दुष्प्रवृत्तियों से जूझें :: सत्प्रवृत्तियाँ उभारें

देव और असुर दोनों तत्वों से मिलकर मनुष्य बना है। उसमें ईमान भी रहता है और शैतान भी। परिस्थितियाँ इन्हें विकसित करती हैं। यदि अच्छा वातावरण मिले तो देवतत्व और ईमान विकसित होता है। सज्जनता और महानता की वृद्धि होती है। यदि बुरा वातावरण मिले तो उसका प्रभाव अन्तरंग में छिपी असुरता को उभारता है और मनुष्य का चिन्तन और कर्तृत्व निकृष्ट स्तर का पतनोन्मुख बनता चला जाता है। यदि व्यक्ति और समाज को श्रेष्ठता की दिशा में अग्रसर करना अभीष्ट हो, तो उसका उपाय यही है कि वातावरण ऐसा बनाया जाय जो दुष्प्रवृत्तियों को निरुत्साहित करने और सत्प्रवृत्तियों को प्रोत्साहित कर सकने में समर्थ सिद्ध हो सके।

होता यह रहा है कि दुष्प्रवृत्तियों की हानि को समझते हुए उन्हें रोकने के लिए व्यवस्था बनाने पर ध्यान केन्द्रित किया गया। अपराधियों को पकड़ने और उन्हें सुधारने या दण्ड देने के लिए खर्चीले तन्त्र खड़े किए जाते रहे। पुलिस, कानून, जेल, अदालत आदि का ढांचा अपराधियों पर नियन्त्रण रखने के लिए विनिर्मित हुआ। पर देखते है कि उस पर खर्च होने वाली शक्ति की तुलना में सफलता नगण्य ही मिल सकी। यदि सज्जनता के समर्थन, अभिवर्धन के लिए समाज ने कुछ महत्वपूर्ण कदम उठाये होते तो आज की स्थिति दूसरी होती।

सत्प्रवृत्तियों को उभारने के लिए, सद्भावनाओं को प्रोत्साहित और पुरष्कृत करने के लिए कुछ नहीं किया गया। जबकि होना यह चाहिए था कि जितना दुष्टता के दमन पर ध्यान दिया जाता है, कम से कम उतना ध्यान तो सज्जनता के सराहने और आदर्शवादी सत्साहस को पुरष्कृत करने के प्रयत्न पर दिया जाता। अपराध और दण्ड यह निषेधात्मक पक्ष है। उससे भी महत्वपूर्ण पक्ष वह है, जिसे विधेयात्मक कहना चाहिए। उसे उभारना, उठाना, जगाना और सम्मानित करना भी उतना ही आवश्यक है, जितना अनैतिकता को दण्डित करना। समाज का कर्तव्य है कि अपराधियों के लिए बने दण्ड विधान की तरह लोक मंगल के लिए त्याग बलिदान करने वालों को पुरष्कृत करने की भी समर्थ व्यवस्था बनाकर खड़ी करें। उभय पक्षीय प्रयत्नों से ही सदाचारी सन्तुलन कायम रखा जा सकेगा।

इन दिनों वातावरण यह है कि उद्दण्ड, अनाचारी लोग भले, भोले लोगों को आतंकित करके अपना उल्लू सीधा करते हैं। आक्रमण के डर से वे प्रतिशोध की इच्छा होते हुए भी वैसा नहीं कर पाते। आतंक से अनाचारी तत्व न केवल प्रतिरोध की आशंका से ही निश्चिन्त हो जाते है वरन् उन डरे हुए लोगों का मनमाना शोषण भी करते है।

धूर्तता बेईमानी, ठगी, फरेब, चोरी, चालाकी के बल पर अनेक व्यक्ति बहुत जल्दी बहुत अधिक लाभ प्राप्त करते देखे जाते हैं। उनके ठाट- बाट देख कर दूसरों का मन चलता है और इस सरल सस्ते तरीके को अपनाकर वे भी उसी तरह लाभान्वित होने के लिए अग्रसर होते हैं।

