जीवन का उत्तरार्ध परमार्थ में नियोजित हो

आयुष्य के उत्तरार्ध में शरीर और मस्तिष्क के थक जाने से वह आयु न तो भौतिक आकर्षणों में निरत रहने योग्य रहती है, न किन्हीं महत्त्वाकाँक्षाओं को पूरा करने की उसमें सामर्थ्य ही रहती है। यह समय मुख्यतः सेवा साधना के लिए नियोजित होना चाहिए न कि युवावस्था जैसी ललकना- लिप्साएँ अपनाए रहने में। देव संस्कृति की वानप्रस्थ आश्रम परम्परा इस वर्ग विशेष के लिए व्यक्तिगत हित साधन एवं समष्टिगत परमार्थ की दृष्टि से सर्वश्रेष्ठ सदुपयोग का अवसर लेकर आती है।

ढलती उम्र में भी कामुकता की खिलवाड़ करने वाले निश्चित रूप से बेमौत मरते हैं। रुग्णता और अशक्तता के गर्त में औंधे मुँह गिरते हैं। चटोरापन भी ढलती उम्र में रही बची पाचन क्रिया को नष्ट- भ्रष्ट करके रख देता है। नई पीढ़ी अपने हाथों सत्ता चाहती है, उसे न दी जाय तो घर में विग्रह उत्पन्न होता है। परामर्श, मार्गदर्शन, सहयोग और नियन्त्रण का उत्तरदायित्व स्वयं वहन करते रहे और काम करने का बोझ लड़कों पर डालें तो उनकी शिक्षा भी होती है और अपना बोझ हलका होता है। अत्यधिक तृष्णामग्र रहकर कमाई की आपाधापी में लगे रहें, तो उस मानसिक तनाव से ब्लडप्रेशर, दिल के दौरे, मधुमेह, अनिद्रा आदि कितने ही रोग घेरते हैं।

आध्यात्मिक और पारमार्थिक गतिविधियाँ अपनाकर जीवन के उत्तरार्ध को इतना मृदुल और सरस बनाया जा सकता है, मानों नवीन जन्म ग्रहण किया गया है। जिस प्रयोजन के लिए यह शरीर मिला है, मानव जन्म का जो परम लक्ष्य है वह पूर्वार्ध में यत्किंचित् ही पूरा हो पाता है। अधिक उत्तम सुअवसर तो उत्तरार्ध में ही मिलता है। मानसिक उभार उतर जाने और परिवार का भार हलका हो जाने से मन भी अच्छी तरह लगता है और चित्त के डाँवाडोल होने की, लुढ़कन- फिसलने की आशंका भी कम रहती है। मरण का दिन समीप आता देखकर परमार्थ की पुण्य पूँजी संग्रह करने के लिए, अगले जन्म में ऊँची स्थिति पाने के लिए उत्कंठा जाग्रत होती है और अधिक गम्भीरतापूर्वक दिव्य जीवन की उन गतिविधियों को अपनाया जा सकता है, जो चढ़ती उम्र में प्रायः अरुचिकर और कठिन लगती थी।

ब्रह्म विद्या की तत्वदर्शन ज्ञान साधना, योगाभ्यास की तप साधना, लोक मंगल की सेवा साधना यह तीनों अमृतमयी देव सरितायें मिलकर गंगा यमुना सरस्वती के मिलन, संगम का प्रयोजन पूरा करती हैं और तीर्थराज प्रयाग जैसी त्रिवेणी इस जीवन में प्रादुर्भूत होती है। यह अभिनव आनन्द अपने ढंग का अनोखा है और ऐसा है जिससे बालकपन, किशोरावस्था और यौवन में जो अर्जित किया गया था उससे काम नहीं, वरन् अधिक ही आनन्दमयी विभूतियाँ उपलब्ध हो सकती हैं, होती हैं। सम्पदाओं से विभूतियों का स्तर हलका ही नहीं भारी भी है। इसलिए पूर्वार्द्ध में जो उपार्जित किया गया था उसकी तुलना में उत्तरार्ध की कमाई का मूल्य भी अधिक ही आता है। ऐसी दशा में परमार्थ परायण उत्तरार्ध में प्रवेश करने वाले को बाल्यकाल और यौवन के चले जाने का पश्चात्ताप नहीं करना पड़ता, वरन् यही अनुभव होता है कि वह अल्हड़पन चला गया सो अच्छा ही हुआ। यह ढलती आयु ऐसे अनुदान वरदान लेकर आई है, जिनका इस गधापच्चीसी के दिनों मिल सकना कठिन है। ऐसे चिन्तन के रहते किसी को पूर्वार्द्ध के बीत जाने से दुखी होने, पछताने की जरूरत नहीं पड़ती, वरन् यह अधिक महत्वपूर्ण अवसर हाथ लगने का सन्तोष ही होता हैं।

