औषधियों को वाष्पीभूत बनाकर उन्हें अधिक सूक्ष्म एवं प्रभावशाली बनाने की प्रक्रिया आयुर्वेद के विज्ञानी चिरकाल से अपनाते रहे हैं। उसके द्वारा अपेक्षाकृत सफलता भी मिलती रही है। पाचन−तन्त्र के माध्यम से अथवा रक्त प्रवाह में सम्मिलित करके औषधि उपचार की पुरातन परिपाटी में जब वाष्पीकरण की नई पद्धति का समावेश हुआ तो उसके आश्चर्यजनक परिणाम निकले।
यज्ञोपचार इसी स्तर की स्वास्थ्य संरक्षक प्रक्रिया है, जिससे आत्मिक प्रगति के उच्चस्तरीय सत्परिणामों के अतिरिक्त प्रत्यक्ष एवं तात्कालिक लाभ रोग निवारण का भी मिलता है। इसमें कुछ विशेष नहीं करना पड़ता। रोग के अनुरूप औषधियों का हवन करने और उस उत्पादित ऊर्जा के निकट रोगी को बिठाने से काम चल जाता है। यज्ञ में न्यूनतम वस्त्र धारण करके बैठने का विधान है। आमतौर से कटिबन्ध के रूप में धोती और वक्षस्थल ढका रहने के लिए दुपट्टा धारण करना ही पर्याप्त समझा जाता है। भारी मोटे कसे हुए वस्त्र पहनकर यज्ञ कर्म में बैठने का निषेध है। कारण कि यज्ञीय ऊर्जा द्वारा शरीर के अवयवों को अधिक लाभान्वित होने का अवसर तभी मिल सकता है, जब वे खुले रहें। वस्त्र धारण करना ही पड़े तो वह इतना झीन एवं हलका रहे कि उपयोगी उपचार का लाभ लेने में त्वचा छिद्रों को किसी व्यवधान का सामना न करना पड़े।
यज्ञ चिकित्सा में भी रोग निदान की वैसी ही आवश्यकता पड़ती है जैसी कि अन्य पद्धतियों में चिकित्सक को रोगों के कारण जानने के लिए निदान करना पड़ता है। शरीर में कुछ उपयोगी वस्तुएँ कम पड़ जाने एवं कुछ अनुपयोगी वस्तुयें बढ़ जाने से रोग उत्पन्न होते हैं। इस कमी को पूरा करने एवं विष संचय को बहिष्कृत करने के लिए सभी चिकित्सक अपने- अपने ढंग से उपाय करते हैं। यही यज्ञ चिकित्सा में भी करना पड़ता है। देखना होता है कि शरीर की रोग निरोधक शक्ति को बढ़ाने के लिए समर्थता देने वाली क्या पुष्टाई आवश्यक है और उसे कितनी मात्रा मे किन पदार्थों के द्वारा शरीर में पहुँचाया जाय। देखना यह भी होता है कि किस अवयव में किस स्तर का, कितना विष द्रव्य जमा हो गया है, उसे बाहर निकालने के लिए किस प्रकार की ऊर्जा उत्पन्न की जाय और उसे उपयुक्त स्थान तक पहुँचाने के लिए किस उपाय का अवलम्बन किया जाय।
हवन सामग्री किस रोगी के लिए किस स्तर की प्रयुक्त की जाय, इसमें भिन्नता रखनी पड़ती है। सामान्य यज्ञ सबके लिए सामान्य रूप से उपयोगी है। माता के दूध की तरह, बालक की तरह उसे हर याजक समान रूप से उपयोग कर सकता है। उससे किसी प्रकार की हानि की सम्भावना नहीं है। हर स्तर की दुर्बलता एवं रुग्णता में उससे लाभ ही होता है। यह सामान्य सर्वजनीन, हर परिस्थिति के अनुकूल उपचार हुआ। यहाँ तक यज्ञ विधान के साथ जुड़ा हुआ सामान्य स्वास्थ्य संरक्षण विज्ञान ही काम करता है। इससे आगे का कदम सामयिक एवं विशिष्ट है। उसे रोगी की स्थिति को देखने हुए उठाना पड़ता है। हर रोगी को उसकी स्थिति के अनुरूप दवा दी जाती है, उसी प्रकार रोग विशेष को ध्यान में रखते हुए, रोगी की स्थिति का गहन पर्यवेक्षण करते हुए यह निर्णय करना होता है कि किस स्तर की ऊर्जा उत्पन्न की जाय और उसके उत्पादन के लिए किन पदार्थों का यजन किया जाय?
