आत्मशक्ति का परिष्कार ही नवयुग का मूल आधार

सर्वभक्षी विनाश विभीषिकाओं को निरस्त और उज्ज्वल भविष्य को विनिर्मित करने के दो मोर्चों पर दुधारी तलवार से अगले दिनों सभी सृजन सैनिकों को प्राणपण की लड़ाई लड़नी पड़ेगी। दैवी अवतरण इन्हीं दो प्रयोजनों के लिए होता है। उसे दुष्कृत्यों का विनाश और धर्म का संस्थापन करते हुए ‘यदा- यदा हि धर्मस्य...’ वाली अपनी प्रतिज्ञा पूरी करनी और असन्तुलन को सन्तुलन में बदलने की व्यवस्था बनानी होती है। यह पुण्य प्रयोजन निराकार ब्रह्मसत्ता स्वयं नहीं करती, अपने साधनों और वाहनों से कराती है। प्रेरणा निराकार होती है और तत्परता साकार। महाकाल का आकार नहीं किन्तु उसके संदेश वाहक अग्रदूत होने के कारण सूत्र संचालक की भूमिका निभाते हैं। जीतता पुरुषार्थ है पर लड़ाई में चमत्कार तो तलवार ही दिखाती है। युगान्तरीय चेतना को वहन करने वालों का पुरुषार्थ तो ईश्वर प्रदत्त होता है, पर श्रेयाधिकारी वही बनते हैं स्वर्णाक्षरों में उल्लेख उन्हीं का होता है और अनन्तकाल तक लोकश्रद्धा उन्हीं के चरणों पर बरसती है। ऐसा सौभाग्य जिन्हें मिले समझना चाहिए कि अवतार न सही उसके प्रतीक प्रतिनिधि बनने का श्रेय सौभाग्य तो उन्हे मिल ही गया।

नवयुग को सतयुग कहा जा सकता है। सतयुग अर्थात् धर्म धारणा का प्रचलन। मन:स्थिति ही परिस्थितियों की जन्मदात्री है। चिन्तन और चरित्र का स्तर एवं प्रतिफल ही भली- बुरी परिस्थिति बन कर सामने आता है। समस्याओं और विपत्तियों से जूझने में जितना काम साधनों और पराक्रमों के सहारे होता है, उससे हजार गुनी भूमिका लोक चिन्तन की गतिशीलता सम्पन्न करती है। इसलिए पराक्रमी सृजन प्रयोजनों के साधन जुटाते हैं और तत्वदर्शी ऐसी योजना बनाने की भूमिका निभाने में संलग्र रहते हैं, जिससे लोक चिन्तन के प्रवाह को उत्कृष्टता की पक्षधर दिशाधारा मिल सके। संक्षेप में यही है युग सृजन का तात्विक स्वरूप और योजना बद्ध क्रिया- कलाप, जिसे इन्हीं दिनों सम्पन्न किया जाना है। विलम्ब करने और अनर्थ सहने की गुंजायश अब नहीं रह गई है।