जब सामाजिक दृष्टि से विचार किया जाय तो प्रतीत होगा कि किसी देश या समाज के उत्कर्ष की समस्त आशायें और सम्भवनायें इसी केन्द्र पर केन्द्रित हैं। अगणित विचारशील व्यक्ति एक से एक उत्तम योजनायें बनाते हैं, बना सकते हैं पर सबसे बड़ी कठिनाई एक ही होती है कि उन्हें कार्यान्वित कर सकने योग्य व्यक्ति मिलते ही नहीं। फलस्वरूप वे कागजों में लिखी और मस्तिष्कों में बिखरी रहकर ही हवा में विलीन हो जाती हैं।

लोक निर्माण का कार्य इतना सरल नहीं है कि उसे किसी भी ऐरे- गैरे के सुपुर्द किया जा सके। उसके लिए अनुभवी, सुयोग्य, ईमानदार, सक्षम, लगनशील और प्रभावशाली कार्यकर्ता चाहिए। ऐसे लोग संस्थाओं के पास भी नहीं हैं। उनसे भी ओछी प्रकृति के यश लोलुप व्यक्ति भरे पड़े हैं, सरकार के पास भी उपयुक्त व्यक्ति नहीं है। जन सहयोग के बिना कोई योजना सफल नहीं हो सकती यह स्पष्ट है। साथ ही यह भी साफ है कि यह सहयोग जुटाना ऐसे व्यक्तियों का ही काम है जिनके प्रति सहज श्रद्धा उभरती हो। सरकारी कर्मचारियों की भर्ती जिन उपाधियों के आधार पर होती है, वे जन सम्पर्क कार्यकर्ता की योग्यता का आधार नहीं हो सकती। अनुभवहीन लड़के जिनकी आयु पच्चीस वर्ष से भी कम है, उन महान उत्तरदायित्वों को निभा सकेंगे यह कहना कठिन है। फिर वहाँ रौब- दौब, ठाट- बाट, ऐंठ- अकड़, रिश्वत खुशामद का बोलबाला रहता है। भारत जैसे पिछड़े देश की जनता का तालमेल उनसे बैठता ही नहीं। न सही अर्थों में जन सम्पर्क बनता है, न जन सहयोग मिलता है। ऐसे ही कागजी खाना पूरी चलती रहती है। अफसर मौज- मजा करते हुए भत्ता बनाते और समय काटते रहते हैं। यह स्थिति जब तक रहेगी, तब तक सरकार की योजनायें कितनी ही अच्छी क्यों न हो, उनसे कुछ ठोस कार्य न हो सकेगा। प्रगति का सरकारी अभियान रुका ही पड़ा रहेगा।

लोक- कल्याण के लिए विनिर्मित संस्थाओं की स्थिति और भी अधिक दयनीय है। यश, प्रशंसा के लिए थोड़ी विज्ञापनबाजी करना महत्त्वाकाँक्षी लोगों के लिए एक धन्धा बन गया है। तरह- तरह के आडम्बर, सभा सम्मेलन, संगठन संस्थान जुलूस, पोस्टरों की इन दिनों बहुत धूम है। नित नई संस्थाएँ बनती और बिगड़ती रहती हैं। पदों के लिए लड़ने मरने वाले, परदे की पीछे कई तरह के स्वार्थ साधन करने वाले लोगों का सार्वजनिक संगठनों में बोलबाला है। विविध संस्थाओं का ढाँचा कागज से बने रावण की तरह विशाल कलेवर तो बनाये खड़ा है, पर भीतर ही भीतर खोखली पोल भरी पड़ी है। यही कारण है कि काम नहीं के बराबर और आडम्बर पहाड़ के बराबर दृष्टिगोचर होता है। प्रगति के विभिन्न प्रयोजनों को लेकर बने हुए इतने अधिक संस्था संगठनों तथा कथित लोकसेवियों, नेताओं के रहते एक इंच भी आगे खिसक सकना सम्भव न हो सके, तो समझना चाहिए कि आडम्बर ने यथार्थता को कुचल- मसल कर रख दिया है।

