नव सृजन के अति महत्त्वपूर्ण क्रिया- कलापों में परिवार- निर्माण को मूर्धन्य माना जाना चाहिए। यह संकेत अभियान को आरम्भ करते ही कर दिया गया था। गायत्री- परिवार, युग निर्माण परिवार, अखण्ड ज्योति परिवार आदि नामों में अपने संगठन का स्वरूप सर्व साधारण के सम्मुख प्रस्तुत किया जाता रहा है। परिवार गठन को प्रजातन्त्र और राजतन्त्र का समन्वय कह सकते हैं। कुलपति का अनुशासन परिवार के सदस्य मानते है और परिवार के हित चिंतन तथा सुझाव परामर्श का कुलपति ध्यान रखता है। प्रगाढ़ आत्मीयता, शुभेच्छा और सहकारिता जैसे सुदृढ़ सूत्रों से वह परिकर बँधता है और एक दूसरे को हर घड़ी सुविधा, प्रसन्नता प्रदान करते हुए सर्वतोमुखी प्रगति के पथ पर अग्रसर होता है, यही सामूहिक प्रगति का सच्चा मार्ग है।
समाज का गठन इसी आधार पर होना चाहिए। वसुधैव कुटुम्बकम् का सूत्र हर व्यक्ति की भाव संवेदना और विचारणा पर छाया रहना चाहिए इसी अतिसरल, अति स्वाभाविक और परम श्रेयस्कर रीति- नीति का जन- जन को अवलोकन करना चाहिए। यही है युग सृजन का तत्त्वदर्शन, जिसे इस अभियान को आरम्भ करते समय संगठन के नाम के साथ जोड़ा और प्रत्येक संबद्ध व्यक्ति को अवगत कराया गया था। उज्ज्वल भविष्य की समस्त संभावनाएँ इसी मान्यता के क्रियान्वित होने पर केन्द्रीभूत है। संगठन के प्रत्येक घटक सदस्य को परिजन कहा जाता रहा है। परिजन अर्थात कुटुम्बी संचालक एवं संचालितों को ही कुटुम्बी बन कर रहना नहीं है वरन् सभी संबद्ध व्यक्तियों को परस्पर कौटुम्बिकता का प्रगाढ़ परिचय देना है, यही इस मिशन की आचार संहिता का तत्त्वदर्शन है। अन्य संगठन उथले आधारों पर खड़े होते हैं। उत्तेजना के वातावरण में जीते और परिस्थितियाँ बदलते ही बिखरते रहते हैं। उथले आधार पानी के बबूले से बड़ा उदाहरण प्रस्तुत भी नहीं कर सकते।
आर्थिक छीना झपटी, वर्ग संघर्ष, आक्रमण संरक्षण, अपनों का पक्ष समर्थन, असुविधाओं का निराकरण यही है आज के संगठनों के प्रेरणा स्रोत। यह सभी विग्रहों और अनर्थों के रहने तक ही जीवित रह सकते हैं। आवश्यक नहीं कि विकृतियाँ देर तक ठहरें अथवा वर्तमान स्वरूप में ही बदलती रहें। हवा के दबाव से बादलों की आकृतियाँ बदलती रहती है और कई तरह के परिवर्तनों से परिस्थितियों में हेर- फेर होता है। उसी दशा में उत्तेजना का कारण बदलते ही उस आधार को लेकर खड़े होने वाले और जीवित रहने वाले संगठन भी समाप्त हो जाते हैं। किसी समय के प्रचण्ड आन्दोलनों में बंग- भंग, नमक सत्याग्रह, असहयोग, खिलाफत, बमक्रान्ति, गदर आदि उल्लेख किया जा सकता है अपने समय में वे गगनचुम्बी बने हुए थे। अब न वे संगठन कहीं दिखाई पड़ते और न उनकी गतिविधियों का कोई अस्तित्व है।
भूकम्प, बाढ़, महामारी, दुर्घटना, दुर्भिक्ष, युद्ध आदि कारणों से होने वाली क्षति को पूरा करने के लिए बड़े- बड़े प्रयास आरम्भ होते है। उन दिनों सभी का ध्यान उन पर केन्द्रित रहता है किन्तु स्थिति सम्भलते ही वह सारा सरंजाम बिखर जाता है।
