हरीतिमा से स्नेह बढ़ायें, फूल उगायें

प्राणि जगत कर तरह ही वनस्पति जगत भी है। इन दोनों की बीच अन्योन्याश्रय सम्बन्ध है। एक दूसरे पर निर्भर हैं। इनमें से एक की स्थिति दुर्बल पड़ेगी, तो दूसरे को भी दुर्दशाग्रस्त होना पड़ेगा।

प्राणियों का आहार वनस्पतियाँ हैं। माँसाहारी प्राणी भी मात्र उन्हीं को खाते हैं, जो शाकाहार पर निर्भर रहते हैं। माँसाहारी माँसाहारी को खाने लगे तो उनका अस्तित्व ही खतरे में पड़ जायेगा। प्राणियों का मल- मूत्र खाद के रूप में वनस्पतियों को मिलता है। उनके द्वारा छोड़ी हुई साँस वनस्पतियों को सजीव साँस प्रदान करती है। इसी प्रकार वृक्षों द्वारा छोड़ी हुई प्राणवायु से प्राणियों का गुजारा चलता है। अन्न, शाक, फल आदि के सहारे मनुष्य, और घास पत्ते खाकर अन्य प्राणी जीवित रहते हैं।

कृषि उद्यान के व्यवसाय से अधिकाँश मनुष्यों की आजीविका चलती है। भारत जैसे कितने ही कृषि प्रधान देश इस संसार में हैं। उनके प्रजाजन अन्न- वस्त्र की सुविधा जुटाने वाले अनेकानेक कार्य करते और गुजर चलाते हैं। वृक्ष- वनस्पति का वर्षा से, मौसम से नदी नालों को नियंत्रित रखने से, भूमि क्षरण रोकने से, पशु- पालन व्यवसाय से सघन सम्बन्ध है। जलाऊ लकड़ी से लेकर इमारती प्रयोजनों में, फर्नीचरों में जिनका निरन्तर उपयोग होता है, उन वृक्षों को मानव जीवन का अविच्छिन्न सहचर ही माना जाना चाहिए। इनका परिपोषण संवर्धन अपने ही अंग अवयवों एवं परिजनों के परिपालन जैसा ही माना जाना चाहिए। इस सम्बन्ध में हमारा ध्यान तथा रुझान सदा ही केन्द्रित रहना चाहिए, कि हरीतिमा हमारे इर्द- गिर्द रहे और हम उसके सम्पर्क सान्निध्य में अधिकाधिक समय गुजारे। शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य की दृष्टि से यह आवश्यक भी है और उपयोगी एवं महत्त्वपूर्ण भी।

वृक्षों के आरोपण संरक्षण के लिए उपयुक्त पर्याप्त भूमि चाहिए। हरीतिमा संवर्धन से सम्बन्धित कृषि कार्य के लिए खेतों की आवश्यकता है। इन दो कार्यों को साधन सम्पन्न ही कर सकते है। पर इस संदर्भ में दो कार्य ऐसे है, जिन्हें हर वनस्पति प्रेमी सहज ही कर सकता है। एक है घरेलू शाक वाटिका दूसरा है पुष्प वाटिका। पहला शरीर पोषण के लिए और दूसरा का मानसिक उल्लास के लिए सस्ते में, सरलता पूर्वक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण पोषण प्रदान करते हैं। अपने समाज में हरे भोजन का प्रचलन कम है। तले- भुने, पिसे और और छिलका उतारे हुए अन्न में कुछ सार रह नहीं जाता, वह कोयले जैसा नीरस निरुपयोगी होता है। जीवन, जीवन प्रदान करता है, इस दृष्टि से हरे- भरे शाक- फलों का भोजन में बाहुल्य रहना चाहिए। हरी पत्ती वाले कच्चे शाक सलाद, चटनी की तरह प्रयुक्त होते रहें तो भी स्वास्थ्यप्रद आहार की आवश्यकता पूरी हो सकती है। इसे दुर्भाग्य ही कहना चाहिए कि फूल तो दूर शाक भाजी तक पर्याप्त मात्रा में लेने का प्रचलन नहीं है। कहीं कुछ है तो उसे भी इतना तला भुना उबाला जाता है कि वह भी कोयले के सदृश्य ही बनकर रह जाता है। यही कारण है कि हमारा समूचा समाज कुपोषण का शिकार है। इस मामले में धनी, निर्धन सब समान है। निर्धन को दरिद्रता के कारण और सम्पन्नों को चटोरेपन तथा पाक विज्ञान से सर्वथा अनजान रहने के कारण ऐसे भोजन पर निर्भर रहना पड़ता है, जो सस्ता हो या मँहगा। भोजन की मौलिक विशेषताओं से रहित ही होता है।

