परिवार संस्था समर्थ और सशक्त बने

परिवार निर्माण एक ऐसी प्रक्रिया है, जिसके माध्यम से आत्म निर्माण और समाज निर्माण के दोनों उद्देश्य अनायास ही पूरे होते चलते हैं। तालाब में तैरना यों एक सामयिक और सीमित अभ्यास है। पर उससे तैराकी के बहाने शिक्षार्थी अपने अंग- प्रत्यंगों को विशेषतया फेफड़ों को मजबूत बनाने का लाभ उठाता है। साथ ही आवश्यकतानुसार किसी नदी, तालाब को पार करने, डूबते को बचाने जैसी विशेषताओं से अपने को सुसम्पन्न बनाता है। व्यायामशाला में कसरत करना भी एक सामयिक अभ्यास है। उसे करते समय स्फूर्ति, साहसिकता का परिचय भर मिलता है। किन्तु प्रवीणता आने पर शरीर सुडौल और बलिष्ठ होने के कारण साथियों पर छाप छोड़ने, शत्रुओं को आतंकित करने, दंगल में कुश्ती जीतने, व्यायाम शिक्षण पाने जैसे अन्यान्य लाभ उठाना भी सम्भव हो जाता है। परिवार निर्माण को इसी स्तर का कार्य समझना चाहिए, जिसमें तत्काल तो अर्थ सन्तुलन, सद्व्यवहार, स्नेह सौहार्द्र सुसंस्कृत वातावरण सभी के लिए प्रगति अवसर जैसे लाभ मिलते हैं और उस व्यवस्था को देखने वाले सराहना करते- करते नहीं थकते। यह प्रत्यक्ष लाभ हुआ। दूरवर्ती और परोक्ष लाभ इसके अतिरिक्त हैं।

स्वभावतः परिजनों के प्रगतिशील, समुन्नत, यशस्वी, समृद्ध एवं सुसंस्कृत होने की आकाँक्षा रहती है। यह शुभेच्छा मात्र कल्पना करने या आशीर्वाद देने से सम्भव नहीं हो जाती। इन्हें फलित करने के लिए उस वातावरण को समर्थ बनाना पड़ता है, जिसमें पलकर किसी अनगढ़ को सुगढ़, अविकसित को समुन्नत बनने का अवसर मिलता है। जलवायु की अनुकूलता में वृक्ष वनस्पतियाँ फलित होती हैं। प्रतिकूलता रहने पर बहुमूल्य पौधे भी सूखते, दम तोड़ते देखे गये हैं। यही बात प्राणियों के सम्बन्ध में भी है। समर्थ वर्ग के जीव- जन्तु भी अनुपयुक्त परिस्थितियों में दुर्बल, रुग्ण रहने और अस्तित्व गँवाने लगते हैं। मनुष्य की आत्म सत्ता महान अवश्य है, किन्तु उसको भी सांस लेनी पड़ती है। घुटन भरे घेरे में रहकर उसे अपनी स्वाभाविक चेतना से हाथ धोना पड़ता है। विष खाने से ही नहीं विषाक्त गैस से भी मृत्यु होती है। व्यक्ति के निजी दोष- दुर्गुण प्रगति पथ में जितना अवरोध उत्पन्न करते हैं, उससे कम नहीं कुछ अधिक ही बाधा उस वातावरण के कारण उत्पन्न होती है जो परिवार में कुसंस्कारी परिस्थितियों के कारण बना होता है।

कल्पना एक बात है, योजना दूसरी। योजना एक बात है और व्यवस्था दूसरी। व्यवस्था एक बात है और तत्परता दूसरी। कुटुम्बियों को सुखी समृद्ध देखने की कल्पना शुभेच्छा उचित भी है और स्वाभाविक भी। पर उतने भर से काम कुछ नहीं बनता। कल्पना तो सिंहासनरूढ़ होने या आसमान के तारे तोड़ लाने की भी हो सकती है। पर उसका कोई आधार न बनता हो, तो शेखाचिल्ली जैसी उपहासास्पद ही बनना पड़ेगा।