कहने का तात्पर्य यह है कि निषेधात्मक कारणों के आधार पर खड़े होने वाले संगठन स्थाई नहीं हो सकते। स्थायी तो मात्र सृजन है। नव निर्माण की प्रक्रिया को स्थायित्व प्रदान किया जाता है। इसलिए उसके आधार को सृजन समर्थक रखा गया है। इस संदर्भ में परिवार संस्था के नाम को प्राथमिकता दी जाती है यह मानवी सभ्यता की जननी है। पारिवारिकता पहले उत्पन्न हुई सभ्यता पीछे जन्मी। यदि मनुष्य में यह प्रवृत्ति न हो, तो उसकी स्थिति जलाशयों में रहने वाले मत्स्य, मेढकों और आकाश में उड़ने वाले मक्खी- मच्छरों से अधिक अच्छी न होती। विकास युग में प्रवेश करने का प्रथम चरण परिवार गठन के रूप में ही सामने आया अन्यथा बन्दरों की औलाद कहा जाने वाला मनुष्य अब तक भी वनमानुषों की तरह जीवनयापन करता और अस्तित्व रक्षा की लड़ाई लड़ता दृष्टिगोचर होता। परिवार संगठन सृजन उद्देश्यों को लेकर खड़ा हुआ है। इसलिए वह अक्षय वट की तरह अमर है। दिन बीतते जाते है और उसकी जड़ें मजबूत होती जाती हैं।
सामाजिक और आर्थिक आधार पर लार्ज फैमिली सिद्धान्त को मान्यता मिल चुकी है। अगले दिनों उसका प्रयोग ही नहीं, प्रचलन भी होने जा रहा है। दर्शन और अध्यात्म ने उसे पहले से ही मूर्धन्य ठहराया है और वसुधैव कुटुम्बकम् की मान्यता को सर्वतोमुखी प्रगति और शान्ति का आधार तत्व बताया है उसी सनातन सत्य पर से धूल झाड़ने, माँज रगड़ कर निखारने, व्यवस्थापूर्वक सजाने का कार्य अपने मिशन ने हाथ में लिया है। उसकी उपयोगिता और सम्भावना के सम्बन्ध में दो मत नहीं हो सकते।
गायत्री परिवार और युग निर्माण परिवार ये दो नाम नहीं वरन् एक ही प्रगतिक्रम के दो चरण है, जिन्हें परस्पर पूरक अन्योऽन्याश्रित कहा जा सकता है। गायत्री दर्शन है और युग निर्माण कार्यक्रम। एक से प्रेरणा मिलती है दूसरे से दिशा। गायत्री आत्मदर्शन का नवनीत है। ऋतम्भरा प्रज्ञा की उच्चस्तरीय दूरदर्शिता अपनाने में ही मनुष्य का आत्यान्तिक हित साधन है। आस्थाओं के क्षेत्र की विकृतियों का निष्कासन और सत्प्रवृत्तियों का संस्थापन जिस कौशल एवं उपकरण से किया जाता है, उसे एक शब्द में गायत्री कह सकते है। भाषा एवं आग्रह की कठिनाई से नाम दूसरा भी हो सकता है, किन्तु प्रगति और शान्ति की चिरस्थाई आधारशिला ऋतम्भरा, प्रज्ञा, गायत्री के अतिरिक्त और कुछ हो सकती है, इसकी कल्पना भी नहीं बनती। गायत्री परिवार को इसी दर्शन के भाव सूत्र में बँधा हुआ परिवार समझा जा सकता है। उपासना से आरम्भ होने वाला प्रयोग अन्ततः दर्शन को हृदयंगम करके भी रहेगा ही।