धूर्तता और उद्दण्डता की सम्मिश्रित प्रक्रिया का नाम ही अपराध है। उसी को अनैतिकता, चरित्र भ्रष्टता कहा जाता है। आज का सारा समाज इसी रोग से पीड़ित है। प्रगति के सारे द्वारा इसी महामारी ने अवरुद्ध कर रखे हैं। मजदूर से लेकर मालिक तक, प्रजा से लेकर राजा तक, शिष्य से लेकर गुरु तक, ग्राहक से लेकर व्यापारी तक यही व्याधि जड़ पकड़ गई है। फलतः सर्वत्र आशंका, अविश्वास और असुरक्षा का आतंक फैल रहा है। ऐसी स्थिति में न शान्ति रह सकती है न प्रगति हो सकती है। सृजन के सब प्रयत्नों को अनैतिकता का विघटन सहज ही चौपट करके रख देता है।

दूसरी ओर सत्प्रवृत्तियों का पक्ष है, वातावरण उन्हें विकसित होने में सहायता नही करता। भले मनुष्य न भौतिक लाभ उठा पाते है न सम्मानात्मक सन्तोष के लिए उनके पास केवल बहुत ऊँचा तत्वज्ञान ही रह जाता है, जिसे गले उतारना हर किसी के लिए सहज नहीं। ईमानदारी से काम करने पर सीमित आजीविका प्राप्त होती है, उससे सन्तोष, सादगी और मितव्ययिता का जीवन ही जिया जा सकता है। भ्रष्ट साधनों से आजीविका कमाने वाले शान- शौकत और ठाट- बाट का जीवन जीते है, जबकि ईमानदार व्यक्ति को गरीबी और सादगी में ही रहना पड़ता है ।। ऐसे समय में ईमानदारी पर अड़ें रहना एक प्रकार का दुस्साहस ही कहा जायेगा। बेईमानी की सुविधाओं को त्यागकर जिसने ईमानदारी के साथ जुड़ी हुई सादगी का वरण किया उसका मनोबल और आदर्शवाद सराहा जाने योग्य ही है।

पर देखा यह जाता है कि इस प्रकार के व्यक्ति सामाजिक सम्मान से वंचित भी रहते हैं, उन्हें उलटा मूर्ख बनना पड़ता है और व्यंग, उपहास सहने पड़ते हैं। कई बार तो उनके अनाचारी साथी मिल जुलकर नीचा दिखाने का षड़यन्त्र भी करते है और उसमें सफल भी हो जाते हैं। इस वातावरण में यदि ईमानदार व्यक्ति की हिम्मत टूटने लगे और वे भी बेईमानी के साथ चलने की बात सोचने लगें तो कुछ अचम्भे की बात नहीं है।

समाज का नेतृत्व करने वाले प्रबुद्ध लोगों का काम है कि वे ऐसा वातावरण बनायें, ऐसा आन्दोलन चलायें जिसमें आदर्शवाद का अवलम्बन करने वाले व्यक्तियों को कम से कम सामाजिक सम्मान का लाभ तो मिल ही सके। यों उन आदर्शवादी व्यक्तियों को निःस्पृह ही रहना चाहिए और किसी सम्मान, सहयोग पुरष्कार आदि की आशा न करके अपने कर्तव्य पालन जन्य आत्मसन्तोष को ही पर्याप्त मान लेना चाहिए। उनके लिए यही शोभनीय है। पर समाज के कर्णधारों का उत्तरदायित्व भिन्न है। उन्हें चाहिए कि ऐसे वातावरण का सृजन करें, जिसमें अवाँछनीय तत्वों की हिम्मत न बड़े, प्रोत्साहन न मिले। साथ ही आदर्शवादी व्यक्ति कम से कम लोक श्रद्धा के भाजन तो बन ही सकें। उनके साहस का परिचय अधिक लोग प्राप्त करके उस मार्ग का अनुसरण करने की प्रेरणा प्राप्त करें।

