प्रज्ञा संस्थानों को नव निर्माण के निमित्त अनेकानेक गतिविधियों को कार्यान्वित करना है। आरम्भ में जन जागरण के लिए जनसम्पर्क की पंच सूत्री योजना का अनिवार्य एवं प्रमुख उत्तरदायित्व सँभालने के लिए कहा गया है, ताकि जन समर्थन और जन सहयोग का लाभ हाथों- हाथ मिल सके। इस पुरुषार्थ के लिए क्षमता चाहिए। नवसृजन में जनशक्ति ही प्रधान है। उसी का उपार्जन करने के लिए पंचसूत्री योजना में विचार परिष्कार की सेवा साधना को प्रत्यक्ष सक्रिय बनाने के लिए यह निर्धारण किया गया है, कि युग चेतना का आलोक सर्वत्र पहुँचाने के लिए घर- घर अलख जगाया जाय और जन- जन से सम्पर्क साधा जाय।
जहाँ उस चरण को पूरा कर लिया गया, वहाँ दूसरा कदम अन्य रचनात्मक कार्यक्रमों को क्रियान्वित करने के लिए उठाना चाहिए। अगले प्रयासों में दो प्रमुख हैं शिक्षा विस्तार और स्वास्थ्य सम्वर्धन। स्वास्थ्य से शरीर और शिक्षा से मन की प्रखरता निखरती है। यदि यह दोनों क्षेत्र गई गुजरी स्थिति में बने रहे तो व्यक्ति दीन- दुर्बल बना रहेगा। उस पर पिछड़ापन ही लदा रहेगा। अशिक्षा और दुर्बलता से छुटकारा पाने के बाद ही सम्पन्नता के स्वप्न देखे जा सकते हैं। हमें क्रमिक प्रगति की व्यावहारिकता अपनानी चाहिए।
अपने देश की जनसंख्या में ७० प्रतिशत अशिक्षित हैं। शिक्षित बनाने की पूरी जिम्मेदारी सरकार पर नहीं छोड़ी जा सकती। उसके लिए बच्चों को पढ़ाना ही कठिन पड़ता है। तब शेष ५० प्रतिशत प्रौढ़ निरक्षरों को शिक्षित बनाने के लिए विशालकाय तन्त्र खड़ा करना और उतना बड़ा व्यय भार उठाना उसके लिए असम्भव है। सम्भव होगा तो नये टैक्सों से दरिद्र जनता की रही बची कमर भी टूट जायेगी। यही संव्याप्त दुर्बलता और रूग्णता के सम्बन्ध में भी है। इस अभिशाप से तो ९० प्रतिशत लोग ग्रसित हैं। उनको पौष्टिक भोजन देने, व्यायाम व्यवस्था बनाने तथा अस्पताल खोलने की बात इतनी बड़ी है, कि उसे सम्पन्न करने के लिए सरकार को समूचा बजट इसी एक काम के लिए नियोजित करना होगा। फिर भी यह आशा नहीं कि आन्तरिक सहयोग के बिना और बाहरी सहायता कुछ कारगर हो भी सकेगी या नहीं।
समर्थ गुरु रामदास ने अपने प्रभाव क्षेत्र के हर गाँव में महावीर मन्दिर बनाये थे। हनुमान की तरह बलिष्ठ और साहसी बनने का लक्ष्य जन- जन के मन में निश्चित कराया था। इस हेतु हर महावीर मन्दिर के साथ एक व्यायामशाला भी अविच्छिन्न रखी थी। बच्चों के लिए शिक्षण और वयस्कों के लिए सत्संग की व्यवस्था की थी। महामना मालवीय ने अपने स्वरचित एक श्लोक में भी जन जागृति के केन्द्रों की रूपरेखा बनाई थी। उसमें ग्रामे- ग्रामे पाठशाला, मल्लशाला, प्रतिपर्व महोत्सव, पाठशाला, व्यायामशाला और पर्व- त्योहारों के आयोजन इन तीन को प्रमुखता दी थी।
समर्थ रामदास और महामना मालवीय का अनुकरण करते हुए प्रज्ञा संस्थानों की स्थापना हुई तथा योजना बनी है। तद्नुरूप उन सभी कार्यक्रमों को क्रियापद्धति में सम्मिलित रखा गया है। पंचसूत्री योजना के अनुसार जन सम्पर्क सधते ही, जन समर्थन और जन सहयोग हस्तगत होते ही उन महत्वपूर्ण कामों में हाथ डालना चाहिए जिन पर लोकमानस का परिष्कार और सत्प्रवृत्ति सम्वर्धन के उभयपक्षीय प्रयोजन सिद्ध हो सकें।