युग निर्माण का तात्पर्य है प्रचलन के प्रवाह को उत्कृष्टता की दिशा में मोड़- मरोड़ देना। व्यक्ति को धनी, विद्वान, बलिष्ठ, समर्थ, सिद्ध बना देने से सामूहिक प्रगति पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। सामर्थ्य तो वातावरण में होती है। हवा के दबाव से पत्ते मुड़ते हैं। वातावरण के दबाव से मनुष्य खिलौनों की तरह ढलते हैं। अस्तु उज्ज्वल भविष्य की संरचना के लिए वैयक्तिक उन्नति से भी अधिक ध्यान इस तथ्य पर दिया जाना है कि सामूहिक प्रचलनों में आवश्यक हेर- फेर हो और उसके प्रवाह में लोगों को तिनकों की तरह बहने में सुविधा प्रतीत हो। आँधी के साथ पत्ते उड़ते है और तूफानों के साथ धूलि के कण आसमान तक पहुँचते हैं। युग प्रवाह की गति और दिशा यदि उत्कृष्टता की दिशा में चल पड़े तो जन- जन को अलग से समझाने, धमकाने की आवश्यकता न पड़ेगी।
संक्षेप में आदर्शवादी वातावरण बनाने के व्यापक प्रयास को युग निर्माण कह सकते हैं। ऋतम्भरा प्रज्ञा से प्रगट भाव सम्वेदनाओं का क्रियान्वयन युग निर्माण में ही होना चाहिए। अस्तु उसे दूसरा चरण कह सकते हैं। ज्ञान की सार्थकता तभी है जब वह कर्म में परिणित हो। गायत्री परिवार को स्थापना और युग निर्माण परिवार को प्रक्रिया कहा जाय तो दोनों के मध्यवर्ती तालमेल सहज ही समझ में आ सकते हैं और किसी भ्रम में पड़ने की अपेक्षा दोनों को प्रगति क्रम पर बढ़ते दो चरणों का सम्मिलित उपक्रम समझा जा सकता है।
ऋतम्भरा प्रज्ञा और सत्प्रवृत्ति सम्वर्धन का समन्वित स्वरूप क्या बन सकता है? इसके लिए नये सिरे से खोजबीन करने की आवश्यकता नहीं। पुराना राजमार्ग ही सुधार, सम्हाल लिया जाय तो पगडंडी खोजने और जंजाल में भटकने की आवश्यकता न पड़ेगी। धर्मतन्त्र से लोक शिक्षण की प्रक्रिया चिर परीक्षित है। दूरदर्शियों ने मानव जीवन और समाज संगठन के हर पक्ष को ध्यान में रखते हुए इस राजमार्ग का निर्धारण किया है। इसमें श्रद्धा और प्रखरता के लिए समान रूप से स्थान है। आज का पर्यवेक्षण करना व्यर्थ है। इन दिनों विकृतियों ने अकेले धर्म पर ही आक्रमण नहीं किया है। लोक व्यवहार के हर क्षेत्र में घुसी हुई विकृतियों के आधार पर ही यदि उसे बहिष्कृत किया जाना हो तो फिर अकेला धर्म ही नहीं बचेगा। शासन, समाज, व्यवहार, विनोद, उद्योग, दर्शन आदि के सभी क्षेत्रों की स्थिति को अवांछनीय घोषित करना पड़ेगा।
बात परिवार शब्द की व्याख्या को लेकर आरम्भ हुई और नव सृजन की कार्य पद्धति तक आ पहुँची। इतने पर भी तारतम्य वही बना हुआ है कि पारिवारिकता ही गौरवशाली अतीत की पृष्ठभूमि रही है और उसी पर उज्ज्वल भविष्य की आशाएँ केन्द्रित हैं। सतयुग में मनुष्यों की आकाँक्षाएँ और गतिविधियाँ आत्मीयता की भावना और पारिवारिकता की रीति- नीति पर आधारित थी। देव मानवों का समुदाय उन दिनों किस प्रकार धरती पर स्वर्ग जैसी परिस्थितियाँ बना सका, इसका पुनः परीक्षण करना हो, तो एक बार उन्हीं आस्थाओं और प्रथाओं को अपना कर यह अनुभव किया जा सकता है कि अभावों और समस्याओं का हल किस प्रकार जादुई चमत्कार के साथ होता है और वर्तमान साधनों के सदुपयोग भर से किस प्रकार प्रगति और समृद्धि की, प्रसन्नता और आशा की परिस्थितियाँ अनायास ही बनती चली जाती है।