यह तथ्य भुलाने का नहीं है कि वातावरण से व्यक्ति प्रभावित होते हैं और व्यक्तियों का रुझान जिस ओर चल पड़े समाज वैसा ही बन जाता है ।। समाज का निर्माण वातावरण के निर्माण पर निर्भर है। वातावरण बनाने के लिए ही आन्दोलन चलाए जाते है। नव निर्माण के आन्दोलन में यह प्रक्रिया जुड़ी हुई रहनी ही चाहिए कि असामाजिक तत्वों को, अनैतिक व्यक्तियों को कोई सहयोग, समर्थन और प्रोत्साहन प्राप्त न हो। इसके विरुद्ध सन्मार्गगामी आदर्शों पर सुदृढ़ रहने वाले, अपने साहस के लिए उचित सम्मान प्राप्त कर सकें।

आज अनीति की कमाई करने वाले ठग, चोर, बेईमान इसलिए बढ़ रहे है कि उन्हें लाभ तो लगे हाथों मिलता है। कानूनी पकड़ ही एक कारण है, जिससे बच निकलने के लिए इतनी अधिक तरकीबें निकलती चली आ रही है कि किसी चतुर और सम्पन्न व्यक्ति के लिए राजदण्ड से बच निकलना कुछ भी कठिन नहीं रह गया है। सामाजिक भर्त्सना, असहयोग और प्रतिरोध वस्तुतः राजदण्ड से भी बढ़कर हैं। सर्व साधारण की दृष्टि में यदि कोई व्यक्ति घृणास्पद सिद्ध हो जाय तो उसे तिरस्कार और असहयोग का ही भाजन बनना पड़ेगा, पर आज उलटी स्थिति है। लोकमत की दुर्बलता से अनाचारी व्यक्ति भी सहयोग, समर्थन एवं सम्मान प्राप्त करते हैं। उनके विरोध, तिरस्कार के प्रयत्न शिथिल ही पड़े रहते हैं। ऐसी दशा में यदि कोई अनाचारी व्यक्ति अपने कुकर्म व्यवसाय को अधिक लाभदायक समझे तथा और भी अधिक साहस के साथ करने लगे तो आश्चर्य ही क्या है?

अनाचार को प्रोत्साहन और सदाचार को हताश करने में लोकमत की दुर्बलता एक बहुत बड़ा कारण है। उसमें सुधार परिवर्तन होना ही चाहिए, अन्यथा न अनाचार रुकेगा और न सदाचार बढ़ेगा। सदाचरण पर चलने का साहस करने के लिए अनेक सामान्य स्तर के व्यक्ति भी प्रोत्साहित हो सकते हैं। बशर्ते कि उन्हें अपनी सत्प्रवृत्ति का लाभ उचित समर्थन और सम्मान प्राप्त होता रहे। हमें लोकमत में इस तत्व को सजग करना चाहिए कि अनाचारी व्यक्तियों का समर्थन और सहयोग न किया जाय। उनकी हाँ में हाँ न मिलाई जाय, उनके दोष छिपाये न जाएँ। उन्हें किसी प्रकार का सामाजिक सम्मान मिलने न दिया जाय। इसमें यदि दुष्ट दुराचारियों के आक्रमण का जोखम हो तो भी उसे उठाना ही चाहिए।

सच तो यह है कि यदि मिल- जुलकर असामाजिक तत्वों का मुकाबला करने की, उनका पर्दाफास करने की, प्रवृत्ति चल पड़े तो उनका साहस नष्ट हो सकता है। राजदण्ड से ही दुष्टता पर नियन्त्रण नहीं किया जा सकता, उसके लिए लोकमत का संगठित और प्रखर होना भी आवश्यक है। अनीति विरोधी वातावरण इसी प्रकार बनेगा और दुष्प्रवृत्तियों का कार्य इस सतकर्ता द्वारा ही होगा।

