उपेक्षा न होती तो परिवार का स्तर यो न गिरता

नष्ट और दुर्बल करने के लिए विरोध या आक्रमण आवश्यक नहीं। यह कार्य उपेक्षा से भी पूरी तरह सम्भव हो जाता है। भले ही इसमें कुछ देर लगती है। ध्वंस और आक्रमण का प्रतिफल तत्काल दृष्टिगोचर होता है। विरोध संघर्ष का प्रत्यक्ष और निन्दा चुगली का परोक्ष आक्रमण समयानुसार अपना परिणाम प्रस्तुत करता है। पर इसमें एक अच्छाई भी है कि सामने वाला सजग हो जाता है और आत्मरक्षा से लेकर प्रतिशोध, प्रत्याक्रमण तक के अनेकों उपाय सोचता है। इससे जागरूकता और सक्रियता के फलस्वरूप बहुत अंशों में आक्रमण से बचाव भी हो जाता है और आक्रमणकारी को निराश होना पड़ता है। आक्रमण और प्रत्याक्रमण का गतिचक्र दोनों ही पक्षों को निरुत्साहित करता है। फलतः हानि उतनी नहीं हो पाती जितनी सम्भव थी। आक्रमण, प्रत्याक्रमण से जो अन्य समस्याएँ उत्पन्न होती हैं, वे समझदारी अपनाने के लिए दबाव डालती है और क्रुद्ध, उत्तेजित व्यक्ति अन्ततः निराश और शिथिल होकर दूसरा रास्ता अपनाने और इस कुचक्र से पीछा छुड़ाकर अन्य आवश्यक समस्याओं को सुलझाने में लग जाते हैं।

सहयोग का प्रतिपक्षी है- विद्वेष। एक सौम्य होने से साधारण लगता है और दूसरा उत्तेजक होने के कारण उभर कर ऊपर आ जाता है। इतने पर भी विवेक अपना काम करता है और लोग देर- सबेर में समझ ही जाते है कि सृजन की उपलब्धियाँ ही काम आती है। ध्वंस से तो जी की जलन भर ठण्डी होती है। वह ठण्डक भी देर तक ठहरती नहीं। उस प्रयास में जो खोया वह इतना मँहगा होता है कि उद्दण्डता स्वयं ही पछताती है और आत्म- प्रताड़ना की आग में जलती है। इस प्रकार ध्वंस यदा- कदा आवश्यक होने पर भी सब मिलाकर हानिकर ही सिद्ध होता है। अहित के लिए ही नहीं आक्रान्ता के लिए भी।

विनाश लीला की एक और सहेली है- उपेक्षा। यह भोली बनी एक कोने में बैठी रहती है। अपनी दुरभिसंधियों का किसी को पता भी नहीं चलने देती। प्रकट में उसका कोई कुकृत्य सामने भी नहीं आता। फलतः बचने- बचाने की सावधानी बरतने की आवश्यकता भी नहीं समझी जाती। उसकी भर्त्सना भी नहीं होती। जिसकी हानि ही न समझी जाय उससे बचने का प्रयत्न भी कोई क्यों करेगा? अनेकों दुष्प्रवृत्तियाँ अपना व्यवसाय इसी रूप में चलाती है। वे मनुष्य के विचार, स्वभाव और व्यवहार में धीरे- धीरे घुसती चली जाती है और एक आदत के रूप में व्यक्तित्व का अंग ही बन जाती है।

आहार- विहार का असंयम इसी स्तर का है- आलस्य- प्रमाद को भी इसी श्रेणी में सम्मिलित रखा जा सकता है। अपव्यय, सजधज, व्यसन, कुसंग जैसे कितने ही दुर्गुण ऐसे है जो धीरे- धीरे अभ्यास में आते रहते है और चेतना पर पूरी तरह कब्जा जमा लेते है। नशेबाजी जैसी घातक आदत धीरे- धीरे पड़ती है और परिपक्व बनने पर आवश्यकता ही नहीं, विवशता बनकर दिमाग पर छाई रहती है। यह सब होता कैसे है? इसका इतिहास एक ही है- दुर्गुणों की उपेक्षा। उनकी हानि पर ध्यान न देना और विषबेल के उगते ही उसके उन्मूलन का प्रयत्न न करना। बीमारियाँ भी इस क्रम से शरीर में घुसती हैं, घुन की तरह उसे भीतर ही भीतर खोखला करती है, प्रकट तब होती है जब पानी सिर से ऊपर निकल जाता है। सद्गुणों के सम्बन्ध में बरती जाने वाली उपेक्षा ही मनुष्य को पिछड़ी स्थिति में पड़े रहने की जिम्मेदार है। कोई भी व्यक्ति स्वास्थ्य सम्वर्धन की ओर जागरूक रहने लगे और उन प्रयत्नों में रस लेने लगे तो इतने भर से उसका शरीर दुर्बलता और रुग्णता से पिण्ड छुड़ा कर बलिष्ठ दीर्घजीवी बन सकता है। अध्ययन में रस आने लगे तो व्यस्त व्यक्ति भी जैसे- तैसे उसके लिए अवसर निकालता रह सकता है और अन्ततः अन्यों की अपेक्षा कहीं अधिक विद्वान, बुद्धिमान बन सकता है। अवसर न मिलने का बहाना विशुद्ध रूप से आत्म प्रवंचना है। जिस भी काम में रस आने लगेगा उसके लिए न केवल समय मिलेगा वरन् सोचने और करने के लिए भी सुविधा मिलेगी। साथ ही साधन भी जुटते चलेंगे।