प्रौढ़ शिक्षा का, साक्षरता प्रसार का, शिक्षितों को अधिक शिक्षित बनाने का कार्यक्रम ऐसी पाठशालाओं की स्थापना चाहता है, जो कार्यरतों के अवकाश समय में उन्हें पढ़ाने की सुविधा प्रदान कर सके। निश्चित है कि इसके लिए अन्यमनस्कता हटाकर शिक्षा के लिए उत्साह उत्पन्न करना ही बहुत बड़ा मोर्चा है। वर्तमान परिस्थितियों में यह आशा नहीं की जा सकती कि शिक्षार्थी फीस देकर पढ़ेंगे और अध्यापक वेतन पर रखे जायेंगे तथा पाठशालाओं की निजी इमारतें बनेंगी या किराये पर ली जायेंगी। यह समूचा ढाँचा निशुल्क ही खड़ा करना होगा, अध्यापकों से २ घन्टे समय माँगा जायेगा। जो ऐसी मनोभूमि एवं परिस्थिति में हैं, उतने समय के लिए स्थान भी माँगे ही जायेंगे। धर्मशाला, देवालय, वृक्ष तले जहाँ भी जैसी सुविधा हो यह पाठशालाएँ चलेंगी। जन- जन से सम्पर्क साधकर बाल- वृद्ध, नर- नारी इसके लिए प्रोत्साहित किये जायेंगे, जिससे कि वे पढ़ने का महत्व समझें। निरक्षर से साक्षर बनें और साक्षर आगे की पढ़ाई जारी रखें। आवश्यक नहीं कि यह प्रशिक्षण सरकारी पाठ्यक्रम के अनुरुप ही हो। आज की परिस्थितियों में जो सोचना एवं करना है उन सभी दैनिक जीवन से सम्बन्धित समस्याओं की जानकारी एवं प्रवीणता बढ़ाने वाली शिक्षण प्रक्रिया निर्धारित की जा सकती है। विदेशों में ऐसे सामयिक स्कूलों की भरमार रहती है, जिनमें व्यक्ति अपनी रूचि एवं आवश्यकता के अनुरूप अपनी योग्यता वृद्धि कर सकें। ऐसा ही तन्त्र प्रज्ञा संस्थानों को अपनी इमारतों में बिठाना पड़ेगा। लोगों की इच्छा, आवश्यकता तथा मिशन की योजना का सम्मिश्रण करते हुए एक आकर्षक एवं दूरदर्शितापूर्ण पाठ्य विधि का निर्धारण तनिक भी कठिन नहीं हैं। अगले दिनों वही करना भी है। फिर जहाँ सुविधा भी है वहाँ आज से ही उसका शुभारम्भ क्यों न किया जाय।
शिक्षा प्रसार के अतिरिक्त दूसरा कदम है स्वास्थ्य सम्वर्धन। इसके लिए ऐसे स्वास्थ्य केन्द्र बनने चाहिए, जहाँ आहार- विहार सम्बन्धी वर्तमान कुप्रचलनों की हानियाँ तथा उनमें जो सुधार बिना कठिनाई के सम्भव है, उसकी उपयोगी प्रक्रिया समझाई जानी चाहिए। उन केन्द्रों में व्यायामशाला का एक पक्ष निश्चित रूप से जुड़ा रहे। इस प्रयास में न केवल स्वास्थ्य रक्षा वरन् साहसिकता और कौशल की अभिवृद्धि भी सम्मिलित है। लाठी, तलवार और शस्त्रों के चलाने का अभ्यास करने से आत्म विश्वास एवं शौर्य साहस की प्रवृत्तियाँ परिपक्व होती है। भले ही उन्हें चलाने की आवश्यकता कभी भी न पड़े।
कुछ ही दिनों पूर्व गाँव- गाँव अखाड़े थे। खेलकूदों का सभी को शौक था। दंगल और प्रतियोगिताएँ होती थी। तब लोगों का स्वास्थ्य और मनोबल बढ़ा- चढ़ा रहता था। आज वह शौक सिमटता, उठता जा रहा है। टूर्नामेन्ट, एशियाड, ओलम्पिक आदि बड़े लोगों के शुगल भारी खर्चीले होते हुए भी चलते रहते हैं। पर जन जीवन से उनका कोई सीधा सम्बन्ध नहीं। गाँव- गाँव खेलकूदों, व्यायामों, प्रतियोगिताओं के सहारे सर्व साधारण की स्वास्थ्य रक्षा प्रवृत्तियों को बढ़ाया जा सकता है। इस दिशा में दूसरे लोग उपेक्षा बरतते हैं बरतते रहें, पर हमें तो प्रसुप्त और उपेक्षित सत्प्रवृत्तियों को नये सिरे से उभारना है। प्रज्ञा अभियान के व्यायाम आन्दोलन को न केवल शारीरिक श्रम अभ्यास के रूप में, वरन् स्वास्थ्य रक्षा के सभी पक्षों को सम्मिलित रखते