नवयुग जिस प्रचण्ड शक्ति सामर्थ्य के सहारे विनिर्मित होता है, उसे एक शब्द में आत्म शक्ति कह सकते हैं। आत्मशक्ति का अर्थ है- आदर्शों को क्रियान्वित करने की अदम्य उमंग और प्रचण्ड साहसिकता। आमतौर से जीवधारी पेट प्रजनन की कीचड़ खाते और उसी सड़न में दिन गुजारते हैं, पर सृजेता दूसरी धातु के बने होते हैं। उन्हें अर्ध विक्षिप्तों के न तो परामर्श सुहाते हैं और न उनकी उन्मादी उछल कूद का अनुकरण करने की इच्छा होती है। वे अपना रास्ता आप बनाते हैं और भीतर के ईमान तथा बाहर के भगवान से निर्देश प्राप्त करने के उपरान्त उन्हें किसी की सलाह लेने की जरुरत नहीं पड़ती। महानता के मार्ग पर हर किसी को एकाकी संकल्प के सहारे ही आगे बढ़ना पड़ता है। भीड़ तो बहुत दिन बाद पीछे चलने और जय बोलने के लिए सहमत होती है। आदर्शवादियों के मार्ग में आने वाली बाधाओं में प्रथम उपहास, दूसरा विरोध, तीसरा आक्रमण आता है। सफलता और प्रशंसा के लक्षण इतनी मंजिल पार कर लेने के उपरान्त दिखाई पड़ते हैं। सहयोग समर्थन का लाभ इससे पूर्व कदाचित ही किसी को मिला हो। सदुद्देश्य के अग्रगामी धन्य भी बनते हैं और अभिनन्दनीय भी, पर वह स्थिति आरम्भ में नहीं बहुत दिन उपरान्त आती है। जिनमें इतनी प्रतीक्षा का धैर्य और अवज्ञा सहने का साहस होता है, उन्हीं को अग्रगामी महामानव बनने का सौभाग्य मिलता है। ईश्वर के पार्षद, युग सृजेता इन्हीं विभूतियों को कहते हैं। उन्हीं के पद चिन्हों पर चलकर असंख्यों को श्रेय साधक स्वनाम धन्य बनने का अवसर मिलता है।

आत्म शक्ति का उदय ही अपने इस नवयुग का आधारभूत निर्मित कारण है। यह अग्रगामियों में तो अन्त:प्रेरणा के आधार पर स्वत: ही उदय हो जाती है, उन्हें जगाने उठाने एवं कटिबद्ध करने का कार्य ईश्वर स्वयं ही संजो देता है। पूर्व संचित सुसंस्कारों के सहारे उपयुक्त समय आते ही वे अपना उत्तरदायित्व बिना किसी दबाव के स्वयं ही वहन करने लगते हैं, किन्तु सर्वसाधारण के सम्बन्ध में ऐसी बात नहीं है उन्हें बालकों की तरह उठाने नहलाने, कपड़े पहनाने, नास्ता कराने से लेकर स्कूल पहुँचाने तक के सारे काम अभिभावकों को ही करने पड़ते हैं। साथ ही नखरे सहने के लिए भी तैयार रहना होता है। मरीजों के नखरे भी देखते ही बनते हैं। वे उम्र में बड़े होने पर भी बालकों के कान काटते है। सनकी, अर्ध विक्षिप्त, उद्दण्ड, अपराधी प्रकृति के लोग भी सदा कुचाल चलते हैं, उन्हें भलमनसाहत अपनाने के लिए सहमत करना भी एक पूरा सिरदर्द है। कुचाल को सुधार सकना भी इतना बड़ा पुरुषार्थ है, जिन्हें कुबेर जैसा अनुदान बाँटना कहा जा सकता है। पुलिस, फौज, कचहरी, जेल, फाँसीघर जैसे संस्थानों में लगी हुई जनशक्ति तथा साधन शक्ति कोई अन्न- वस्त्र उत्पादन जैसा उपयोगी काम थोड़े ही करती है? इसकी समस्त क्षमता उद्दण्डता से जूझने में ही समाप्त हो जाती है। मनुष्य में ईमान और भगवत् की ज्योति है तो, पर प्रबल हैवान और शैतान ही पाया जाता है। इसलिए उत्थान के लिए जितने पुरुषार्थ की आवश्यकता पड़ती है। पतन को रोकने में उससे कम नहीं अधिक ही पराक्रम करना होता है।

भगवान् के अवतार लीलाओं के वर्णनों में सृजनात्मक श्रेय प्रसंग कम और ध्वंस प्रकरण अधिक मिलते हैं, असुरता के निवारण में उनकी जितनी शक्ति लगी उससे कम ही उन्होंने सृजन प्रयोजनों में लगाई है। यदि अधिक भी लगी हो तो स्मरण ध्वंस प्रकरणों का ही किया जाता है। राम चरित्र में सुबाहु, ताड़का, मन्थरा, कैकेयी, खरदूषण, सूर्पनखा, मारीच, सुरसा, त्रिजटा, रावण, कुम्भकरण, मेघनाद आदि के प्रकरणों की चर्चा बड़े जोर शोर से होती है। शबरी, केवट, विभीषण, जटायु जैसे भक्तजनों की चर्चा संक्षेप में ही होती है। रामराज्य की स्थापना में भी उन्हें सम्मान दिया गया है, किन्तु उसका उल्लेख बहुत खोजने पर ही मिलता है।

