जनशक्ति को नव सृजन में जुटाया जाय

सौरमण्डल तथा विश्व ब्रह्माण्ड में अगणित ग्रह नक्षत्र विद्यमान है। उनमें सर्वश्रेष्ठ और सुरम्य यह पृथ्वी ही क्यों बनी? इसके उत्तर में जहाँ प्रकृति संरचना को श्रेय दिया जायेगा, वहाँ मानवी कौशल को भी कम नही सराहा जायेगा। पदार्थ में गति और ऊर्जा है, पर वह स्थिति अन्य लोकों में भी तो है। इस चित्र सी सुसज्जित और गुड़िया सी आकर्षक बनी हुई पृथ्वी को वर्तमान स्तर तक पहुँचाने में मानवी क्षमता और कुशलता ने कम योगदान नहीं दिया है। यदि वैसा न बन पड़ा होता तो इस धरती का स्वरूप भी खाई खड्डों से भरे हुए चन्द्रमा की तरह किसी अनगढ़ जैसा ही बना रहता। उस पर वन्य जीव ही निवास करते। सभ्यता और सुव्यवस्था तो मानवी सूझबूझ का प्रतिफल है। इसकी महत्ता स्रष्टा की संरचना से यत्किंचित् ही कम है।

बुद्धि और श्रम के समन्वय से विनिर्मित होने वाले मानवी कौशल को जिस भी भले- बुरे प्रयोजनों में निरत किया जाता है, उसी में चमत्कार उत्पन्न हो जाता है। बात रुझान भर की है। उसके मुड़ते ही शक्ति की अजस्र धारा बहने लगती है। और देखते- देखते अपने कर्तृत्व का आश्चर्यजनक परिचय देने लगती है। समुदायों के संयुक्त प्रयासों की परिणति है कि यहाँ अनेकानेक सुयोग संयोग बने और सफलताओं के पर्वत खड़े हो गए। शिक्षा, चिकित्सा, कृषि, पशु पालन, व्यवसाय, कला विज्ञान आदि के अनेकों उपयोगी प्रसंग ऐसे हैं, जिन्हें मनुष्य जाति के वर्ग विशेषज्ञों ने अपने रुझाान, कौशल को तत्परता पूर्वक नियोजित किए रहकर खोजा और समुन्नत बनाया। शास्त्रकार ने सच ही कहा है कि ‘एक रहस्य बताते हैं- मनुष्य से बढ़कर इस संसार में और कुछ नहीं। और कुछ नहीं के शब्द से यह ध्वनि भी निकलती है कि परमेश्वर भी नहीं।’ परमेश्वर ने यह विश्व ब्रह्माण्ड सृजा है यह सही है। पर गलत यह भी नहीं है कि परमेश्वर को वर्तमान स्तर की मान्यता प्रदान करने में मानवी कल्पना एवं स्थापना को ही श्रेय दिया जायेगा। अन्यथा वह विश्व व्यवस्था की एक अदृश्य एवं अविज्ञात शक्ति भर बना रहता। अन्य प्राणियों की तरह मनुष्य भी उससे अपरिचित ही बना रहता। संसार में गतिशील सत्प्रवृत्तियों के रूप में परमेश्वर का प्रत्यक्ष दर्शन किया जाता है। यह भी मनुष्य की अपनी संरचना शक्ति का एक महान उपहार है।