छोटे से लेकर बड़े कामों तक की व्यावहारिक योजना बनानी पड़ती है। उसे क्रियान्वित करने में तन्मयता एवं तत्परता नियोजित करनी पड़ती है। आवश्यक साधन जुटाने होते हैं। पानी के ढलान की तरह क्रम सहज लुढ़कने लगता है। पर सदुद्देश्यों के लिए, सृजनात्मक प्रयास खड़े करने और उन्हें गतिशील रखने में अनवरत प्रयास की आवश्यकता पड़ती है। पतन पथ पर पानी से लेकर ढेले तक को सहज लुढ़कते देखा जा सकता है। वे जब तक जीवित हैं तब तक बिना किसी प्रेरणा के अधिक गहरे गर्त में गिरने के लिए स्वयमेव बढ़ते रह सकते हैं।

उत्कर्ष की बात दूसरी है। उसके लिए निरन्तर शक्ति जुटानी पड़ती है। कुँए से पानी खींचने में हाथ रुकने से वह जहाँ का तहाँ रुक जाता है। छत पर चढ़ने के लिए जब तक पैर बढ़ेंगे तभी तक प्रगति होगी। रुकते ही सब कुछ ठप्प हो जायेगा। गिरने का क्रम अलग है और उठने का दूसरा। ढेला ऊपर फेंकना हो तो वह प्रयत्न उतनी ही दूर तक सफल होगा जब तक उसके पीछे फेंकने वाले की शक्ति काम करती रहेगी। परिवार निर्माण की प्रक्रिया पर भी यही तथ्य लागू होते हैं। सभी जानते है कि खर्च जुटाने के लिए आमदनी के स्रोत निरन्तर खुले रखने की आवश्यकता होती है। आमदनी बन्द होते ही खर्च के लाले पड़ जाते हैं। ठीक इसी प्रकार परिवार निर्माण के लिए प्रेरणाप्रद वातावरण बनाने में जागरूकता एवं तत्परता जब तक काम करती रहेगी तभी तक वह प्रयास सफल होता रहेगा। इस सन्दर्भ में न तो उथले प्रयत्न सफल होते और न हाथ खींच लेने पर भी स्वयमेव चलते रह सकते हैं। जब हर छोटा बड़ा काम सफलता के स्तर तक पहुँचने के लिए आवश्यक सूझबूझ, श्रमशीलता और साधन सामग्री की अपेक्षा करता है तो उसका अपवाद कैसे हो सकता है?

परिवार निर्माण का प्रत्यक्ष पक्ष इतना ही है, कि उस परिधि में रहने वाले प्रत्येक परिजन का वर्तमान सुखद और भविष्य उज्ज्वल बनता है। निर्माताओं को इसके बदले में आत्म सन्तोष, गर्व गौरव एवं श्रद्धा- सम्मान यश श्रेय प्राप्त होता है। फले- फूले उद्यान को लगाने, सजाने वाला माली सामान्य श्रमिकों की तुलना में कुछ अधिक ही श्रेय और लाभ कमाता है। परिवार निर्माण में तत्पर मनुष्यों की उपलब्धियाँ किसी कुशल माली, भवन निर्माता, सफल उद्योगपति, सकर्स के रिंग मास्टर से अधिक अंकी जाती है कम नहीं।

यह तो प्रत्यक्ष की चर्चा हुई। परोक्ष इससे अलग क्षेत्र है। निर्माता अपने आप उच्चस्तरीय प्रवीणता प्राप्त करता है। वाद्ययन्त्रों के ध्वनि प्रवाह से श्रोताओं को तरंगित होने का अवसर मिलता है। पर इसके लिए प्रयासरत वादक की कला भी निखरती है और उसके व्यक्तित्व की कीमत भी बढ़ती है। मूर्तियाँ मन्दिरों और भवनों की शोभा बढ़ाती हैं, पर उनके निर्माण में प्रवीणता अर्जित करने वाले धन और यश भी कमाते हैं। साहित्यकार, कलाकार, लोकरंजन की कुशलता अनेकों को गुदगुदाती है। पर उस परमार्थ के बदले उन्हें जो व्यक्तिगत लाभ मिलता है, वह पाठकों और दर्शकों की अपेक्षा कम नहीं अधिक मूल्य का ही होता है।