कृष्ण चरित्र में भी यही बात है। उस समय जेल के प्रहरी, यमुना का उफान, सर्पों का आक्रमण, पूतना, तृणासुर, कालिया सर्प से लेकर कंस, चाणूर, मुष्टिकासुर, दुर्योधन आदि सभी उनके प्राण घातक बने रहे। गोपियों का भीलों द्वारा अपहरण, यादवों का गृहकलह में निधन, रण छोड़कर द्वारिका पलायन और अन्तत: व्याध के हाथों काय विसर्जन जैसी दुखद घटनायें भुलाये नहीं भूलती। महाकाल की योजना और पाण्डवों के अज्ञातवास, गोपी विछोह में उन्हें क्या कुछ नहीं सहना पड़ा। यह कर्मयोग नहीं वरन् तप साधना की वह शृंखला है, जिसका अवलम्बन हर श्रेयाधिकारी का अपनाना पड़ता है।

इसके पूर्व के अवतारों और उनके सहकारी पार्षदों का कार्य विवरण पढ़ने पर भी इसी निष्कर्ष पर पहुँचना पड़ता है कि उन सभी को परिवर्तन की महान प्रक्रिया सम्पन्न करने के लिए अग्रगामी बनना पड़ा है। यह कार्य सरलता पूर्वक अनायास ही नहीं हो गया, वरन् उन्हें स्वयं कष्टकारी व्यवधानों को अपने सिर पर ओढ़कर अन्यान्यों का उत्साह एवं साहस जगाना पड़ा है। भगवान बुद्ध, महावीर, हनुमान, परशुराम, नृसिंह, वामन आदि को अपमान और कष्ट सहने के अगणित प्रसंग पग- पग पर सहने पड़े हैं। देखने में यह प्रसंग कितने ही अरुचिकर क्यों न लगते रहे हो, पर उन्हीं के सहारे वे अपने को महान एवं अनुकरण के लिए प्रामाणिक सिद्ध कर सके हैं। बुद्ध के गृह त्याग का प्रसंग उनके जीवन क्रम से हटा दिया जाय और घर बैठे नौकर चाकर की सहायता से धर्म चक्र प्रवर्तन की संभावना पर विचार किया जाय तो सरलता की बात समझ में आते हुए भी सफलता पूर्णतया तिरोहित हो जाती है। साधनों से भौतिक उत्पादन हो सकता है, पर आत्मिक उपलब्धियों के लिए तो अग्रगामियों का त्याग बलिदान ही एक मात्र उपाय है। जहाँ यह न जुट सका, समझना चाहिए कि वहाँ सब कुछ मखौल बनकर रह जायेगा।