हुए आगे बढ़ाना है। शरीर संरचना की जानकारी प्राथमिक चिकित्सा, परिचर्या, आहार- विहार सम्बन्धी सभी आवश्यक जानकारियाँ, खेलकूद, आसन प्राणायाम, शस्त्र संचालन आदि सभी आवश्यक विषयों में सम्मिलित रखकर ही एक समग्र स्वास्थ्य आन्दोलन का स्वरूप बनता है। प्रज्ञा संस्थानों को अपने संरक्षण में इसी ढाँचे को खड़ा करना चाहिए। शिक्षा और स्वास्थ्य को समान महत्व देते हुए इन दोनों ही रचनात्मक कार्यक्रमों को अपने हाथ में लेना चाहिए। जहाँ भी छोटे- बड़े प्रज्ञा संस्थान बने है वहाँ अनिवार्य रूप से और जहाँ वैसा कुछ नहीं बन सका है वहाँ प्रज्ञा परिजनों द्वारा यह प्रक्रिया निजी रूप में कार्यन्वित की जानी चाहिए। कोई सार्वजनिक स्वरूप न बन पड़े तो कम से कम इतना तो होना ही चाहिए कि हर घर परिवार में उपरोक्त दोनों ही रचनात्मक कार्यक्रमों को क्रियान्वित किया जाय। परिवार भी एक छोटा सा समुदाय है। उस क्षेत्र में इन दोनों प्रयोगों के लिए गुंजायश रहती है। नियमित अध्ययन न बन पड़े तो स्वाध्याय सत्संग की कोई न कोई परिपाटी रात्रि के अवकाश काल में चल सकती है। अत: नित्य कर्म से निवृत्ति होने के समय ही पन्द्रह मिनट से लेकर आधे घण्टे तक का एक कार्यक्रम सरल व्यायाम के रूप में आसन- प्राणायाम का भी रखा जा सकता है। जिन्हें बाहर मैदान में सामूहिक रूप में कुछ करने की सुविधा नहीं है, उनके लिए आँगन या छत पर भी इस प्रयोग में कठिनाई नहीं हो सकती। अड़चन मात्र एक ही है कि जिस प्रक्रिया का पूर्व अभ्यास नहीं है उसे नये सिरे से किस प्रकार आरम्भ किया जाय। इसमें थोड़े से साहस और उत्साह की आवश्यकता आरम्भ में तो पड़ेगी पर जहाँ एक सप्ताह यह ढर्रा चल पड़ा, समझना चाहिए कि वहाँ एक अत्यन्त उपयोगी परम्परा का प्रयत्न आरम्भ हो गया और उसके दूरगामी परिणाम निकट भविष्य में ही दृष्टिगोचर होने लगेंगे।
उपरोक्त दोनों बड़े कामों को बड़े रूप में आरम्भ करने से पूर्व यह अधिक सरल एवं सुविधाजनक रहेगा कि छोटे रूप में उनका श्रीगणेश किया जाय। उसमें अपेक्षाकृत सफलता भी अधिक रहेगी, और सरलता की सम्भावना भी अधिक मात्रा में रहेगी।
शिक्षा और स्वास्थ्य सम्वर्धन की संयुक्त प्रक्रिया पाँचवी कक्षा के बालकों से लेकर आठवी कक्षा तक के बालकों से आरम्भ की जाय। उनके लिए ट्यूटोरियल कक्षाएँ चलाई जाय। सरकारी स्कूलों की पढ़ाई भर से आजकल काम नहीं चलता। ट्यूशन की मोटी राशि देकर मास्टरों को घर बुलाने की मन:स्थिति हर अभिभावक की नहीं होती। ऐसी दशा में बालकों को अच्छी श्रेणी में उत्तीर्ण हो सकना कठिन पड़ता है। अपने मन से अकेले पढ़ते रहे ऐसा उनका स्वभाव नहीं होता। फेल हो जाने या डिवीजन बिगड़ जाने पर उनका मनोबल टूट जाता है और कितने ही सदा के लिए पढ़ना छोड़ देते हैं। थर्ड डिवीजन पास होने पर भविष्य नहीं बनता। इन कठिनाइयों का समाधान यह है कि प्रज्ञा संस्थानों द्वारा बाल संस्कार पाठशालाएँ उनके स्कूली समय को छोड़कर चलाई जाय। फीस कुछ भी न ली जाय। इस पाठशाला में अनेकों छात्र आग्रहपूर्वक सम्मिलित होंगे। आम पाठक भी खुशी- खुशी उन्हें भेजेंगे। इस दृष्टि से भी कि स्कूली समय से अवकाश मिलने पर दंगा मचाते, आवारागर्दी में घूमते और कुसंग में पड़कर भविष्य बिगाड़ते हैं। इस झंझट से बचने के लिए भी हित इसी में है कि बच्चे इन बाल संस्कार के निमित्त बनाई गई प्रज्ञा पाठशालाओं में पढ़ने जाया करें। इसमें अच्छे नम्बरों से उत्तीर्ण होने और संस्कार प्राप्त करने का दुहरा लाभ है।