दूसरे के हाथों को रचाने के लिए मेंहदी पीसने वाले के हाथ अनायास ही रच जाते हैं। इत्र बनाने वाले श्रमिकों के हाथ और कपड़े बिना किसी अतिरिक्त प्रयास के ही महँकते रहते हैं। सत्प्रयत्नों में संलग्न व्यक्तियों को उस प्रयोजन से सम्बन्धित अनेकों विशेषताओं और प्रवीणताओं का लाभ सहज ही मिलता रहता है। रंगमंच सजाने का काम करने वाले कर्मचारी उस दृश्य का आनन्द मुफ्त में ही लेते रहते हैं। परिवार निर्माण में प्रधानतया सद्विचारों और सद्गुणों का प्रयोग करना पड़ता है। परिजनों को वही सिखाना पड़ता है।

व्यक्ति निर्माण में कभी भी मात्र बौद्धिक प्रशिक्षण कारगर सिद्ध नहीं हुआ है। प्रभावी प्रवचनों और प्रदर्शनों से यदि व्यक्तित्वों को ढालना सम्भव रहा होता, तो यह काम कब का हो गया होता और इसे समर्थ लोगों ने कब का पूरा कर लिया होता। ज्योति से ज्योति जलती है और तेजस्वी व्यक्तित्वों के प्रभाव से नए व्यक्ति ढलते हैं। अस्तु परिवार के जिन मूर्धन्य लोगों को अपने क्षेत्र में नव सृजन करना है उन्हें यह सब कुछ पहले अपने स्वभाव में उतारना होगा, जो परिजनों से कराना है। समझाने भर से काम चल जाता तो कितना अच्छा होता। तब समझ की तूती बोलती और चरित्र निष्ठा के द्वार खटखटाने की आवश्यकता न पड़ती। किन्तु विवशता का क्या किया जाय? प्राचीन काल में भी गुरुकुलों के कुलपति उसे नर रत्नों की टकसाल बनाकर दिखाते थे और वही प्रक्रिया अनन्तकाल तक चलेगी भी।

सुशिक्षण में पाठ्य विधि पर्याप्त नहीं, उसके लिए उच्चस्तरीय व्यक्तित्व से सुसम्पन्न अध्यापक चाहिए। यह प्रबन्ध न बन पड़ा, तो समझना चाहिए कि शिक्षा का अर्थ जानकारी ही बना रहेगा और उससे कौशल सम्वर्धन का छोटा सा प्रयोजन भर पूरा हो सकेगा। शिक्षा से व्यक्तित्व का निर्माण यदि सच है तो उसके साथ यह शर्त भी अनिवार्य रूप से जुड़ी रहेगी कि शिक्षक का स्तर प्रवक्ता भर का नहीं रहना चाहिए वरन् सृजेता के स्तर तक ऊँचा उठकर अपनी दक्षता का प्रमाण भी प्रस्तुत करना है।

परिवार निर्माण की दृष्टि से तो यह नितान्त आवश्यक है। मखौल बाजी और विडम्बना बनानी हो तो पर उपदेश कुशल रहने से भी काम चल सकता है, किन्तु यदि वस्तुतः सत्परिणाम ही चाहिए तो सृजेताओं को यह सिद्ध करना होगा, जो कहा जा रहा है उस पर उनकी गहन आस्था है। यह प्रमाण अपने चिन्तन और चरित्र में उच्चस्तरीय आदर्शों का समावेश किए बिना किसी प्रकार सम्भव नहीं। जो इस सत्य को समझेंगे और परिवार निर्माण के लिए वस्तुतः इच्छुक होंगे, उन्हें वह प्रयास आत्म निर्माण से आरंभ करना होगा ताकि ढलाई की प्रक्रिया को सरल और सम्भव बनाया जा सकें। यह है वह लाभ जो परिवार निर्माण के लिए प्रयास करने वालों को आत्म निर्माण के रूप में अनायास ही उपलब्ध होता है।