पतन पराभव के गर्त में जनमानस को घसीट कर ले जाने का काम तो घिनौने आदमी भी अपने साधन एवं चातुर्य के बल पर सरलतापूर्वक करते रहते हैं। व्यभिचारी, मद्य व्यवसायी, लेखक, अभिनेता, नायक, वक्ता, ठग, कुचक्री एवं जुआरी जैसे लोगों की कमी नहीं जो असंख्यों को जाल में फँसाने और भले चंगों को बेमौत मरने के लिए विवश करते हैं। प्रतिभाशाली व्यक्तित्व इन कुकर्मों में आश्चर्य जनक सफलता प्राप्त करते देखे जाते हैं। डाकू, हत्यारे, राह जन, उचक्के, तस्कर आदि भी इसी स्तर के होते हैं। वे अपनी प्रतिभा का उपयोग दुुरभि सन्धियों में करते हैं। साथ ही मूछों पर ताव देते हुए सफलता की शेखी भी बढ़- चढ़कर बघारते हैं। इतने पर भी उनका पुरुषार्थ उनके निज का और समस्त समाज का घोर अहित ही करता है। आक्रमणकारियों को छोड़ देें, तो विलासी, संग्रही, स्वार्थी, अनुदार प्रकृति के लोग भी प्रकारान्तर से इसी वर्ग में आते हैं। गर्मागर्म लड़ाई और शीतयुद्ध में देखने का अन्तर तो रहता है, पर परिणाम में प्राय: दोनों ही समान रहते हैं। समय लगने की जल्दी या देरी होने की बात दूसरी है। घुन भी उतना ही हानिकारक होता है जितना कुल्हाड़ा। क्षय के विषाणु भी प्राण हरण तो करते ही हैं, यह बात दूसरी है कि वे छुरा भोंकने जैसा वीभत्स दृश्य उपस्थित न करे। आक्रमणकारी, आततायी और लालची विलासी के बीच प्रत्यक्ष अन्तर हर किसी को विदित है कि एक बड़ा भला, भोला सा लगता है और दूसरा उद्दण्ड उच्छृंखल जैसा। पर जहाँ तक आत्म हनन और लोक पतन का प्रश्र है, दोनों के बीच कोई बड़ा अन्तर नहीं होता।

यही मन:स्थिति है जो मूलत: अकेली ही समस्त समस्याओं के लिए उत्तरदायी है। इसे बदला न जा सका तो इस तथ्य को भी सुनिश्चित समझना चाहिए कि परिस्थितियाँ सुलझेंगी नहीं। ऊपरी लीपा- पोती से इतना ही हो सकता है कि कठिनाई का स्वरुप बदलता रहे। एक सुलझने के साथ- साथ नई आकार प्रकार और नये ढंग- नये रुप की, नये नाम से पुकारी जाने वाली नई विपत्ति खड़ी होती रहे। पेट में सड़न और रक्त में विकृति को यथावत बनाये रखकर कोई रोग मुक्त नही हो सकता। गठिया, सिरदर्द से लेकर सूजन, अकड़न, अपच जैसी असंख्य नाम रूप लक्षण और कष्ट वाली व्यथायें प्रकारान्तर से पेट में आहार की सड़न से ही उत्पन्न होती है। यही है वह मूल कारण जो रक्त को दूषित करने से लेकर सभी उपयोगी अवयवों को दुर्बल क्षति ग्रस्त बनाते बनाते उन्हें रुग्र रहने और अकाल मृत्यु का ग्रास बनने के लिए विवश करता है। कीचड़ कितने चित्र- विचित्र कृमि, कीटक और विषाणु उत्पन्न करती है उसे कौन नहीं जानता। इस दुर्गन्ध से बचने के लिए अगरबत्ती जलाने से नगण्य जितना प्रयोजन ही सिद्ध होता है। स्वच्छता अपेक्षित हो तो सड़ी कीचड़ को हटाने के अतिरिक्त और कोई चारा नहीं। यही तथ्य वर्तमान समस्याओं, कठिनाईयों, विपत्तियों, विभीषिकाओं के लिए लागू होता है। अनेक संकटों से जूझने के लिए अनेक उपाय करने का प्रयोग करने में कोई हर्ज नहीं, किन्तु किसी समाधान कारक परिणाम की आशा नही की जानी चाहिए।