प्रगतिशील लोगों की सफलता पर गम्भीर दृष्टिपात किया जाय तो एक ही निष्कर्ष पर पहुँचना पड़ता है कि उत्कर्ष का बीजारोपण अभीष्ट प्रयोजन से रस लेने से आरम्भ हुआ था और तत्परता बरतने भर से सहयोग मिलने और साधन बनने के आधार खड़े होते चले गये। पिछड़े लोगों के दुर्भाग्य का पर्यवेक्षण करने पर भी प्रायः यही निषेधात्मक पक्ष सामने आता है। उनके पास भी समर्थता एवं परिस्थिति में कमी नहीं थी। न साधनों का अभाव था न अवसर की कमी। कठिनाई एक ही रही कि सच्चे मन से न प्रगति की आवश्यकता समझी गई और न तत्परतापूर्वक उसकी चेष्टा की गई। फलतः पिछड़ापन लदता चला गया। साधन एक- एक करके समाप्त हो गए और दरिद्रता का दुर्भाग्य जड़ जमाकर बैठ गया।

लकड़ी को घुन, शरीर को विषाणु, धन को दुर्व्यसन, यश को दुराचरण नष्ट करता है। मनुष्य के भविष्य को अन्धकारमय बनाने में उस उपेक्षा वृत्ति का सबसे बड़ा हाथ रहता है, जो न तो अवांछनीयता को पहचानने और न उसे हटाने में तत्परता प्रदर्शित करती है। सौभाग्य आकाश से नहीं टपकता, वह प्रयत्नपूर्वक उपार्जित करना पड़ता है। साधना से सिद्धि का सिद्धांत सौभाग्य के देवता का अनुग्रह उपार्जित करने में पूरी तरह लागू होता है। साधना का अर्थ जागरूकता तत्परता और सद्भावना के समन्वय से बनने वाली श्रद्धा है। जहाँ श्रद्धा है वही साधना है। जहाँ साधना होगी वहाँ आज नहीं तो कल सिद्धि को जा पहुँचने के लिए विवश होना पड़ेगा। इन तथ्यों की जब तक उपेक्षा होती रहेगी मनुष्य को इतनी हानि उठानी पड़ेगी, जितनी आक्रमण या ध्वंस के रूप में आने वाले संकटों से भी नहीं होती।

परिवार संस्था की प्रस्तुति दुर्गति के मूल में यही एक विडम्बना काम करती है और विभीषिका के रूप में परिणत होती देखी जा सकती है। शरीर के बाद जीवनयापन की दूसरी व्यवस्था परिवार के साथ ही जुड़ी हुई है। घर परिवार को दूसरा शरीर कहा गया है। एकाकी जीवनयापन तो बहुत छोटे दर्जे के कृमि कीटक ही कर पाते हैं। अन्यथा हर विकसित प्राणी को सहयोगी जीवन पद्धति, पारिवारिकता अपनानी पड़ती है। चींटी, दीमक, मधुमक्खी, टिड्डी जैसे छोटे कीड़े अपनी निर्वाह प्रक्रिया सहकारिता के आधार पर चलाते हैं। पशु- पक्षियों में तो वह और भी अधिक विकसित होती जाती है। मनुष्य की वरिष्ठता का तो एकमात्र कारण यह सहकारी प्रवृत्ति ही है, जिसके कारण पारस्परिक आदान- प्रदान सम्भव हुआ और उपलब्धियों की परम्परा से पीढ़ियाँ अधिकाधिक लाभान्वित होती चली गई।