इस दृष्टि से हर विशिष्ट रोगी के लिए विशिष्ट हविष्य का निर्धारण करना होता है। इसमें दोनों ही स्तर की हवन सामग्रियों का सन्तुलन बिठाया जाता है। बलवर्धक और रोग निवारक दोनों ही तत्वों को ध्यान में रखना होता है। कुनैन का सेवन कराते समय रोगी को दूध आदि की मात्रा बढ़ा देने के लिए कहा जाता है, ताकि उसके कारण उत्पन्न होने वाली गर्मी को शान्त रखने का उद्देश्य पूरा हो सके। दुर्बल रोगियों को फलों का रस, सुपाच्य पोषण से युक्त आहार का प्रबन्ध किया जाता है। दुर्बलता बढ़ने न देना, सशक्तता बनाये रखना भी एक महत्वपूर्ण काम है। विजातीय द्रव्य के निवारण में मारक तत्वों का उपयोग करने की तरह ही इस पोषण की भी आवश्यकता पड़ती है। यज्ञ चिकित्सा के अनुसार रोगी की इन दोनों आवश्यकताओं को पूरा कर सकने योग्य सामग्री का निर्धारण करना होता है। इसके लिए पदार्थों की रासायनिक संरचना का ज्ञान आवश्यक है। उसके दूसरे तत्वों के साथ सम्मिश्रण के प्रभाव का भी ज्ञान होना चाहिए।
हविष्य चार भागों में विभक्त है (१) औषधियों का सम्मिश्रण (२) घृत (३) समिधायें (४) पूर्णाहुति में होमे जाने वाले विशिष्ट पदार्थ। इन चारों के पृथक- पृथक गुण एवं प्रभाव हैं। आमतौर से गौ घृत प्रयुक्त होता है। पर अन्य पशुओं के घृतों में भी अपनी विशेषता है और रोगी की स्थिति को देखते हुए, घृतों में पाये जाने वाले रासायनिक पदार्थों की स्थिति का तालमेल बिठाते हुए यह निर्धारण करना होता है कि अमुक रोग में किस पशु का घृत लिया जाय।
हविष्य में रोग विशेष के लिए प्रयुक्त होने वाली औषधियों का आधार प्रायः वही रहता है जो रासायनिक विश्लेषण के आधार पर चिकित्सा विज्ञानी चिरकाल से करते आये हैं। इस निर्धारण में नये संशोधनों का भी ध्यान रखना पड़ता है। जिस प्रकार संविधान, कानून आदि में सामयिक आवश्यकता को ध्यान में रखते हुए परिवर्तन किये जाते हैं, प्रथा परम्पराओं में हेर- फेर होते हैं, उसी प्रकार प्रयोग के आधार पर किन्हीं औषधियों के प्रभाव के सम्बन्ध में भी यह उखाड़- पछाड़ होती रहती कि पूर्व निर्धारणों में हेर- फेर तो नहीं करना है।
समिधायें भी प्रकारान्तर में हविष्य ही हैं। लकड़ी का जलना भी औषधि यजन की तरह ही प्रभवोत्पादक होता है। लकड़ी में भी न्यूनाधिक मात्रा में उपयोगी- अनुपयोगी पदार्थ रहते है। हविष्य में मात्र वनस्पतियों की पत्तियाँ, फूल, फल ही नहीं होते, वरन् वृक्षों की लकड़ियाँ भी कूट- पीसकर मिलाई जाती हैं। चंदन, देवदार, अगर तगर आदि की लकड़ियों का चूरा भी हवन सामग्री में मिला है। इनका प्रभाव भी अन्य औषधियों के समतुल्य ही होता है। अस्तु समिधाओं में कुछ नियत वृक्षों का काष्ठ उपयोग करने का ही विधान है।