इस कमी की पूर्ति बहुत अंशों में घरेलू शाक वाटिका कर सकती है। टोकरों में गमलों में, क्यारियों में टूटे कनस्तरों में मिट्टी भर कर शाक भाजी उगाये जा सकते हैं। इस सन्दर्भ में बेलों वाले तथा पत्तियों वाले शाक अधिक मात्रा में उत्पन्न हो सकते और कम जगह रहते हुए भी अधिक फसल दे सकते हैं। लौकी, तोरी, सेम आदि की बेलें कम जगह में बोई जा सकती हैं और जिधर- तिधर फैल कर पर्याप्त मात्रा में बहुत दिन तक शाक की आवश्यकता पूरी करती रह सकती है। इसी प्रकार पालक, मेथी, बथुआ, चौलाई, पोदीना, धनिया जैसे पत्ती वाले शाक भी उबाल कर या कच्चे चटनी की तरह काम आते रह सकते है। जमीन में बोने की दृष्टि से अदरक सबसे लाभ दायक है। हमें अपने घरों पर इन्हें बोने का प्रयत्न करना चाहिए ताकि जीवनदायक हरे आहार की आवश्यकता पूरी होती रहे और बिना खर्च के कुपोषण की समस्या से निपटने का प्रयोग मिलता रह सके।

मानसिक आवश्यकता को पूरी करने में हरीतिमा संवर्धन, पुष्प वाटिका का उतना ही महत्त्व है जितना कि शरीर के लिये आहार का, इस भारी कमी को दूर करने के लिए घरेलू शाक वाटिका उगाने की हमारे प्रत्येक घर में फूलों के पौधे और बेलें रहनी चाहिए। इनके माध्यम से नेत्रों को शीतलता, मन को प्रसन्नता का लाभ मिलता है। कला और सौन्दर्य की आन्तरिक पिपासा को समाधान मिलता है तथा उत्पादन संरक्षण की प्रवृत्ति को वैसा ही पोषण मिलता है, जैसा कि बालकों के लालन पालन में अभिभावकों को आनन्द, उत्साह एवं कौशल बढ़ाने का सुयोग बनता है।

पेट आहार से भरता है और कंठ की प्यास पानी से बुझती है। किन्तु अन्य ज्ञानेन्द्रियाँ भी ऐसी है जिन्हें अपनी आवश्यकताएँ पूरी करने के लिए पदार्थों की मांग रहती है। इन इन्द्रियों में कान के लिए पोषक विषय संगीत है। ज्ञान वर्धन तो शिक्षण और परामर्श के आधार पर भी चल जाता है, किन्तु कानों के माध्यम से अन्तराल में गुदगुदी उत्पन्न करने का कार्य संगीत के माध्यम से ही बन पड़ता है। इस माध्यम से मिलने वाली दिव्य अनुभूति को नाद ब्रह्म के नाम से सम्बोधित किया जाता है। संगीत के अभाव में अन्तरंग नीरस रहने लगता है। भाव संवेदनाएँ प्रदान करने में यदि कर्ण कुहरों को संगीत तरंगों की उपलब्धि न हो तो भीतर ही भीतर कुछ ऐसी शुष्कता उत्पन्न होने लगती है जिसे कायिक दुर्बलता एवं रुग्णता उत्पन्न करते देखा जा सके। यही कारण है जीवनचर्या में कहीं न कहीं संगीत का स्थान रखने और व्यवस्था करने को महत्त्व दिया जाता है। भजन में स्तवन और कीर्तन का महत्त्वपूर्ण स्थान है। उसे आत्मोपचार के लिए संगीत तरंगों का उपचार ही कहा जा सकता है।

नेत्रों और नाक को अभीष्ट रस प्रदान करने के लिए प्रकृति ने हरीतिमा उगाई है साथ ही उसे पुष्पों से भी लादा है। पुष्प मात्र शोभा सज्जा ही नहीं है वरन् उनमें ऐसी विशेषताएँ भी भरी पड़ी है, जो न केवल दर्शनीय सुषमा का रसास्वादन कराती है, न केवल नासिका को मन भावन सुगन्ध प्रदान करती है अपितु चेतना में ऐसा उल्लास भी भरती है जिससे प्रसन्नता, निरोगिता एवं प्रेरणाप्रद उमंगों का लाभ भी मिल सके। इन उमंगों के सहारे मनुष्य की भाव कल्पना जगती है। और उन प्रसुप्त केन्द्रों में उभार आता है, जो समझदारी और सूझबूझ से सम्बन्धित हैं।








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