सरकार दुष्टों को दण्ड तो देती है। पर आदर्शवादियों को सम्मानित पुरस्कृत नहीं करती। इस स्तर का जो ढकोसला चल रहा है, उसका लाभ भी पहुँच और शिफारिश के बलबूते सभी उठाते देखे जाते है। इसके लिए सरकार पर निर्भर नहीं रहना चाहिए। जिस प्रकार अनाचारियों के लिए राजदण्ड व्यवस्था को पर्याप्त मान बैठना भूल है, इसी प्रकार सत्प्रवृत्तियों में संलग्न व्यक्तियों को सम्मानित करने के लिए भी शासन पर निर्भर रहना बेकार है। इस प्रक्रिया को सामाजिक स्तर पर हाथ में लिया जाना चाहिए। इस प्रयोग को हमें अपने घरों से आरम्भ करना चाहिए। जिन बच्चों की, परिजनों की गतिविधियाँ प्रशंसनीय हो उन्हें समुचित सहयोग, समर्थन, प्यार, सम्मान एवं पुरस्कार मिलना चाहिए। अच्छे काम करने वालों को प्रोत्साहित करने वाला कुछ भी न कहा जाय, कुछ भी न किया जाय यह उचित नहीं। भूल करने वालों को, कुमार्ग पर चलने वालों की उपेक्षा न की जाय, भर्त्सना, ताड़ना असहयोग आदि परिस्थिति अनुसार वह क्रम अपनाया जाय, जिससे कुमार्गगामी को अपने कार्य से परिवार की नाराजी और भर्त्सना का परिचय मिले। यह नीति परिवार के भावनात्मक विकास और व्यवस्था सन्तुलन में बहुत सहायक सिद्ध हो सकती है।

यह रीति- नीति समाज में अपनाई जानी चाहिए। आदर्श प्रस्तुत करने वाले ऐसे अनेक व्यक्ति मिल सकते हैं, जिनको गरीबी के कारण किसी ने प्रोत्साहित नही किया। ऐसे स्वर्गीय लोगों की जयन्तियाँ मनाना, उनके चित्रों पर पुष्प चढ़ाना, उनके स्मारक स्वरूप पर वृक्ष लगाना, उनके जीवन वृत्तान्त से सर्व साधारण को अवगत कराना ऐसी पद्धति है, जिससे हर व्यक्ति को सन्मार्गगामी लोकसेवी बनने का प्रोत्साहन मिल सकता है।

संसार में बुराइयों का भी अस्तित्व है और अनीति तथा कुरूपता भी विद्यामन है। पर यह इसलिए नहीं कि हम उन्हें ही अपना ले या ईश्वर को उनके विनिर्मित करने का दोष दें। यह अवाँछनीयता और आसुरी तत्व इसलिए है, कि उन्हें एक चुनौती समझा जाय और उसे हटाने के प्रयास, पुरुषार्थ में देवत्व अपनी क्षमता को प्रखर और समर्थ बनाए रहने का अवसर प्राप्त करता रहें। यहाँ पिछड़ापन इसलिए है कि अग्रगामी लोग उन पिछड़े हुओं को ऊँचा उठाने और आगे बढ़ाने में अपनी कुशलता उदारता और महत्व सिद्ध करें। यदि संसार में पिछड़ापन न होता तो उदारता प्रकट करने के अवसर से ही हमें वंचित रहना पड़ता।

