धन्धा लाभदायक और आसान प्रतीत होता रहेगा तब तक उनकी संख्या में कमी नहीं आ सकती। दो चार लोग मान भी जायें तो उससे क्या होता है? इस धन्धे में प्रवेश करने वाले नये लोग संख्या को पूरा कर देंगे। अतः दानी और उदार बनने से पहले यह विचार करना चाहिए कि जो हम दे रहे है वह सार्थक हो रहा है क्या? गम्भीरता पूर्वक विचार के बाद अधिक सम्भावना इसी निष्कर्ष पर पहुँचने की होगी कि निरर्थक ही नहीं अनर्थक भी जा रहा है।

अतः बेहतर यह है कि भिक्षा देना ही बन्द कर दिया जाय। सचमुच जो लोग सहायवस्था में हैं उन्हें भी सहायता व्यक्ति माध्यम से नहीं समाज के माध्यम से मिले। गाँव में जितने घर अपने द्वार आये भिखारियों को भिक्षा देते हैं उसे तत्काल रोक दें और किसी मन्दिर में या किसी मस्जिद में ऐसी व्यवस्था बना दे कि अपात्र या कुपात्र व्यक्ति उससे जरा भी अनुचित लाभ न उठा सके और सही अर्थों में जरूरतमन्दों को उनका उचित भाग मिलता रहे।

दान का श्रेष्ठतम स्वरूप तो यह है कि स्थूल सहायता की अपेक्षा व्यक्ति को अपने पैरों के बल कठिनाइयों को पार करने का रास्ता दिखाया जाय। इसे सत्परामर्श या ज्ञानदान भी कहा जा सकता है। जहाँ आवश्यकता हो वहाँ स्थूल सहायता का स्वरूप समाज के प्रति कृतज्ञता ज्ञापन की मर्यादाओं को ध्यान में रखते हुए ही बनाया जाय। दान को सही अर्थों में ग्रहण करने, समझने की आवश्यकता है। यह तो धर्म का एक अंग है पर अति और अन्ध श्रद्धा मिल कर उसका स्वरूप विकृत कर देते हैं। आवश्यकता है उसे परिष्कृत करने की।

पूजा, उपासना करते हुए स्वर्ग मुक्ति का लाभ उठाने की प्रक्रिया विशुद्ध व्यक्तिवादी है। अपने लिए लाभ उठाने में निरत लोग अपने निर्वाह के लिए दूसरों पर निर्भर करे, यह बड़ी अजीब बात है। जब किसान, दुकानदार, शिल्पी अपने उपार्जन भर निर्वाह करते है तो कोई भजनानन्दी ही भिक्षा पर निर्भर क्यों रहे? प्राचीन काल के साधु, ब्राह्मणों की परम्परा अलग थी वे भजन भी करते थे, पर साथ ही लोक मंगल के लिए इतना अथक श्रम करते थे जिसका मूल्य उन्हें दी गई भिक्षा से हजारों गुना अधिक होता था, पर आज तो वैसा कुछ नहीं होता। ऐसी दशा में केवल वेष या वंश के आधार पर भिक्षा मांगने या देने की बात किसी भी दृष्टि से औचित्यपूर्ण नहीं रह जाती।

उदारता की सत्प्रवृत्ति को जीवित रहना चाहिए। सेवा, सहकार और दान परम्परा को पूरा प्रोत्साहन मिलना चाहिए ताकि समर्थता को गौरवान्वित होने का अवसर मिले, पिछड़े लोग ऊँचे उठें और मानवीय सहयोग की पुण्य परम्परा का अधिकाधिक पोषण सम्भव हो सके। समाज से पिछड़ापन दूर करने के लिए भौतिक एवं आत्मिक प्रगति के विविध क्रिया कलापों का अभिवर्धन होना चाहिए और उसमें धनी एवं निर्धन हर व्यक्ति को सहयोग देना चाहिए। यह सब विवेकशीलता और दूरदर्शिता के साथ होना चाहिए। दान का परिणाम मानवी सद्गुणों और सत्प्रवृत्तियों के अभिवर्धन के रुप में आना चाहिए। असमर्थता को सकरुण सहयोग मिलना चाहिए। तभी यह कहा जा सकेगा कि हम अविवेकी भावुकता से ऊपर उठकर उदार दानशीलता का महत्व समझ सकने योग्य बन सके।

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