इस दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति का एक ही कारण है सद्भावना सम्पन्न सुयोग्य एवं कर्मठ कार्यकर्ताओं का अभाव। मिशन अनेक बने हुए हैं और बन रहे है, पर मिशनरियों का कहीं पता नहीं। ऐसी दशा में लोकशक्ति को जगाना, लोकमंगल का प्रयोजन पूरा कर सकना किस प्रकार सम्भव होगा?

जनता की स्थिति भी अब अजीब बन चली है। वक्ताओं और नेताओं की कथनी तथा करनी में जमीन- आसमान जितना अन्तर देखकर अपीलों तथा धुँआधार भाषणों का असर ही समाप्त हो गया। स्पीचें सुनने या तो लोग आते ही नहीं, आते हैं तो उथला मनोरंजन मात्र करके पल्ले झाड़ते हुए वहीं पहुँच जाते हैं जहाँ से आए थे। जब नेता और अभिनेता एक ही पंक्ति में गिने जाने लगें तो यह आशा कैसे की जाय, कि जनता उनका कोई कष्टसाध्य अनुकरण स्वीकार करेगी। अब हड़ताले कराना भर एक काम ऐसा है जिसे कोई भी नेता आसानी से करा सकता है। जिसमें कुछ त्याग और सुधार की कष्टसाध्य बात हो उसे मानना तो दूर, कोई सुनने तक को तैयार नहीं।

इस अभाव की पूर्ति उज्ज्वल चरित्र, सुसंस्कृत और निस्वार्थ लोकसेवा निरत व्यक्ति ही अग्रिम पंक्ति में खड़े होकर कर सकते हैं। ऐसे नेतृत्व का उत्पादन वानप्रस्थ आश्रम की ही खदान से होता रहा है और हो सकता है। यदि वानप्रस्थ की पुण्य परम्परा चल पड़े तो एक से एक बढ़कर सुयोग्य और भावनाशील लोकसेवी विभिन्न सत्प्रवृत्तियों में संलग्न दृष्टिगोचर हो सकते हैं। और बिना वेतन भार उठाए जनता को ऐसे कार्यकर्ता लाखों की संख्या में मिल सकते हैं जो अवांछनीयताओं के विरुद्ध मोर्चाबंदी पर कटकर लड़ने के लिए साहसी शूरवीरों की भूमिका प्रस्तुत कर सके। रचनात्मक सत्प्रवृत्तियों का अभिवर्धन इन्हीं लोगों के द्वारा होगा। अवैतनिक सेवा साधना में संलग्न उच्चकोटि के सुशिक्षित एवं अनुभवी व्यक्ति जिस कार्य को भी हाथ में लेते हैं वह जनता का अजस्र सहयोग उपलब्ध करते हैं और निश्चित रूप से सफल होते हैं। नव निर्माण की बहुमुखी प्रवृत्तियों में संलग्न होकर ऐसे लोग देश को कितनी जल्दी आगे बढ़ा सकते हैं, ऊँचा उठा सकते हैं इसकी कल्पना मात्र करने से आँखें चमकने लगती हैं।