पूर्णाहुति में सामान्य हवन सामग्री का नहीं, वरन् किन्हीं विशिष्ट वस्तुओं का प्रयोग करना पड़ता हैं। पूर्णाहुति तीन भागों में विभक्त है- (१) स्विष्टकृत होम जिसमें मिष्ठान्न होमा जाता है। (२) पूर्णाहुति जिसमें फल होमना होता है। (३) वसोर्धारा- जिसमें घृत की धारा छोड़ी जाती है। इन तीनों कृत्यों को मिलाकर पूर्णाहुति कही जाती है। इस विधान को प्रधानतया पोषक प्रयोग के रूप में लिया जाता है। निरोधक सामग्री तो हविष्य के रूप में इससे पूर्व ही यजन हो चुकी होती है। मिष्ठान्न क्या लिया जाय? उसे बनाने में क्या पदार्थ लिए जाएँ? यह भी यज्ञीय विधान का एक अंग है। शक्कर, चीनी, मिश्री, मिठाई आदि का उपयोग सामान्य बात है। असामान्य रूप से विशिष्ट प्रकार के चरु बनाये जाते हैं। खीर, हलुआ, लड्डू आदि का हवन स्विष्टकृत होम की आहुति में होता है। इन्हें किन पदार्थों के सम्मिश्रण से बनाया जाय, इस निर्धारण में यह ध्यान रखना होता है कि रोगी के शरीर में किन पोषक खाद्य पदार्थों की आवश्यकता है। पूर्णाहुति में आमतौर से नारियल, सुपाड़ी आदि सुगमतापूर्वक मिल सकने वाले पदार्थ ही बहु प्रचलित हैं, पर बात इतने तक ही सीमित नहीं हो सकती, उसमें सूखे मेवे या पके फल भी प्रयुक्त हो सकते हैं। समिधाओं के निर्धारण की ही तरह पूर्णाहुति में फलों के चयन में भी सूझ- बूझ का परिचय देना पड़ता हैं। वसोर्धारा में घृत की धार छोड़ी जाती है अर्थात् उसकी मात्रा बढ़ाई जाती है, इसका एक कारण यह है कि हवन कुण्ड में जहाँ- तहाँ शेष रहा कच्चा हविष्य तुरन्त ज्वलनशील हो सके, दूसरा कारण चिकनाई की वह मात्रा शरीर को मिल सके जो सामयिक परिस्थिति के अनुरूप आवश्यक हो रही है। शकर्रा सहित अन्न वर्ग को स्विष्टकृत में, फल वर्ग को पूर्णाहुति में, घृत वर्ग को वसोर्धारा में प्रयुक्त करके आहार ही सन्तुलित मात्रा का इस प्रकार निर्धारण किया जाता है कि यजनकर्त्ता को समुचित पोषण प्राप्त हो सके। वसोर्धारा घृत में कपूर, केशर आदि मिलाने की भी आवश्यकता रहती है। इससे घृत मात्र चिकनाई न रहकर एक विशिष्ट औषधि बन जाता है।
यज्ञावशिष्ट को कई रूपों में प्रयुक्त किया जाता है। स्विष्टकृत होम से बचे हुए चरु को यजमान प्रसाद के रूप में ग्रहण करते हैं। दशरथ की रानियों ने जिस चरु का सेवन करके सन्तान लाभ किया था वह यज्ञावशिष्ट ही था। पूर्णाहुति में प्रयुक्त होने वाले फलों में से कुछ यजमान को आशीर्वाद के प्रतीक रूप में देते हैं और उसे घर जाकर खा लेने के लिए कहते हैं। आहुतियों में से बचा हुआ इदम न मम् की वापसी के साथ टपका हुआ तथा वसोर्धारा से बचा हुआ घृत मुँख, शिर आदि पर लगाने- सूँघने के लिए प्रयुक्त होता है। यह सभी यज्ञावशिष्ट हैं और स्थूल रूप से ग्रहण किये जाने पर भी प्रायः वैसे ही फलप्रद होता है, जैसे कि हविष्य की आहुतियों द्वारा हवन करके उत्पादित ऊर्जा द्वारा उपलब्ध होते हैं।