घर को तपोवन बनाने की बात कही जाती रही है। गृहस्थ को योग की संज्ञा दी गयी है। पतिव्रत, पत्नीव्रत, पितृव्रत, पितृसेवा, शिशु वात्सल्य, समता, सहकार की सत्प्रवृत्तियाँ यदि सघन सद्भाव की मनःस्थिति से सम्पन्न की जा सके, तो उनका महत्व योगाभ्यास एवं तप साधन से किसी प्रकार कम नहीं होता। इस प्रतिपादन से, सहस्रों कथा गाथाओं से इतिहास, पुराणों के पन्ने भरे पड़े है। कर्मयोग की जितनी उत्तम साधना गृहस्थ में हो सकती है उतनी कदाचित ही अन्यत्र बन पड़े। एक प्रसंग में यह कहना भी अत्युक्तिपूर्ण नहीं है कि आत्म समर्पण के लिए सरल और सार्थक साधना पद्धति परिवार निर्माण के रूप में ही प्रत्युक्त हो सकती है। ऋषि इसी कार्य को गुरुकुलों के आरण्यकों में चलाते हुए सम्पन्न करते थे। परिवार का तात्पर्य समुदाय है। विशेषतया पिछड़े वर्ग का समुदाय। शिवजी की बारात का वर्णन जिनने पढ़ा है वे जानते हैं ‘तनुछीकोऊ अति पीन पावन कोऊ अपावन तनु धरे’ भूत पलीतों का पिछड़ा वर्ग ही उनका दयालु समुदाय था। दयालु व्यक्ति इसी समुदाय पर अपना ध्यान केन्द्रित करते और उनकी सुख सुविधा जुटाने में आत्मोत्सर्ग करते रहते हैं। मूर्धन्यों की पारिवारिकता सारे इसी स्तर पर परिलक्षित होती है।

परिवार निर्माण की प्रतिक्रिया समाज निर्माण में होने की बात समझने में किसी विचारशील को कोई कठिनाई नहीं हो सकती। जिन महामानवों ने विश्व इतिहास में महती भूमिकायें सम्पन्न की हैं। उनके व्यक्तित्व सुसंस्कृत वातावरण में ही ढले थे। निजी प्रतिभा का मूल्य स्वरूप और प्रभावी वातावरण की क्षमता महान है। प्रतिभायें कुसंस्कारी वातावरण में ढलती हैं, तो वे दुष्ट दुरात्मा बनकर अपना और दूसरों का अहित ही करती रहती हैं। यदि उन्हें सुसंस्कृत परिस्थितियों में पलने और परिपक्व होने का अवसर मिला होता, तो निश्चय ही स्थिति सर्वथा भिन्न रहती। परिस्थितियों ने जिसे डाकू बना दिया, यदि उसे दिशा और सहायता मिली होती तो किसी सेना का कुशल सेनापति अथवा साहसिक नेतृत्व कर सकने में पूर्णतया सफल सिद्ध हुआ होता। व्यक्ति की मौलिक प्रतिभा को कितना ही महत्व या श्रेय क्यों न दिया जाय, वातावरण के प्रभाव को झुठलाया नहीं जा सकता। कहना न होगा कि मनुष्य को प्रभावित करने वाली परिस्थितियों में सबसे अधिक सामर्थ्य परिवार के वातावरण में ही होती है। जो उसका निर्माण कर सके वे प्रकारान्तर से सच्चे सेवक हैं। जिस खदान से नर रत्न उपलब्ध हो सके, उसकी प्रशंसा हजार जीभों से करनी पड़ेगी।