इस प्रसंग पर जितना अधिक विचार किया जाय उतना ही यह तथ्य उभरता आता है कि मानवी सृजन क्षमता अद्भुत है। उसका जितना गुणगान किया जाय उतना ही कम है। न केवल सत्प्रवृत्तियों के रूप में वरन दुष्प्रवृत्तियाँ उभारने में भी उसी ने कमाल किया है। उदाहरण के लिए जीभ का चटोरापन, कामुकता का दर्शन, छल प्रपंचों का कुचक्र, आक्रामकता का विधान भी उसी का अपना चमत्कार है। मात्र भाषा, कला, दर्शन, धर्म, सम्प्रदाय ही उसने नहीं सृजे हैं। पदार्थ विज्ञान की तरह अध्यात्म विज्ञान का ढाँचा खड़ा करने और उसके प्रयोगों को क्रियान्वित करने में प्रयुक्त हुए मानवी पुरुषार्थ को शतमुख से सराहा जायेगा। वन्दनीय भगवान ही नहीं है, मनुष्य का सृजन कौशल भी है। सामर्थ्य की दृष्टि से भी वह कुछ ही हलका पड़ता है। स्रष्टा ने यह धरती बनाई यह सही है। पर परमाणु युद्ध की जैसी तैयारी चल रही है उसे देखते हुए यह कहने में भी अतिश्योक्ति नहीं कि वह प्रस्तुत विनाश साधनों का प्रयोग करके कुछ ही क्षण में इस भूलोक को धूलि के रूप में परिणत कर सकता है और अन्तरिक्ष के किसी कोने में धुँए का बादल बनकर भ्रमण करने लगने के लिए विवश कर सकता है। यह स्रष्टा की क्षमता न सही, प्रतिद्वन्द्विता तो हो गई न?

मानवी गरिमा की प्रशंसा में एक और उदाहरण शासन तन्त्र खड़ा करने का है। अस्त- व्यस्तता को व्यवस्था में बदलने, प्रगति के द्वार सुनियोजित ढंग से खोलने तथा उद्दण्डता पर अंकुश रखने जैसे प्रगति और शान्ति के लिए आवश्यक कार्यों में सरकार का असाधारण योगदान रहता है। सुधार का आक्रोश व्यक्त करने वाले भी यह जानते हैं कि अराजकता का न तो प्रतिपादन हो सकता है और न उस स्थिति में निर्वाह चल सकता है। शासन की उपयोगिता और क्षमता से सभी परिचित हैं, फलतः आलोचक भी उसमें प्रवेश पाने के लिए प्रयत्नशील रहते हैं। सरकार से अनेकानेक अपेक्षाएँ की जाती हैं। किन्तु उसकी अपनी सीमाएँ और दुर्बलताएँ हैं। फलतः सृजन और सुधार की बढ़ती हुई आवश्यकताओं की शत प्रतिशत पूर्ति के लिए उसी का आश्रय तकते रहने से काम नहीं चलेगा।

सुरक्षा, व्यवस्था, प्रगति, नियमन जैसे काम ही अब क्रमशः इतने भारी हो गए हैं कि सरकार के लिए उतना बोझिल शकट खींच सकना ही कठिन पड़ता है। बढ़ती हुई जनसंख्या, महत्वाकांक्षा एवं आवश्यकता का तालमेल बिठाने की सारी जिम्मेदारी सरकार पर ही नहीं छोड़ी जा सकती। तानाशाही में भी जन सहयोग ही उभारना पड़ता है। फिर प्रजातन्त्र में तो यह और भी आवश्यक है कि प्रबुद्ध और स्वतन्त्र जनता अपने बलबूते भी प्रस्तुत उत्तरदायित्वों का एक बड़ा भाग अपने कंधों पर उठाए और सरकार को अपने सीमित उत्तरदायित्वों को ही सही रूप में सम्पन्न करने की सुविधा प्रदान करें।

वैसे भी सब काम सरकार कहाँ करती है। किसका गृह प्रबन्ध सरकार करती है? किसकी दिनचर्या में उसका हस्तक्षेप होता है? विवाह शादियाँ सरकार थोड़े ही करती है? भली या बुरी राह अपनानें के लिए सरकार किस- किस को कंधे पर बिठाये फिरती है? स्वच्छता, आजीविका, प्रजनन, रुझान, स्वभाव, अभ्यास मनुष्य की अपनी मर्जी पर निर्धारित रहते हैं। इन्हीं प्रयासों में दुष्प्रवृत्तियों का उन्मूलन और सत्प्रवृत्तियों का संवर्धन भी सम्मिलित है। जन मानस के समर्थन उत्साह की न्यूनाधिकता से ही उनमें घटोतरी- बढ़ोतरी होती है। अतिक्रमण का नियमन ही सरकार का काम है, अधिक से अधिक यह हो सकता है कि वह सुविधा- संवर्धन के कुछ ढांचे खड़े करे, सरंजाम जुटाये पर उनकी सफलता का श्रेय भी जन सहयोग पर निर्भर रहता है। वह न मिले तो अकेले अफसर ही सारा काम कहाँ कर सकेंगे?