धार्मिक यज्ञों में यज्ञशाला बनाने और आच्छादन करने का विधान है। इस थोड़े से सीमा बन्धन से यज्ञीय ऊर्जा पर उस घेरे में कुछ समय ठहरने का प्रतिबन्ध लगता है। इससे उस क्षेत्र में बैठे हुए याजक दूरवर्ती लोगों की तुलना में अधिक लाभ उठा लेते हैं। खुले आकाश के नीचे हवन न करने की जो प्रथा चली आती है, उसके मूल में यही तथ्य है कि याजक थोड़े से अवरोध के कारण ऊर्जा से अधिक देर तक अधिक मात्रा में लाभ उठाते रह सकें। यज्ञशाला के ऊपर आच्छादन रखने की परम्परा भी इसी कारण है कि ऊष्मा का स्वभाव एवं स्वरूप ऊपर उठने का है। वह अग्निकुण्ड से निकलकर तीर की तरह छूटती है और सीधी आकाश में उड़ती चली जाती है। आच्छादन रहने से उसके ऊर्ध्वगमन पर प्रतिबन्ध लगता है और यज्ञशाला के वातावरण में उसका प्रभाव अपेक्षाकृत अधिक समय तक अधिक मात्रा में बना रहता है। पूर्ण प्रतिबन्ध लगाकर बन्द कमरे में भी हवन किया जा सकता है, पर वह यज्ञ की उस मूल भावना के अनुकूल न होगा जिसमें विश्व कल्याण के लिए त्याग बलिदान करने के उद्देश्य को प्रधानता दी गई है। यदि अपने हवन का अकेले ही लाभ उठाया गया, तो फिर वह अग्नि उपचार रह जायेगा। उसे यज्ञ के लोकोपयोगी पुनीत कर्म में न गिना जा सकेगा।
यज्ञ का यह पदार्थ परक विवेच हुआ। उससे आगे की बात अति सूक्ष्म- कारण स्तर की है। मनुष्यों की तरह पदार्थों के भी तीन स्तर होते हैं- स्थूल, सूक्ष्म और कारण। मानवी अस्तित्व में स्थूल शरीर वह है जो रक्त माँस से बना है, खाता, सोता- चलता फिरता और काम करता दीखता है। सूक्ष्म शरीर वह है जो सोचता विचारता और शरीर पर शासन करता है। कारण शरीर वह है जिसमें आस्थायें, मान्यतायें एवं आकांक्षाओं जड़ जमाये रहती हैं। सभी जानते हैं कि इनमें से प्रत्येक क्रमशः एक दूसरे से अधिक श्रेष्ठ और समर्थ है। स्थूल से सूक्ष्म की और सूक्ष्म से कारण की सामर्थ्य अनेक गुनी मानी जाती है। पदार्थों के सम्बन्ध में भी यही बात है। उसका स्थूल स्वरूप वह है जो दिखाई देता है, स्पर्श किया जा सकता है। सूक्ष्म वह जिसका पता रासायनिक विश्लेषण द्वारा प्रयोगशाला में जाना जाता है। गाय की अपेक्षा भैंस के दूध में मक्खन और स्वाद दोनों अधिक होते है, पर महत्व गौ के दूध से बने पंचगव्य को ही दिया जाता है। तुलसी, आँवले और पीपल के पौधों की अपेक्षा दूसरे पौधे अधिक फलप्रद, आर्थिक एवं स्वाद की दृष्टि से उपयोगी हो सकते हैं, पर उनमें प्राप्त सूक्ष्म संस्कारों के आधार पर उन्हें जो देवोपम श्रद्धा दी जाती है वह अन्य पौधों, वृक्षों को नहीं।