फिर क्या किया जाय? क्या विनाश के अतिरिक्त और कोई मार्ग ही नहीं? इस प्रकार जब निराशा जनक चिन्तन जीवनक्रम को घेरने लगे, तो आशा की किरण एक ही रह जाती है कि मानवी अन्तराल के किसी कोने में प्रसुप्त पड़ी उस शालीनता को जगाया जाय, जिसे आध्यात्म की भाषा में श्रद्धा और बोलचाल में उदार सज्जनता कहा जाता रहा है। यह श्रद्धा और सज्जनता आदर्शवादी तत्वज्ञान को हृदयंगम करने पर ही उभरती है। एक शब्द में इसी को धर्मधारणा कहा है, साम्प्रदायिक हठवादिता और अन्धविश्वासी भावुकता से यदि इस तत्वज्ञान को बचाया जा सके, तो इस एक ही अवलम्बन को डूबते को तिनके का सहारा कहा जा सकता है। भौतिक जगत के संकटों विग्रहों और अन्त:जगत के उद्वेग विक्षोभों का समाधान भी इसी एक केन्द्र बिन्दु पर आधारित है। व्यक्ति भी और समाज भी इसी एक अवलम्बन के सहारे सुखी ही नहीं समुन्नत भी हो सकता है। मन:स्थिति को परिस्थिति की जन्मदात्री माना जा सके और श्रम को सींचने पर पेड़ के हरे- भरे फूले- फले हो सकने पर विश्वास किया जा सके तो उस परिणाम को निश्चय पूर्वक प्राप्त किया जा सकता है, जिसके लिए अज्ञ से विज्ञ तक सभी एक जैसे लालायित हो रहे हैं।

आन्तरिक परिष्कार को यदि व्यष्टि और समष्टि की समस्याओं का समाधान माना जा सके तो फिर करने योग्य एक ही काम रह जाता है कि भौतिक महत्वाकाँक्षाओं और आवश्यकताओं को घटाकर सादगी अपनाने और सादा जीवन- उच्च विचार का सिद्धान्त व्यवहार में उतारने का प्रयत्न किया जाय। विलासी और संग्रही लोक प्रवाह को देखते हुए यह लगता तो कठिन है, पर यदि कोई साहस पूर्वक इस नीति को अपना सके, तो फिर उसके पास प्राय: वह तीन चौथाई सामर्थ्य सदुद्देश्यों के लिए बच जाती है, जो आमतौर से कभी पूरी न हो सकने वाली लालसा लिप्सा के निमित्त अस्त- व्यस्त और नष्ट- भ्रष्ट होती रहती है। लोभ और व्यामोह से ग्रस्त दिग्भ्रान्त जनमानस एक से दूसरे से यह छूत ग्रहण करता है कि उसे बड़ा आदमी बनना चाहिए। योग्यता, तत्परता और परिस्थिति की अनुकूलता न होने पर वैसी सफलता तो कदाचित ही किसी को यत्किंचिंत मात्रा में मिल पाती है, पर जलते झुलसते सभी हैं। सबसे बड़ी हानि यह होती है कि आत्म निर्माण और विश्व कल्याण जैसे महान प्रयोजनों में जिस सामर्थ्य का नियोजन करने में गई गुजरी स्थिति का व्यक्ति भी महामानव बन सकता था, उस सौभाग्य से उसे पूर्णतया वंचित रहना पड़ता है। इतना ही नहीं बहिरंग संकटों और अन्तरंग उद्वेगों की दुहरी फाँसी इस कदर कसी रहती है कि उस घुटन में न जीना बन पड़े और मरना सम्भव हो सके।

नवयुग में जिस दमन को सर्वप्रथम नियोजन करना है, वह है लिप्सा को घटा कर उदात्त को उभारना। इसी में व्यक्ति की महानता है और इसी में समाज की समर्थता, इसे करे कौन?

इसके लिए दशों दिशाओं में दृष्टिपात करने के उपरान्त नजर एक ही केन्द्रबिन्दु पर रुकती है, वह है जागृतों का अग्रगमन। ऐसे अग्रदूतों को यह शुभारंभ अपने निजी दृष्टिकोण में परिवर्तन और जीवन क्रम में हेर- फेर करते हुए करना चाहिए। करना इतना भर है कि औसत भारतीय नागरिक स्तर के निर्वाह साधनों को पर्याप्त माना जाय और महत्वाकाँक्षाओं के क्षेत्र से भौतिक बड़प्पन को निरस्त करके इतना भर सोचा जाय कि प्रगति का वास्तविक स्वरुप वह है, जिसे व्यक्तित्व की संयमशीलता सज्जनता और परमार्थ प्रयोजन में बरती गई उदार परमार्थ परायणता कहा जा सके।






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