बढ़ती हुई सामयिक आवश्यकता की पूर्ति के लिए जागृत जनमानस को अपनी भूमिका निभानी चाहिए और जनशक्ति को उस प्रसंग के लिए उत्साहित एवं संगठित करना चाहिए। स्मरण रहे सूर्य, पवन जैसे प्रकृति उपहारों की तरह जन शक्ति का रुझान एवं प्रवाह भी तूफानी क्षमता से भरपूर है। उपेक्षा होती रहे तो बात दूसरी है, अन्यथा उसके सहारे कठिन से कठिन कार्य सरल हो सकते हैं। बिखरी रही तो वह अस्त- व्यस्त भी रह सकती है। ध्वंस में लगे तो वह विनाश के घटाटोप भी खड़े कर सकती है। साथ ही यह भी तथ्य है कि यदि उसे सृजन प्रयोजनों में लगा दिया जाये, तो देखते- देखते सतयुग जैसे दृश्य खड़े हो सकते हैं। मनुष्य का देवत्व उभारने का प्रवाह यदि वह चले, तो धरती पर स्वर्ग जैसे वातावरण के अवतरण में तनिक भी सन्देह न रहे।

इसके लिए किसी व्यक्ति विशेष या तंत्र पर निर्भर नही रहा जा सकता है। शक्ति के उद्गम का आश्रय लेना पड़ेगा। यह उद्गम और कुछ नहीं जन समुदाय के रुझान एवं प्रयास का समन्वय भर है। यही है दुर्दान्त दैत्य। यही है विभूतिवान देव। यह दोनों ही जन शक्ति के प्रवाह भर हैं। उनकी सामर्थ्य प्रचण्ड तूफानों से बढ़कर उन्हें वर्षा, शीत, ग्रीष्म जैसे मौसम कहा जा सकता है, जो देखते- देखते परिस्थितियों को उलट- पुलट करके रख दे। महान क्रान्तियों के इतिहास में इसी को बाजीगर की भूमिका निभाते और कठपुतली के चित्र विचित्र तमाशे दिखाते पाया गया है।

आज दुष्प्रवृत्तियों के उन्मूलन का एक महायुद्ध लड़ने जैसा प्रसंग सामने है। नयी आवश्यकताओं के अनुरूप नये सृजन उपक्रमों को बड़े परिमाण में खड़े किए जाने का काम भी युग चुनौती के रूप में प्रस्तुत है। उन्हें लंकाकाण्ड और महाभारत के समतुल्य माना जा सकता है। गोवर्धन उठाने और समुद्र सेतु बाँधने से यह किसी प्रकार भी कम नहीं है। ऐसे- ऐसे अनेकों प्रयोजनों के लिए जिस अवतार की आवश्यकता है, वह जन शक्ति की सृजनात्मक क्षमता का उभार ही हो सकता है। इसी के अवतरण की अभ्यर्थना जागृत आत्माओं को मिल जुलकर करनी चाहिए। समूची विश्व व्यवस्था को प्रभावित करने वाले महान प्रयोजन इससे कम में नहीं सध सकते। यह हस्तगत हो सके तो समझना चाहिए कि असंभव नाम की कोई बात इस दुनिया में रह नहीं गई। मनुष्य समुद्र की लहरों और सूर्य की किरणों की सामर्थ्य से संसार की ऊर्जा आवश्यकता जुटा लेने की बात सोचता है। उसे यह भी सोचना चाहिए कि शक्ति का प्रवाह दिशा विशेष में मोड़ देने भर से समुद्र मंथन जैसी पुनरावृत्ति हो सकती है और एक से एक बढ़कर सुखद संभावनाओं के बहुमूल्य रत्न निकाले जा सकते हैं। जहाँ- तहाँ भटकने की अपेक्षा हमें इसी कल्पवृक्ष का आश्रय लेना और प्रस्तुत विभीषिकाओं से निपटने के लिए जन शक्ति के वरिष्ठ पक्ष का द्वार खटखटाना चाहिए।