नव निर्माण की, पुनरुत्थान की सभी दिशाएँ सूनी पड़ी हैं। शिक्षा, संस्कृति, समाज, स्वास्थ्य, आजीविका, विनोद जैसे महत्वपूर्ण क्षेत्र जन सहयोग से ही समुन्नत और सुव्यवस्थित हो सकते हैं। सरकार का मुँह ताकते रहते और शासन को गाली देने से दबे हुए असन्तोष को व्यक्त होने का अवसर मिल सकता है और उससे थोड़ा जी हलका हो सकता है, पर कुछ काम नहीं बनेगा। बौद्धिक, नैतिक और सामाजिक क्षेत्रों में संव्याप्त गगनचुम्बी विकृतियों के विरूद्ध मोर्चा खड़ा कर सकना और उससे जूझकर विजय प्राप्त कर सकना केवल लोकशक्ति के लिए ही सम्भव है। उसी को गठित, सुदृढ़ और परिष्कृत करना होगा। यही है आज का अतिशय महत्वपूर्ण कार्य, जिसे बिना कल की प्रतीक्षा किए, आज ही आरम्भ करना चाहिए। हजार वर्ष की बौद्धिक और राजनैतिक गुलामी के उपरान्त अपना देश उठा है, उसकी आर्थिक और राजनैतिक समस्यायें भी है, पर पिछले दिनों न कुछ सोचा गया है और न कुछ किया गया है। अपने देश की सामाजिक विकृतियाँ ही समस्त संकटों की जड़ हैं। जाति- पाँति के नाम पर राष्ट्र हजारों टुकड़ों में बँटा पड़ा है, हर जाति अपने आप में एक ऐसी स्वतन्त्र इकाई बन गयी है। मानों दूसरी जाति वालों से उसे कुछ लेना- देना ही न हो। ऊँच- नीच की मान्यताओं ने एक तिहाई मनुष्यों को पद दलित और दो तिहाई लोगों को मिथ्या अहंकार से ग्रसित बना रखा है। विवाह, शादियों में होने वाला खर्चा देश के आर्थिक मेरुदण्ड को तोड़कर रखे दे रहा है। अन्ध विश्वासों और कुरीतियों में कितना समय, कितना श्रम, कितना धन और कितना मनोयोग नष्ट होता है इसे देखकर रुलाई आती है।

अस्सी प्रतिशत अशिक्षितों का, अस्सी प्रतिशत छोटी देहातों में रहने वालों का देश वस्तुतः कितना पिछड़ा पड़ा है, इसे शहरों से दूर बसे छोटे देहातों की झोंपड़ियों में जाकर ही देखा समझा जा सकता है। जिस प्रगति की डीगें हाँकी जाती है वे केवल बीस प्रतिशत आबादी वाले शहरों तक ही सीमित हैं। राजनैतिक और सामाजिक उछलकूद इन्हीं थोड़े से लोगों तक सीमित है। अखबारी धुआँधार प्रचार केवल इसी छोटे क्षेत्र तक सीमित है। असली भारत अस्सी प्रतिशत बहुमत वाला देहाती अशिक्षा ग्रस्त कुरीतियों और कुण्ठाओं से जर्जर देश तो अभी सदियों पुराने पिछड़ेपन से ही सन्त्रस्त है। उठना तो उसी को है, उस समुद्र में घुसे कौन? और कौन गहरे गोते लगाकर मोतियों की तलाश करें?

इन प्रश्नों का उत्तर वानप्रस्थ परम्परा के पुनर्जागरण पर ही पूर्णतया अवलम्बित है। भारत न तो अमेरिका है न इंग्लैण्ड। यहाँ ऊँचे वेतन देकर मिशनरी नौकर रखने और पिछड़े देहातों में जाकर काम करने के लिए प्रचुर धन उपलब्ध नहीं है, और न सरकारी साधन ही उतने हैं। हो भी तो नौकरशाही के वर्तमान ढर्रें को देखते हुए यह आशा करना बालू में से तेल निकालना है कि वे साधन रहित देहातों में जाकर उनमें घुलेंगे और जनशक्ति के सहयोग से पुनर्निर्माण के कार्यों में लगेंगे। देहाती दवाखानों में जाने के लिए नौसिखिए डाक्टर तक तैयार नहीं होते। सरकारी नौकरी तो जागीर है, उसे पाकर भी पंखा और मेज़ कुर्सी छोड़नी पड़ी तो फिर बात ही क्या रही? नौकरी करने का लाभ ही क्या रहा? इस मनोवृत्ति के रहते सरकार भी कुछ कर नहीं सकती। लोक निन्दा से बचने के लिए समाज कल्याण का खर्चीला आडम्बर खड़ा कर देना भर उसके बस की बात है, सो करती भी हैं। करेगी भी।

