स्वतन्त्रता का सही अर्थ समझें, उच्छृंखलता को न पनपने दें

स्वतन्त्रता हर किसी को प्रिय होती हैै, परतन्त्रता उतनी ही कष्टकारक अनुभव होती है। पराधीनता की जंजीरों में जकड़े समाज अथवा राष्ट्र का विकास अवरुद्ध हो जाता है। जिन जातियों अथवा देशों पर किसी अन्य देश का प्रभुत्व वर्चस्व होता है वे विकसित नहीं हो पाते। शोषण एवं दमन का चक्र चलता हैं। जिन देशों को अधिक समय तक गुलामी की बेड़ियाँ पहननी पड़ी है वे प्रगति पथ पर उतना ही पिछड़ गये हैं, विश्व का राजनैतिक इतिहास इस बात का साक्षी है। अस्तु पराधीनता की सर्वत्र भर्त्सना की जाती है और उसे एक अभिशाप माना जाता है।

कभी अपना देश प्रगति के शिखर पर था। यहाँ दूध दही की नदियाँ बहती थी। विदेशी इस देश को सोने की चिड़िया कहते थे। विश्व भर में भारत का वर्चस्व था। दुर्भाग्यवश राज्यों की आपसी फूट के कारण विदेशी आक्रमणकारियों एवं आतताइयों ने इस देश को कितनी ही बार रौंदा। विपुल धन सम्पत्ति लूट कर वे चलते बने। फूट के कारण ही देश को हजार वर्ष तक गुलाम रहना पड़ा। कभी मुगलों का आधिपत्य रहा, तो कभी अंग्रेजों का। शोषण एवं दमन के चक्र में भारतवासी एक हजार वर्ष तक पिसते रहे। यदि यह कहा जाय कि भारत अन्य मुल्कों की अपेक्षा इसी कारण हजार वर्ष पीछे रह गया तो कोई अतिश्योक्ति नही होगी। इस अवधि में देशवासियों का आर्थिक एवं सामाजिक दृष्टि से बुरी तरह से शोषण हुआ और सांस्कृतिक दृष्टि से अवमूल्यन भी। इस अवधि को भारत वासियों के पतन और पराभव का युग कहा जा सकता है।

स्वतन्त्रता प्राप्ति के लिए देश की युवा चेतना ने एक करवट उन्नीसवी सदी के अन्त में ली। प्रचण्ड आवेग एवं आवेश के तूफान ने गुलामी की सुदृढ़ जंजीरों को एक झटके में तोड़ दिया। राजनैतिक स्वतन्त्रता प्राप्ति में कितनी ही माँगों के सिंदूर पुँछे, कितनी ही माताओं की कोख खाली हुई और कितने ही आश्रितों के एक मात्र आश्रय टूटे। उन सभी घटनाओं का इतिहास पढ़ने सुनने पर शरीर रोमांचित हो उठता है तथा अमर शहीदों के प्रति सिर श्रद्धा से झुक जाता है। अपनी आजादी की जो भारी कीमत चुकानी पड़ी है वह खून की कीमत पर ही प्राप्त हुई।

प्राप्त स्वतन्त्रता की सार्थकता तब है जब हम उसका सही अर्थ समझें तथा स्वाधीनता का ठीक प्रकार उपयोग करें। स्वतन्त्रता का अर्थ है सामाजिक नियमों एवं निर्धारित कानून व्यवस्था के अन्तर्गत रहते हुए, उनका परिपालन करते हुए विचारों की अभिव्यक्ति एवं स्वतन्त्र रुप से कार्य करने की सुविधा। पर इस स्वतन्त्रता की भी सीमाएँ है। ऐसे विचार अथवा क्रियाकलाप जो समाज की सुव्यवस्था को तथा निर्धारित मर्यादाओं का उल्लंघन करते है, स्वतन्त्रता की परिधि में नहीं आते। वे उच्छ्रंखलता को ही जन्म देते हैं। अनियंत्रित तथा अमर्यादित आचरण स्वतन्त्रता का परिचायक नहीं है।