यज्ञ प्रक्रिया में प्रायः हर पदार्थ की कारण शक्ति को उभारा जाता है तभी वह यजनकर्त्ता के मन और अन्तःकरण में अभीष्ट परिवर्तन ला सकती है। यदि इसी प्रकार के प्रयत्न न किये जायें, तो फिर यह अग्निहोत्र अपना प्रभाव पाष्पीकरण स्तर का ही दिखा सकेगा, आग जलाने से भी कई तरह के लाभ उठाये जा सकते हैं, प्रायः वैसा ही कुछ यज्ञ धूम्र भी कर सकता है। हवा की विषाक्तता दूर करने, दुर्गन्ध हटाने, सुगन्ध फैलाने जैसे सामान्य प्रयोजन उससे पूरे हो सकते हैं। पसीना निकलने, विषाणु मारने जैसे प्रयोग भी सफल हो सकते हैं और उनका तदनुरूप आरोग्य लाभ भी मिल सकता है, पर है यह सामान्य बात ही। यज्ञ की विशिष्टता उसमें प्रयुक्त होने वाले पदार्थों की सूक्ष्म शक्ति पर निर्भर है। अमुक कष्ट का, अमुक शाकल्य का निषेध इसी आधार पर किया गया है, जो अभीष्ट उद्देश्य की पूर्ति के लिए आवश्यक है।
कारण शक्ति का उत्पादन अभिवर्धन करने के लिए मन्त्र विज्ञान का सहारा लिया जाता है। उद्गाता, अध्वर्यु इस बात का पूरा- पूरा ध्यान रखते है कि निर्धारित विधि- विधान के लिए जिन मन्त्रों का जिस स्वर से उच्चारण एवं विनियोग करने की पद्धति प्रचलित है, उसका उपयोग सही रीति से होना चाहिए। निर्दिष्ट अनुशासन के परिपालन में व्यतिरेक नहीं होना चाहिए। शब्द को ब्रह्म कहा गया है। उसकी शक्ति सामान्य जीवन में ज्ञान संवर्धन एवं वैचारिक आदान- प्रदान के लिए होती है, किन्तु उच्चस्तरीय भूमिका में शब्द का शक्ति के रूप में परिवर्तन हो जाता है। मन्त्र शास्त्र का समूचा आधार इसी पृष्ठभूमि पर खड़ा हुआ है कि शब्द गुच्छकों का चयन, गुंथन एवं विनियोग ऐसी विशिष्ट क्रिया- प्रक्रिया के साथ सम्पन्न किया जाय कि उसकी चेतना को विशिष्ट क्षमता सम्पन्न बनाने का चमत्कारी लाभ मिल सके।
यज्ञ में नियत विधि- व्यवस्था के अनुरूप मन्त्रोच्चार का प्रयोग किया जाता है। उसमें सम्बद्ध मनुष्यों को लाभ मिलता है, वातावरण में उपयोगी उत्तेजना उत्पन्न होती है और प्रयोग में आने वाले पदार्थों की कारण शक्ति को इतना उभारना सम्भव हो जाता है कि वह अपनी प्रसुप्त क्षमता का परिचय दे सके। मन्त्रपूत पदार्थों को आशीर्वाद रूप में देने पर वे औषधियों से भी बढ़कर काम करते हैं। इससे प्रकट है कि यजन से पूर्व हविष्य की कारण शक्ति को उभारने में इस स्तर तक सफलता मिल जाती है कि वह वस्तु की दृष्टि से सामान्य होते हुए भी विशिष्ट शक्ति की दृष्टि से असामान्य सिद्ध हो सके। हविष्य यदि ऐसे ही आग में फेंक दिया जाय तो उससे गन्ध उत्पन्न करने जैसे हलके लाभ ही मिल सकेंगे। वैसा कुछ सम्भव न हो सकेगा जैसा कि यज्ञ आयोजनों से अपेक्षा की जाती हैं।
यज्ञ पात्रों से लेकर प्रयोग में आने वाले जल तक को मन्त्र माध्यम से पवित्र बनाया जाता है। इसके उपरान्त ही उनका उपयोग होता है। समिधायें प्राप्त करने, धोने, सुखाने और प्रयोग से पूर्व अभिमंत्रित करने का विधान है। ठीक इसी प्रकार कुण्डों को प्राणवान बनाने के लिए वेदी पूजन, यज्ञशाला पूजन आदि किया जाता है।
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