राष्ट्र निर्माण की समस्यायें अगणित हैं। देश बहुत अधिक विस्तृत क्षेत्र में बिखरा पड़ा है। अशिक्षा और यातायात के साधन ऐसे अवरोध हैं, जिनके कारण असली भारत से, पिछड़े भारत से बौद्धिक तथा प्रत्यक्ष संपर्क साधना तक कठिन पड़ता है। ऐसी दशा में सबसे बड़ी, सबसे महत्वपूर्ण आवश्यकता एक ही सामने उपस्थित होती है- सुयोग्य, भावनाशील, अवैतनिक और सेवा की उत्कट लगन के साथ राष्ट्र निर्माण में जुट पड़ने वाले कर्मठ कार्यकर्त्ताओं की। इस अभाव को पूरा किए बिना कोई गति नहीं, कोई राह नहीं, कोई आशा नहीं। इस प्रयोजन को वानप्रस्थ परम्परा का पुनर्जागरण करके ही पूरा किया जा सकता है। यदि इस दिशा में एक प्रबल और सुव्यवस्थित आन्दोलन खड़ा किया जा सके, तो इस धर्मप्राण देश में प्राचीन संस्कृति की रक्षा और भाव प्रेरणा से प्रेरित अगणित व्यक्ति आगे आ सकते है। और उस सृजन सेना से देखते- देखते द्वापर में उँगली पर गोवर्धन उठाये जाने की तरह, त्रेता में सेतुबन्ध बाँधे जाने की तरह वह चमत्कार सम्भव हो सकता है जिसके आधार पर राष्ट्र का पिछड़ापन प्रचण्ड प्रगतिशीलता में परिणत हुआ देखा जा सके।

भारत में धर्म, अध्यात्म और संस्कृति के प्रति अभी भी आस्था का सर्वथा अभाव नहीं हुआ है। भौतिकवादी विचारधारा ने नास्तिकवाद को प्रोत्साहन अवश्य दिया है और धर्म ध्वजी वर्ग के कुकर्मों ने जन मानस में धर्म के प्रति उपेक्षा, अवज्ञा एवं आक्रोश का भाव अवश्य पैदा किया है। इतना सब होने पर भी स्थिति अभी इस सीमा तक नहीं पहुँची है कि धार्मिक एवं सांस्कृतिक पुनरुत्थान के लिए आरम्भ किए गए प्रचण्ड अभियान को सर्वथा उपहासास्पद ठहरा दिया जाय और उसकी प्रतिक्रिया उदासीनता एवं निराशा के रूप में सामने आये। हर धार्मिक व्यक्ति वृद्धावस्था में शान्ति प्राप्त करना और परमार्थ साधना की बात सोचता अवश्य है, भले ही परिस्थितियाँ उसे वैसा अवसर ही न होने दें। जिनमें थोड़ा उत्साह है वे साधु- बाबाओं के आश्रय में दिन काटते, राम- नाम जपते और तथाकथित सत्संग में उलझे देखे जा सकते हैं। ऐसे व्यक्तियों की संख्या गिनी जाय तो वह लाखों तक अभी भी पहुँचेगी। यदि इन्हें सही मार्गदर्शन मिला तो वे आत्मकल्याण के साथ लोकमंगल क्षेत्र में प्रवेश कर सकते थे और नव निर्माण के महान प्रयोजन की पूर्ति में महत्वपूर्ण भूमिका प्रस्तुत कर सकते थे।

परम्परा का राजमार्ग मौजूद है। भावनाओं का अभाव नहीं। परमार्थ के प्रति अपनी आस्था अपनी जगह यथावत विद्यमान है। इसलिए यदि वानप्रस्थ को पुनर्जीवित किया जाय, उसके लिए ओजस्वी आह्वान किया जाय, आगे आने वाले व्यक्तियों का उचित प्रशिक्षण और मार्गदर्शन किया जाय तो कोई कारण नही कि लाखों की संख्या में प्रचण्ड क्षमता सम्पन्न लोकसेवी कार्यक्षेत्र में उतारे न जा सके। यह सम्भावना मूर्तिमान हो सकती है, होनी चाहिए।

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