व्यायामशाला में मुदगर, डग्बल, भारी गोले, नाल आदि इसलिए रखे जाते है कि उनके साथ जूझकर पहलवाल लोग अपने शरीर को मजबूत बनायें। बिना जूझे माँस पेशियों का मजबूत होना सम्भव नहीं। व्यायामशाला में यह भारी उपकरण उसकी कुरुपता नहीं बढ़ाते और उनके कारण न उसकी महत्ता घटती है। सच तो यह है कि उस अखाड़े को सुन्दर, सुसज्जित, कोमल, मृदुल वस्तुओं से सजाया गया होता, तो यह विलास विनोद का साधन मात्र बनकर रह जाता। फिर वहाँ से बलवान पहलवान न निकलते।

यह संसार एक व्यायाम की तरह है जहाँ बुराइयाँ विकृतियाँ इसलिए रखी गई हैं कि सज्जनता उससे जूझे और निरस्त्र करे। इससे उनकी समर्थता भी बढ़ेगी और गरिमा भी।

सेना को अभ्यास करने के लिए नकली लड़ाई कराई जाती है और युद्ध की रीति- नीति सिखाने के लिए वैसा वातावरण बनाया जाता है। यदि ऐसा न हो तो सैनिक समय पर युद्ध कौशल कैसे प्रकट कर सकें?

असली शत्रु हमारे दोष दुर्गुण हैं। यह छिपे हुए शत्रु अत्यधिक भयंकर और प्रबल है। उन्हें जीत लिया जाय तो समझना चाहिए कि दिग्विजय कर ली, समस्त संसार जीत लिया। महाभारत भीतर ही होता है। इसे जीते बिना जीवन लक्ष्य प्राप्त कर सकना सम्भव नहीं। उससे लड़ सकने की सामर्थ्य एवं कुशलता संग्रह करने के लिए हमको बाहर जगत में फैली हुई बुराइयों और विकृतियों से जूझना पड़ता है। बाहर की गन्दगी साफ करने से स्वच्छता की प्रवृत्ति का विकास होता है और फिर उसी प्रवीणता के आधार पर आन्तरिक मलीनता को हटाने में सफलता प्राप्त होती है।

खेल प्रतियोगिता में प्रतिद्वन्दिता खड़ी की जाती है। उस आधार पर कुशल खिलाड़ियों का चयन होता है और उन्हें पुरस्कार मिलता है। इन विजेताओं की प्रशंसा देखकर अन्य लोगों को खेल व्यायाम में उन्नति करने का उत्साह पैदा होता है। यह सब होता तभी है, जब प्रतिस्पर्धा का आधार प्रस्तुत करने वाले खेलों की व्यवस्था की जाय। संसार में बुराइयाँ इसलिए हैं कि उनके शमन करने की प्रतिस्पर्धा में सत्प्रवृत्तियाँ उतरें, विजयी बनें, अपनी गरिमा सिद्ध करें और सर्वसाधारण पर यह छाप डालें कि अनीति का विस्तार कितना बड़ा ही क्यों न हो विजयी अन्ततः नीति ही होती है।

जीवित व्यक्तियों की आदर्शवादी गतिविधियों के लिए सम्मान, प्रशस्ति पत्र, पुष्पहार, उपहार आदि दिए जाने चाहिए। प्रतिस्पर्धाओं में जीतने वाले जिस प्रकार पुरस्कार प्राप्त करते, दंगल में कुश्ती पछाड़ने वालों को जैसे उपहार मिलते है, उसी प्रकार आदर्शवादी उत्कृष्टता का परिचय देने वालों को प्रोत्साहित, सम्मानित करने के लिए उपहारों का कुछ क्रम चलाया जा सकता है।

अवाँछनीयता के निरुत्साहित और आदर्शवादिता को प्रोत्साहित करने के लिए हमें कुछ अधिक तत्परता के साथ प्रयत्न करना चाहिए और ऐसा वातावरण बनाना चाहिए जिससे सर्व साधारण को कुमार्गगामी होते हुए संकोच हो और सन्मार्ग पर चलते हुये आत्म सन्तोष ही नहीं गर्व गौरव प्राप्त करने का भी अवसर मिले।

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