दुर्भाग्यवश अपने देश मेें स्वतन्त्रता का अर्थ गलत लगाया गया। स्वतन्त्रता के साथ अनुशासन अविच्छिन्न रूप से जुड़ा है, जो निर्धारित कर्तव्यों का सतत् बोध कराता है। भ्रान्तिवश अधिकांश व्यक्ति अनुशासन को स्वतन्त्रता का अंग नही मानते फलत: वैयक्तिक स्वतन्त्रता के नाम पर अनुशासन हीनता को बढ़ावा देते हैं। अपने देश में यह स्थिति इन दिनों चरम सीमा पर है, जो सर्वत्र देखी जा सकती है। इसका एक कारण यह है कि इतने वर्षों की गुलामी से मनोवैज्ञानिक दृष्टि से मानसिक पराधीनता की स्थिति आज भी किसी न किसी रूप में बनी हुई है। स्वतन्त्रता का सही अर्थों में उपयोग करने की मानसिकता आज भी विकसित नहीं हो पायी है। दूसरा कारण देश में व्यापक स्तर पर फैली अशिक्षा है। अशिक्षा अज्ञान की जननी है, जिसके रहते प्रगति का पथ कभी भी प्रशस्त नहीं हो सकता।

गाँधी जी ने १९३०- ४० के दशक में एक बार कहा था कि भारत को अभी स्वतन्त्रता नहीं मिलनी चाहिए क्योंकि स्वतन्त्रता के सदुपयोग की मानसिक एवं बौद्धिक पृष्ठभूमि अभी देशवासियों में नहीं विकसित हो पायी है। इसका अर्थ यह नहीं हुआ कि वे पराधीनता के समर्थक थे, बल्कि यह था कि वे इस तथ्य से भली- भाँति परिचित थे कि वर्षों की गुलामी ने भारतीय समाज एवं सम्बद्ध नागरिकों के मानसिक धरातल को बुरी तरह तहस- नहस किया है, जिसकी क्षति पूर्ति न की गयी तो मात्र राजनैतिक स्वतन्त्रता प्राप्त कर लेने से देश की प्रगति सम्भव नहीं है। आत्मानुशासन के अभाव में स्वतन्त्रता का लक्ष्य पूरा नहीं हो सकता।

एक सामाजिक प्राणी होने के नाते प्रत्येक व्यक्ति एक दूसरे से अन्योन्याश्रित रूप से जुड़ा है। समाज से पृथक उसका एकांकी विकास सम्भव नहीं। समाज में रहकर ही वह पल्लवित और पुष्पित होता। प्राप्त स्वतन्त्रता जहाँ उसे अनेकानेक अधिकार देती है, वहाँ अनिवार्य रूप से जुड़े कर्तव्यों का भी बोध कराती है। अधिकारों की निर्धारित सीमा में रहना तथा वैयक्तिक तथा सामाजिक कर्तव्यों का भली- भाँति पालन करना ही अनुशासन है। अनुशासन के बिना स्वतन्त्रता का कोई अर्थ नहीं निकलता। सुसंचालन एवं सुव्यवस्था के लिए अनुशासन का महत्व सर्वोपरि है। समस्त सृष्टि का व्यापार ही अनुशासन के आधार पर चल रहा है। अपनी वैयक्तिक स्वतन्त्रता को अभिव्यक्त करते हुए भी नक्षत्र एक निश्चित कक्षा मर्यादा में घूमते रहते तथा परिभ्रमण चक्र को सुसंतुलित बनाये रखते हैं। अनुशासन का उल्लंघन करने वाले अपनी स्वतन्त्रता का मनमाना उपयोग करने वाले ग्रह नक्षत्र एक दूसरे से टकराकर अपना अस्तित्व तो गँवाते ही है दूसरे के लिए भी संकट पैदा करते हैं। ठीक इसी प्रकार स्वतन्त्रा के नाम पर अनुशासन से रहित अपनायी गयी उच्छृंखलता व्यक्ति एवं समाज दोनों ही के लिए अन्तत: हानिकारक सिद्ध होती है।

किसी विद्वान की यह उक्ति वैयक्तिक स्वतन्त्रता की सीमा तथा पारस्परिक व्यवहार के आचार शास्त्र को अधिक अच्छी प्रकार स्पष्ट करती है कि ‘‘मुट्ठियाँ भीच कर हवा में घूसे चलाने के लिए प्रत्येक व्यक्ति स्वतन्त्र है, लेकिन उसकी स्वतन्त्रता की सीमा वहाँ जाकर समाप्त हो जाती है जहाँ कि किसी दूसरे व्यक्ति की नाक शुरू होती है।’’ व्यक्तिगत स्वतन्त्रताओं का नियमन वस्तुत: समाजगत अनुशासन से होता है। समाजगत अनुशासन का अर्थ है जिस समाज में हम रहते हैं उसकी सुविधाओं का भी ध्यान रखें। उसके विकास की भी बात सोचें। नीति मर्यादाओं एवं नागरिक नियमों का पालन करें। यह बात देखने में छोटी लगते हुए भी अत्यन्त महत्वपूर्ण है, जिसके बिना हम सही अर्थों में सभ्य कहलाने के अधिकारी नहीं बन सकते।