रस्सा और कुछ नहीं बिखरे हुए धागों का संयुक्त समुच्चय भर है। समाज और कुछ नहीं परिवार में बसे हुए मनुष्यों का समुदाय मात्र है। व्यक्तियों का उत्पादन ही नहीं परिपोषण और परिष्कार भी उसी में होता है। समाज जैसा भी कुछ है। पारिवारिक परम्पराओं की देन है। समाज को जैसा भी कुछ बनाना है वैसी परिस्थितियाँ परिवार में उत्पन्न करनी होगी। व्यक्ति के एकाकी निर्माण की कोई तुक नहीं। बहरे इसलिए गूँगे होते है कि वे सुन नही पाते। शब्दोच्चार की प्रक्रिया का अनुकरण करने का अवसर नहीं पाते। यदि कोई बहरा सुनने लगे तो कुछ ही दिन में उसका गूँगापन अच्छी खासी बोलचाल में बदल जायेगा। यह अनुकरण का चमत्कार है। व्यक्ति की आन्तरिक ढलाई का मात्र दो तिहाई कार्य दस वर्ष में पूरा हो चुका होता है। प्रवृत्ति की दृष्टि से व्यक्ति शेष जीवन में एक तिहाई संस्कार ही ग्रहण कर पाता है। दस वर्ष की आयु प्रायः परिवार की परिधि में व्यतीत होती है। प्रौढ़ावस्था आने पर भी मनुष्यों को प्रायः तेरह घण्टे घर के भीतर ही रहना पड़ता है। स्त्रियाँ और बाल वृद्ध तो अपना अधिकांश समय उसी सीमा में रहकर व्यतीत करते हैं। इस क्षेत्र में यदि शालीनता बनी होगी, तो निश्चय ही उस परिधि में रहने वालों को ऐसा अनुदान मिलता रहेगा, जिसके सहारे वे अपनी उपयोगिता एवं विशिष्टता का परिचय दे सकें। इसे समाज निर्माण का सुदृढ़ और चिरस्थायी आधार समझा जाना चाहिए।

किसी राष्ट्र की समृद्धि, सामर्थ्य एवं वरिष्ठता सरकारी दफ्तरों या अफसरों में सीमित नहीं होती, वहाँ तो उसकी झाँकी मात्र मिलती है। छावनियों में रहने वाली सेवा ही किसी राष्ट्र की शक्ति नही है। वास्तविक शौर्य पराक्रम तो गली- मुहल्लों और घर- परिवारों में उगता और बढ़ता है। छावनियों में सेना उपजती नहीं, वह परिवारों से ही आती है। राष्ट्रीय समृद्धि के लिए सरकारी कोश की नाप- तोल करना अपर्याप्त है। समृद्धि तो उन पर टैक्स लगाकर निचोड़ती भर है। राष्ट्रीय चरित्र का मूल्यांकन अफसरों को देखकर नहीं नागरिकों के स्तर से किया जाता है। सन्त, ऋषि, महापुरुष, सुधारक, प्रज्ञावान, मूर्धन्य, कलाकार आसमान से नही टपकते। उन्हें आवश्यक प्रकाश पारिवारिक वातावरण तथा सम्पर्क में आने वाले परिजनों से ही उपलब्ध होता है। अन्न कोठों में भरा तो रहता हैं, पर उसका उत्पादन खेतों में होता है और खेत का हर पौधा उस सम्पदा को बढ़ाने में समर्थ सहभागी की भूमिका निभाता है।

समाज निर्माण के लिए कुछ भी किया या कहा जाता रहे। आन्दोलन और प्रचार के लिए किसी भी प्रक्रिया को अपनाया जाय। प्रचार तन्त्र और सृजन संस्थान का कितना ही बड़ा ढाँचा खड़ा किया जाय किन्तु वास्तविकता की आधारशिला परिवार के प्रचलन में सुधारात्मक प्रवृत्तियों के समावेश से ही सम्भव हो सकेगी। जड़ को सींचे बिना पत्ते पौधे और उद्यान को सुरम्य बनाने में अन्य उपाय आधे अधूरे ही बने रहेंगे। वृक्षों को खुराक तो जड़ों से मिलती है। समाज का अक्षय वट अपना परिपोषण परिवारों से, उनमें व्यवस्थित क्रम से रहने वाले व्यक्तियों से ही प्राप्त करता है। अस्तु समाज निर्माण की, समाज सुधार की बात सोचने वालों को उस महान आरोपण के लिए परिवार की क्यारियाँ ही उर्वरता सम्पन्न बनानी होंगी। इस तथ्य को जितनी जल्दी समझ लिया जाय उतना ही उत्तम है।

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