शासन तंत्र खड़ा करने के आवश्यक साधन जनता ही टैक्स देकर जुटाती है। उसकी सामर्थ्य इतनी सीमित नहीं है कि टैक्स देने के अतिरिक्त और कुछ बनता ही नहीं। धर्म का स्वरूप भले ही विडम्बना जैसा रह गया हो, फिर भी उसके लिए अपने देश में अरबों खरबों की धनराशि हर साल लगती है। साठ लाख बाबाओं का तो धर्म ही व्यवसाय है। मन्दिर मठों, पंडे पुरोहितों, अनुष्ठान समारोहों का खर्च इसके अतिरिक्त है। जनता इसे स्वेच्छापूर्वक वहन करती है। यह भार शासन पर होने वाले व्यय जितना ही जा पहुँचता है।

इसके अतिरिक्त नशेबाजी का लेखा- जोखा लिया जाये, तो उस निमित्त भी प्रायः उतनी धन शक्ति और जन शक्ति का नियोजन होता है, जितना कि सरकार चलाने में। अन्धविश्वासों, कुरीतियों और अवांछनीयताओं के निमित्त लगने वाली जन शक्ति का मूल्यांकन करने पर प्रतीत होता हैै कि इनका खर्च भी असाधारण है। इस स्वेच्छा पूर्वक अपनाये और उठायें जाने वाले भार को जन शक्ति प्रसन्नतापूर्वक अभ्यस्त ढर्रे के अनुरूप अनायास ही वहन करती है। उसमें इसके अतिरिक्त भी इतनी गुंजायश है कि नव सृजन के लिए जिन साधनों की आवश्यकता है, उन्हें तनिक सा दिशा निर्देश मिलने और उत्साह उभरने पर सहज ही प्रस्तुत कर सके। फिल्म देखने, जेवर पहनने, सजधज- ठाठबाठ बनाने पर जितना समय और धन खर्च होता है, उतना भी यदि समय की महती आवश्यकताओं की पूर्ति में नियोजित हो सके, तो समझना चाहिए कि युग बदल गया। विनाश का संकट टल गया और उज्ज्वल भविष्य का सुनिश्चित सरंजाम जुट गया।

जन शक्ति अपने ढंग से अस्त- व्यस्त दिशा में बहती है। हवा के झोंके उसे हलके पत्ते की तरह इधर- उधर उड़ाते झुकाते रहते है। पर यदि उसे कोई मूर्धन्य चेतना उपयुक्त दिशा दे सके, तो समझना चाहिए कि वह गोली की तरह सनसनाती हुई लक्ष्य बेधने में निश्चित रूप से सफल होकर रहेगी। मनस्वियों ने समय- समय पर लोक मानस को दिशा दी है। सम्प्रदाय इसी आधार पर बने हैं। संस्कृतियों का सृजन किन्हीं मूर्धन्यों के नेतृत्व में हुआ है। राजक्रान्तियों के लिए इसी ने सिगनल गिराये और इंजन दौड़ाये हैं। प्रचलित कुप्रथाओं और अवांछनीयताओं का इतिहास खोजना हो तो प्रतीत होगा कि इसके पीछे भी कुछ ऐसे बाजीगर छिपे बैठे हैं, जिनने जन मानस को उकसाया और रीछ- बन्दरों की तरह नचाया है। यदि दुष्प्रयोजनों के लिए यह सब हो सकता है, तो कोई कारण नहीं कि सृजनात्मक सत्प्रयोजनों के लिए इस प्रवाह को न मोड़ा- मरोड़ा जा सके।