जिस प्रकार अन्य कामों के लिए विचारशील उदार चेताओं से समय माँगा जाता है, उसी प्रकार पाठशालाओं में पढ़ने के लिए बिना मूल्य पुरुषार्थियों से समय देते रहने के लिए आग्रह किया जा सकता है, जिनका ऐसे कार्यों में उत्साह है। आवश्यक नहीं कि सेवा निवृत्त ही यह उत्साह दिखायें। व्यवसाय नौकरी आदि रहते हुए भी इस हेेतु समय दे सकने वाले और पाठशाला के समय पर पढ़ाने के लिए पहुँचते रहने वाले लोग तलाश करने पर अवश्य ही मिल सकते हैं। एक बार समूचे गाँव के हर घर में टोली बनाकर पहुँचा जाय और उपरोक्त कक्षाओं के बारे में बच्चों के अभिभावकों को उसके लाभों से अवगत कराया जाय, तो पहले दिन के प्रयास में ही शिक्षार्थियों की भर्ती उत्साहवर्धक संख्या में हो सकती है।
स्थान की दृष्टि से प्रज्ञा संस्थानों का हाल बरामदा या आँगन इस प्रयोजन के लिए सर्वोत्तम है। इससे उपयोगी सेवा साधना में संलग्न होने से संस्थानों की गरिमा बढ़ती है और जन- जन की सहानुभूति अर्जित होती है। बच्चों से प्रयास आरम्भ करना इसलिए सरल है कि उसकी व्यवस्था बनाने में कहीं भी कठिनाई नही हो सकती। जबकि प्रौढ़ नर नारियों को पढ़ना आरम्भ करने के लिए सहमत करना कठिन है। वे इसमें अपनी हेटी समझते हैं और संकोचवश आनाकानी करते हैं। बच्चों को समझाने पर उनमें से कितने ही समझ भी जाते हैं। पर वह कार्य हमें आगे कभी के लिए छोड़ देना चाहिए। श्रीगणेश बालकों की पाठशाला से करना चाहिए।
इस प्रयोजन के लिए ५ वी, ६ वी, ७ वी, ८ वी कक्षाओं के लिए एक प्रश्रोत्तरी बनायी जाएगी, जिसमें हर कक्षा के बच्चों के दैनिक जीवन में आने वाले प्रसंगों में अध्यात्म दर्शन का समावेश करने वाले समाधान प्रस्तुत किये जायेंगे। यह चार प्रश्रोत्तरी ही उपरोक्त कक्षाओं की विशिष्ट पाठ्य पुस्तक होगी। इसके अतिरिक्त सारा पाठ्यक्रम सरकारी रहेगा। जो स्कूलों में पढ़ाया जाना है, उसी को परिपक्व कराया जायेगा ताकि ट्यूशन पढ़ाने की आवश्यकता न रहे। साथ ही परीक्षा में उत्तीर्ण होने की सम्भावना सुनिश्चित रहे।
व्यायाम आन्दोलन भी अगले दिनों किशोरों, युवकों एवं प्रौढ़ों को सम्मिलित करते हुए चलाया जाना है, पर अभी इतना हो सकता है कि उपरोक्त चार कक्षाओं के जो बालक प्रज्ञा संस्थान की पाठशाला में पड़ने आया करें उन्हीं को आधा घण्टे का खेलकूद, स्काउट, ड्रिल, फस्ट एड परिचर्या, आसन- प्राणायाम आदि का भी कार्यक्रम जुड़ा रखा जाय। इस प्रयोजन के लिए यह प्रक्रिया एक सुगम व्यायाम के रूप में प्रचलित की जा रही है। उसमें शरीर के प्राय: सभी अंग अवयवों का व्यायाम हो जाता है। साथ ही श्वास- प्रश्वास क्रिया से सम्बन्धित प्रयासों का भी ऐसा प्रभाव रहता है, जो मनोबल एवं बुद्धि वैभव बढ़ाने में उपयुक्त योगदान दे सकें। यह आसन व्यायाम क्रम ऐसा है जिसे न केवल पाठशाला में, वरन् घर में बालकों, महिलाओं तथा वृद्धों को भी सिखाया कराया जा सकता है। जो पाठशाला नहीं जा सकते उनके लिए भी यह आधा घण्टे की व्यायाम कक्षाएँ ऐसी हैं जो मुहल्ले- मुहल्ले सत्र व्यवस्था के अनुरूप लगाई जा सकती हैं।