किसी स्वतन्त्र देश के नागरिक अपने अधिकारों को प्राप्त करने के लिए तो तत्पर दिखाई दें, परन्तु कर्तव्यों एवं उत्तरदायित्वों की उपेक्षा करे, तो समझना चाहिए कि वे इस योग्य नही कि स्वतन्त्रता का सही उपयोग कर सके एवं उसका सच्चा आनन्द उठा सके। स्वाधीनता प्राप्त करने के साथ ही किसी देश के नागरिकों को जहाँ अनेकों नये अधिकार मिलते हैं, वही उन पर अनेकानेक कर्तव्यों एवं उत्तरदायित्वों के निर्वाह का भार भी आ जाता है। उन कर्तव्यों एवं जिम्मेदारियों को अच्छी तरह निभाना ही उनके स्वतन्त्र राष्ट्र के नागरिकों की योग्यता एवं पात्रता सिद्ध करना है। इसके अभाव में तो वे स्वेच्छाचारी, उच्छृंखल, अनुशासनहीन बनकर अवनति के गर्त में गिरते चले जायेंगे।

महात्मा गाँधी ने अपने अनुयायियों को कहा था- ‘मित्रों। आप स्वतन्त्र अवश्य है किन्तु अपने संकीर्ण स्वार्थों के लिए इस स्वतन्त्रता के दुरुपयोग द्वारा उसे कलंकित मत करना।’ उनके इस कथन की अवमानना का प्रत्यक्ष फल आज हम देख ही रहे हैं।

चार्ल्स किंग्सले ने स्वतन्त्रता की व्याख्या करते समय उसे दो प्रकार का बताया है। १. अनुचित स्वतन्त्रता २. उचित स्वतन्त्रता।

जहाँ व्यक्ति अपनी इच्छानुसार कुछ भी कर सके, उसे उन्होंने अनुचित स्वतन्त्रता कहा है और जहाँ व्यक्ति वही कर सके, जिसके लिए उसे नीति मर्यादा एवं समाज व्यवस्था के अन्तर्गत छूट मिली हुई है, उसे उचित स्वतन्त्रता बताया गया हैै। अनुचित स्वतन्त्रता को उन्होंने स्वच्छन्दता माना है। स्वतन्त्रता और स्वच्छन्दता में बहुत भिन्नता है। स्वतन्त्रता शब्द के अर्थ को समझ लेने पर बात अच्छी तरह समझ में आ जाती है। स्वतन्त्र अर्थात अपने स्वयं तन्त्र या अनुशासन में रहना। यही है स्वतन्त्रता का वास्तविक अभिप्राय। सच्ची स्वतन्त्रता वही है जिसमें दूसरों के उचित अधिकारों में अनावश्यक हस्तक्षेप न हो।

स्वतन्त्रता को मानवीय गुण और स्वच्छन्दता को पाशविक प्रवृत्ति कहा जा सकता है। अधिकारों के साथ खिलवाड़ करने एवं निजी स्वार्थ के लिए अपने अनेकों देशवासियों के हितों का ध्यान न रखना स्वतन्त्रता नही है। वैयक्तिक स्वतन्त्रता अपने आप में बहुत बड़ी चीज है किन्तु उसकी सीमा वही समाप्त हो जाती है जहाँ दूसरे का हित एवं अधिकार आ जाता है। बर्क महोदय ने कहा भी है- ‘‘सुरक्षा के लिए स्वतन्त्रता सीमा होना आवश्यक है।’’ स्वतन्त्रता का तात्पर्य आत्मानुशासन है। वह किसी को इसी आधार पर मिलती है कि वह उसके लिए पात्रता सिद्ध करे।