बुद्धिमत्ता उपार्जन है, सहकारिता बीजारोपण। इस सहकारिता का जो प्रयोग मनुष्य को सबसे अधिक प्रभावित करता है वह परिवार संस्था के अन्तर्गत चलने वाला सहकारी जीवन ही है। शरीर के विभिन्न अवयव अपनी- अपनी विशेषता और क्रियाशीलता से जीवन को समर्थ और समृद्ध बनाने में योगदान देते हैं। ठीक इसी प्रकार परिवार में चलने वाली विभिन्न प्रवृत्तियों के फलस्वरूप गृहपति का ही नहीं उस परिवार में रहने वाले पूरे समुदाय का निर्वाह क्रम चलता और भविष्य निर्धारण भी होता है। महत्त्व की दृष्टि से शरीर के बाद दूसरा नम्बर परिवार का ही आता है। यहाँ एक बात बार- बार ध्यान रखने योग्य है कि परिवार का अर्थ अंश- वंश के लोगों का जमघट मात्र ही नहीं वरन् वह व्यवस्था है, जिसमें जीवन निर्वाह की प्रक्रिया मिल- जुल कर चलाई जाती है। गुरुकुलों एवं आरण्यकों को भी परिवार प्रक्रिया का ही सुविकसित अंग माना गया है, यों छावनियों और सरायों को भी एक दृष्टि से इसी व्यवस्था में सम्मिलित कर सकते हैं।

शरीर यात्रा के लिए आवश्यक साधन जुटाने में लोग प्रयत्नशील रहते हैं। परिवार की आवश्यकताएँ पूरी करने का प्रयत्न भी होता ही है। किन्तु दुर्भाग्य यह है कि इन दोनों को ही समर्थ और उत्कृष्ट बनाने के लिए न तो आवश्यक जागरूकता ही बरती जाती है और न तत्परता। फलतः शरीर जैसा बहुमूल्य यंत्र दुर्बल और रुग्ण बना रहता है। जितनी सेवा संभव थी उतनी कर नहीं पाता। टूटी- फूटी स्थिति में रोता कलपता दिन गुजारता और अकाल मृत्यु के मुख में धँस जाता है। यही दुर्गति परिवार की भी होती है। व्यवस्था की दृष्टि से कुरूपता, गन्दगी, बर्बादी, विशृंखलता का दौर छाया रहता है।

भावना की दृष्टि से स्वार्थों का थोड़ा सा तालमेल भर जिस- तिस में दीखता है, शेष को बाड़े में बन्द भेड़ों, जेल में बन्द कैदियों या सराय में पड़े हुए मुसाफिरों की तरह अपना समय गुजारना पड़ता है। न सहयोग न सद्भाव, न विचार- विनिमय का आदान प्रदान। आपाधापी ही सिर पर चढ़ी रही और सबको अधिक पाने की ही धुन सवार हो, सींचने सँजोने का काम एक दो बार ही छोड़ा जाय और अन्य सब उसमें से अधिक पाने या उपेक्षा बरतने में ही अपना लाभ समझें तो निश्चय रूप से वह संस्थान नीरस और निष्फल ही बना रहेगा। न उत्साह दृष्टिगोचर होगा न उल्लास। न समृद्धि बढ़ेगी और न प्रगति सम्भव होगी।

शरीर की महत्ता समझी गई होती और परिवार की गरिमा को ध्यान में रखा गया होता तो इन दोनों ही बहुमूल्य तन्त्रों की उपेक्षा का शिकार न होना पड़ता। उत्तेजना गरम आग है और उपेक्षा ठण्डी। अत्यधिक गर्मी की तरह अति शीतलता भी समान रूप से विनाशकारी होती है। आवश्यक नहीं कि पौधे को उखाड़ फेंकना ही आवश्यक हो। उसे खाद पानी न देने, सर्दी- गर्मी से न बचाने एवं पशु- पक्षियों द्वारा नष्ट किये जाने की सुरक्षा न रखने पर भी पौधा अपनी मौत मर जायेगा। यह अहिंसक हिंसा है जिसका दूसरा नाम उपेक्षा भी है।

विनाश के मूलभूत कारणों में ध्वंस और आक्रमण की भूमिका भी कम नहीं, पर यह ध्यान रखने योग्य है कि उद्दण्डता जब तब ही आँधी तूफान की तरह आती और चली जाती है। निरन्तर की हानि स्थाई प्रदूषण से ही होती है। उपेक्षा वह विषाक्तता है जो क्रमशः नस नाड़ियों में प्रवेश करती है और सम्बद्ध सभी घटकों को मूर्छित एवं विकृत बनाकर रख देती है। संसार के हर क्षेत्र में प्रकृति की असीम सम्भावना विद्यमान है। यदि तत्परता और जागरूकता का सहारा कुछेक लोगों ने ही नहीं, जन साधारण ने भी लिया होता तो जो कुछ सामने है उसमें असंख्य गुना वैभव मनुष्य को उपलब्ध हो गया होता।