कुछ तात्कालिक आवश्यकताएँ ऐसी है जो अनिवार्य स्तर की हैं और अविलम्ब अपना हल मांगती हैं- () निरक्षरता निवारण () दरिद्रता का निष्कासन () हरीतिमा अभिवर्धन () स्वास्थ्य संवर्धन () सहकारिता प्रचलन। इनके लिए कुछ सृजनात्मक प्रयास इन्हीं दिनों आरम्भ करने होंगे। प्रौढ़ पाठशालाओं की स्थापना, गृह उद्योगों की सहकारी व्यवस्था, घरेलू शाक वाटिका से लेकर धान्य उत्पादन एवं वृक्षारोपण तक में उत्साह, व्यायाम शालाओं से लेकर स्वच्छता सुव्यवस्था का अभियान, सहकारी प्रवृत्तियों का विस्तार, संगठन के सृजन तंत्र जैसे कार्यों को इन्हीं दिनों हाथ में लिया जाना है। यह सभी कार्य कोई एकाकी नहीं कर सकता। जनता के विज्ञपक्ष की सद्भावनाएँ उभारकर उन्हें सृजन सेवातंत्र के अन्तर्गत संगठित और प्रयत्नरत किया जा सकता है।

उन्मूलन के क्षेत्र में नशेबाजी, खर्चीली शादियाँ, जातिगत ऊँच- नीच नर और नारी की मध्यवर्ती खाई, मूढ़मान्यताएँ, अनीतिजन्य विभीषिकाएँ जैसे कितने ही मोर्चे ऐसे हैं जिन पर अविलम्ब मोर्चा खोलने की आवश्यकता है। स्मरण रहे- सृजन और उन्मूलन की उभयपक्षीय विधि व्यवस्थाएँ ऐसी है जिनके लिए सरकार, सम्पन्न और विद्वान अपनी सीमित सामर्थ्य के आधार पर सम्पन्न नहीं कर सकते। इसके लिए लोक चेतना के सृजनात्मक तत्वों को ढ़ूँढ़ना, उभारना और जुटा देना यदि बन पड़े तो समझना चाहिए कि निराशा को आशा में बदल देने वाली व्यवस्था बन गई। तमिस्रा को निरस्त करने वाली प्रभात बेला आ गई। इससे कम में छुटपुट प्रयासों स स्थानीय एवं सामयिक समस्याओं के तात्कालिक हल भले ही निकलते रहें, स्थायी समाधान संभव न हो सकेंगे।

दफ्तरों में बैठकर कागजी योजनाएँ बनाने और लिखने बोलने के साथ कर्तव्यों की इतिश्री कर लेने की विडम्बना लम्बे समय से चलती रही है। उस विडम्बना की विडम्बना भी सर्वविदित है। फिर क्यों उसी पिसे को पीसते रहा जाय? क्यों न जन सम्पर्क में उतरा जाय? क्यों न पुरातन काल जैसी घर- घर अलख जगाने वाली प्रक्रिया को पुनर्जीवित किया जाय? यह हो सकता है। यही होना भी चाहिए। प्रश्न एक ही रह जाता है कि इसे करे कौन? इसका उत्तर पाने के लिए भी जिस- जिस की मनुहार करने की आवश्यकता नहीं। कार्तिकी अमावस्या की तमिस्रा दूर करने के लिए जब सूर्य- चन्द्र ने उपेक्षा दिखायी तो छदाम मूल्य वाले दीपकों ने जलने का व्रत लिया था और दीवाली के पुण्यपर्व का शुभारम्भ किया था। प्रज्ञा परिजनों की जागृत आत्माएँ क्यों उस उत्तरदायित्व का वहन नहीं कर सकती? इतने महान प्रयोजन के लिए लोभ और व्यामोह की क्षुद्रता पर थोड़ा अंकुश क्यों नही लगा सकती? समय की समस्याओं के समाधान हेतु जन शक्ति जुटाने की भागीरथी साधना में हमें स्वयं ही संलग्न होना चाहिए।

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