आज अपने देश को आजाद हुए पूरे ३५ वर्ष व्यतीत हो चुके और हम सब स्वतन्त्र राष्ट्र के स्वतन्त्र नागरिक कहे जाते हैं। पर तथ्य को गम्भीरता पूर्वक देखने पर यही दृष्टि गोचर होता है कि अभी हम उसके लिए समुचित पात्रता विकसित नही कर पाये हैं। हमने स्वतन्त्रता का अर्थ स्वच्छन्दता लगाया है जिसमें हम दूसरों का ध्यान रखे बिना अपनी उचित- अनुचित सभी इच्छाओं की पूर्ति करना चाहते हैं। हम अपने पास पड़ोस का कितना ध्यान रखते है? अपने देशवासियों के प्रति हमारे अन्दर कितनी सहानुभूति है? राष्ट्रीय सम्पत्ति के सदुपयोग का कितना ध्यान रखते हैं? राष्ट्र कल्याण के लिए अपने स्वार्थों के ऊपर कितना अंकुश लगाते हैं? इत्यादि प्रश्रों के उत्तर पर गहराई से विचार करते समय अपने आप समझ जायेंगे कि स्वतन्त्रता के उत्तरदायित्वों को कितना समझ पाये हैं, कितना निभा पायें है?

कहना न होगा कि स्वतन्त्र देश के कर्तव्यनिष्ठ जिम्मेदार नागरिक की कसौटी पर हम पूरी तरह खरे सिद्ध नही हो रहे हैं। देश की सम्पत्ति को अपनी निजी सम्पत्ति की तरह समझकर उसकी सुरक्षा के लिए प्रयास करना कितने लोग अपना उत्तरदायित्व समझते हैं यह सर्व विदित है। राष्ट्रीय सम्पत्ति जिसे बोल चाल की भाषा में ‘‘सरकारी माल’’ कहा जाता है उसके प्रति सामान्य नागरिक की क्या दृष्टि रहती है इसे बताने की आवश्यकता नहीं।

अपने देश की राष्ट्र निष्ठा का परिचय कोई भी प्राप्त कर सकता है। सौ में से नब्बे प्रतिशत राष्ट्रीय उद्योग एवं कल कारखाने घाटे में चलते रहते है। इसके अन्य कारण चाहे जो भी हो, लेकिन एक प्रमुख कारण देश की सम्पदा को अपनी निजी सम्पत्ति से कम महत्व देने की हीन मनोवृत्ति ही है।

एक प्राइवेट बस का मालिक यदि उसके पास एक अच्छी खासी बस है तो एक दो वर्ष में उससे इतनी आमदनी कर लेता है कि वैसी ही नई दूसरी बस खरीद कर चला ले। परन्तु सरकारी रोडवेज विभाग के पास हजारों- हजारों की संख्या में बसे होने पर भी, उनके अपने सुधार गृह एवं पेट्रोल पम्प होते हुए भी उनमें लाखों की क्षति एवं घाटा होता है। रेलगाड़ियों के डिब्बों से बल्ब, दर्पण जैसी छोटी- छोटी चीजों से लेकर पंखे तक गायब होने की घटनाएँ होती रहती हैं।

अपने अधिकारों के लिए हड़तालें करने में हम भारतीय सबसे आगे हैं। हड़तालों के कारण देश में प्रतिवर्ष दो चार करोड़ श्रमदिनों की हानि हो जाना सामान्य बात हैं। सन् १९८२- ८३ में हड़तालों की वजह से साढ़े चार करोड़ से अधिक श्रम दिनों की क्षति हुई थी। जापान की ओर दृष्टि दौड़ाये तो मालूम होगा कि वहाँ हड़ताले होती ही नहीं। यदि होती भी हैं तो घण्टे आध घण्टे से अधिक नहीं होती और काम के समय में नहीं होती बल्कि चाय अथवा लन्च के समय में होती हैं, जिनसे राष्ट्रीय उत्पादन पर कोई प्रभाव नही पड़ता। यह उनकी राष्ट्रीय भावना का सबसे सशक्त प्रमाण परिचय है।

अपने देश की जनसंख्या अब लगभग बहत्तर करोड़ के लगभग है। इतनी बड़ी जनशक्ति अपने आप में बड़ी महत्वपूर्ण है। यदि वह अपने आपको एक राष्ट्रीय हित, देश उत्थान की भावना में पिरो दे, तो साधनों की दृष्टि से हम समृद्ध न सही तो गरीब भी नहीं कहला सकते। देश की सर्वतोमुखी गरिमा को पुन: प्रतिष्ठित करने के लिए, समृद्ध, समर्थ एवं समुन्नत बनाने के लिए हमें स्वतन्त्रता के सही अर्थ को समझना होगा और कर्तव्यों के प्रति निष्ठावान बनना होगा।







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