विनाश और व्यवधान के कारण भी अनेक है, उनके द्वारा उत्पन्न की जाने वाली अड़चनें भी अगणित है। उनके कारण जो हानियाँ उठानी पड़ी हैं उनका विवरण भी बढ़ा- चढ़ा है। किन्तु यह ध्यान रखने योग्य है कि प्रगति का अवरोध और अवगति का निर्धारण करने में उपेक्षा ने जितनी क्षति पहुँचाई है, उसकी तुलना में समस्त अवरोध मिलकर भी तुच्छ बैठते हैं।

जहाँ तक परिवार संस्था का सम्बन्ध है उन्हें शरीरों की तरह ही उपेक्षा के गर्त में गिरना और अनेकानेक विपत्तियों, विकृतियों का शिकार बनना पड़ा है। लोग इतने भर से अपने कर्तव्य की इतिश्री मान लेते हैं कि उनने कुटुम्बियों के लिए कितनी मात्रा में सुख साधन जुटाया और उत्तराधिकार में कितना धन वैभव छोड़ा, यह भयंकर भूल है। इस प्रयास में प्रयत्नकर्त्ताओं का तो कचूमर निकलता ही है, कुटुम्बियों को भी उस अनौचित्य को स्वीकार करने पर अपनी पवित्रता, प्रतिभा और प्रखरता से हाथ धोना पड़ता है। लाड़- दुलार में पलने वाली अमीरों की सन्तान तथा निर्धन परिवार में पले लोगों का तुलनात्मक अध्ययन किया जाय तो प्रतीत होगा कि व्यक्तित्व की दृष्टि से सम्पन्नता ने ही हानि पहुँचाई है विपन्नता ने नहीं। भोजन अपने परिश्रम से ही पचता है। वैभव भी उतना ही हजम होता है जितना कि अपने निज के पराक्रम पुरुषार्थ से कमाया गया हो। परिवार को सुखी बनाने के लिए प्रयत्नरत मनुष्यों को यदि इतनी समझ और भी रही होती तो कितना अच्छा होता, कि सुसंस्कारिता ही मानव जीवन की चिरस्थाई और कल्याणकारी सम्पदा है।

परिवारों की उपेक्षा उस अर्थ में होती रही है कि उनमें सुसंस्कारिता का वातावरण उत्पन्न करना न तो आवश्यक समझा जाता है और न उसके लिए प्रयत्न किया जाता है। जिस सन्दर्भ में जागरूकता बरती जायेगी उसकी अभिवृद्धि होगी और जिसकी उपेक्षा होगी उसकी क्रमशः अवनति ही होती जायेगी। परिवार निर्माताओं ने जाने या अनजाने में दुष्प्रवृत्तियों का वातावरण बनाया है, फलतः उन्हें फलते- फूलते देखा जा सकता है। हर कुटुम्ब दोष- दुर्गुणों का भण्डार बनता जा रहा है। उसमें श्रेय उस नीति को है, जो परिवार निर्माताओं द्वारा अपनाई गई है। जहाँ- तहाँ ऐसे भी कुटुम्ब दीख पड़ते हैं, जिन्हें धरती पर स्वर्ग के अवतरण का दृश्य कह सकते हैं। नररत्नों की खदानें पहले भी समुन्नत परिवारों में ही दृष्टिगोचर होती थी और अभी भी वैसे ही उदाहरण देखने को मिल जाते हैं। इस अन्तर का मूलभूत कारण एक ही है, कि सुसंस्कारिता की उपयोगिता आवश्यकता समझी नहीं गई और उसके लिए चेष्टा भी नहीं हुई। फलतः सद्भावना सम्पन्न शालीनता के दर्शन भी दुर्लभ हो रहे हैं, जिसमें गृहपति समेत अन्य सभी परिजनों की उल्लास भरी मनःस्थिति और प्रगतिशील परिस्थिति का लाभ मिलता। प्राचीनकाल में मनुष्यों की काया में देवत्व की झाँकी मिलती थी। आज भी उसकी पुनरावृत्ति पूर्णतया सम्भव है। शर्त एक ही है कि सम्पन्नता की ही तरह शालीनता का भी महत्त्व समझा जाय और उसके अभिवर्धन का भी वैसा ही प्रयत्न रुचिपूर्वक किया जाय जैसा कि सुविधा साधन बढ़ाने के लिए किया जाता है। परिवारों को स्वर्गोपम बनाना हो, उनमें देव समुदाय को लीला विहार करते देखना हो तो उस क्षेत्र में उत्कृष्ट आदर्शवादिता का उत्पादन करने के लिए कटिबद्ध होना होगा। इस सन्दर्भ में बरती जाने वाली उपेक्षा तो अविलम्ब समाप्त करनी ही होगी।

***







Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118