जीवन को सार्थक बनाया या निरर्थक गंवाया जाय

जीवन यदि शरीर मात्र ही हो और प्रसव के समय उसका आदि और चिता के साथ अन्त माना जाय तो फिर कृमि कीटकों की तरह पेट प्रजनन की उधेड़ बुन में लगे रहना भी पर्याप्त हो सकता है। मनःसंस्थान अधिक विकसित होने के कारण इन्हीं प्रवृत्तियों को विकसित रूप, में लोभ मोह में भी चरितार्थ होते रहने दिया जा सकता है। उद्धत अहंकारिता का त्रिदोष इसमें और मिल सके तो फिर प्रेत पिशाचों जैसी स्थिति में भी रहा जा सकता है। वे खाते कम और खुतराते अधिक हैं। उपभोग उतना नहीं कर पाते जितना विनाश करते हैं। उनकी प्रसन्नता ध्वंस, पतन और दुर्गति के दृश्य देखने पर अवलम्बित रहती है। जलते और जलाते, कुढ़ते और कुढ़ाते दिन बिताते है। इन्हीं वर्ग समुदायों में से किसी में रहना जिन्हें भाया, सुहाया हो उनसे कोई क्या कहे? किन्तु जिन्हें कुछ आगे की बात सोचनी आती है, उनसे तो कहने सुनने जैसी ढेरों बातें हैं। उनमें से कुछ तो ऐसी है जिन्हें हीरे मोतियों से तोला जा सकता है।

किसी को यदि यह आभास हो कि हम मात्र शरीर नहीं है। आत्मा नाम की किसी वस्तु का भी अस्तित्व है और उसका थोड़ा बहुत सम्बन्ध आत्मा से भी है, तो ढेरों ऐसे प्रश्न उभर कर आते हैं जिनका स्वरूप और समाधान ढ़ूँढ़े बिना गति नहीं। कुछ ऐसे ज्वलन्त प्रश्न है जिनकी उपेक्षा वही कर सकता है, जिसे लोक- परलोक से, आत्मा- परमात्मा से, उत्थान- पतन से, कर्म- अकर्म से कुछ लेना- देना न हो। जिनकी दृष्टि लोभ और मोह से एक कदम भी आगे को नहीं जाती। जिसे तत्काल की सुख सुविधा, आत्मश्लाघा, सस्ती वाहवाही के अतिरिक्त और कुछ सुहाता न हो। जिसे न भूत का स्मरण हो और न भविष्य के भले बुरे होने का अनुमान। ऐसे परमहंस, जड़ भरत या अतिशय चतुर व्यक्ति ही इस स्थिति में रहते पाये गये हैं। जिन्हें तत्काल से आगे- पीछे की कोई बात सोचने की न फुरसत मिले न आवश्यकता लगे।

यदि गहरी न छानी हो और अपना अस्तित्व शरीर से भिन्न भी प्रतीत होता हो तो फिर सोचना होगा कि सृष्टा ने जो सुविधाएँ किसी भी जीवधारी को नहीं दी है वे मात्र मनुष्य को ही क्यों प्रदान कर दी? जबकि उसे समदर्शी न्यायकारी और परमपिता कहा जाता है। इन तीनों विशेषताओं का तब खण्डन हो जाता है जब अन्य प्राणियों को वंचित रखकर कुछ असाधारण सुविधाएँ मनुष्य को ही देने की बात सामने आती है। सबको समान या किसी को नहीं, इसी में प्राणियों का पिता कहलाने वाले परमात्मा की न्यायप्रियता एवं समदृश्यता सिद्ध होती है। न्यूनाधिक वितरण करने पर तो उस पर पक्षपात का लांछन लगता है। ऐसा हो नहीं सकता परमात्मा ही जब ऐसी अनीति बरतेगा तो उसकी सृष्टि में न्याय नीति का अस्तित्व किस प्रकार बना रह सकेगा?

निश्चित ही मनुष्य को जो मिला है, वह उसकी पात्रता देखते हुए किसी विशेष प्रयोजन के लिए धरोहर रूप में दिया गया है। खड़े होकर चलने वाले पैर, दस उँगलियों और अनेक मोड़ों वाले हाथ, बोलने वाली जीभ, सूझबूझ वाला मस्तिष्क, दूरदर्शी विवेक अन्य किसी प्राणी के हिस्से में नहीं आया। परिवार बसाने, समाज बनाने, आजीविका कमाने, वाहनों का उपयोग करने, प्रकृति की रहस्यमयी परत कुरेदने, शिक्षा, चिकित्सा, कला व्यवसाय, सुरक्षा जैसे साधन जुटाने में अन्य कौन प्राणी मनुष्य की समता कर सकता है। यह सभी विभूतियाँ ऐसी है जिनका महत्त्व उपभोक्ता को तो प्रतीत नहीं होता, पर जब वे छिन जाती है तो स्मरण आता है कि जो सौभाग्य अपने को हस्तगत हुआ था उसे प्राणि जगत के साथ तुलना करने पर अनुपम या अद्भुत ही कहा जा सकता था। उसका सदुपयोग न कर सकने पर जो पश्चाताप होता है, उसकी व्यथा और शृंखला इतनी लम्बी होती है कि जन्म जन्मान्तरों तक उस भूल की पीड़ा व्यथित करती रहे।

सृष्टा ने मनुष्य स्तर तक पहुँचाने पर जीवधारियों की क्रमिक प्रगति और पात्रता को देखते हुए सोचा कि क्यों न इसे सृष्टि की सुव्यवस्था में सहयोगी बनाकर अपना थोड़ा सा भार हल्का किया जाय? इसी दृष्टि से उसे युवराज का पद प्रदान किया गया और तदनुरूप समर्थता से सम्पन्न किया गया कि सृष्टि की सुन्दरता, सुव्यवस्था प्रगति एवं सुसंस्कारिता को बढ़ाने में वह विशेष योगदान भी कर सकेगा। इसी आशा अभिलाषा के अनुरूप मनुष्य का सृजन हुआ है। और उसके निर्माण से सृष्टा का समूचा कौशल दाव पर लगा है। उसे अपनी अनुकृति के स्तर का ही बनाया गया है। जो विभूतियाँ उसमें थी उन सभी को बीज रूप में उसने काया के अनेकानेक कोश भण्डार में इस प्रकार भर दिया है कि वह जब चाहे तब उन्हें फलित प्रस्फुटित करके उच्च स्तरीय बना सके। संक्षेप में यही है मनुष्य की सत्ता और महत्ता का सार संक्षेप।

उपलब्ध वैभव का उपयोग एक ही है कि सृष्टा के प्रत्यक्ष कलेवर इस विराट विश्व में सौन्दर्य संवर्धन, सत्प्रवृत्तियों के परिपोषण में अपनी क्षमता नियोजित किये रहे और सृष्टा का श्रम सार्थक करे, उसका मनोरथ अगले उपहारों के रूप में महामानव, ऋषि, मनीषी, देवता, सिद्ध पुरुष एवं भगवान अवतार बनने जैसी पदोन्नतियों का लाभ मिलता है। जो प्रमाद बरतते, विश्वासघात करते और उपलब्धियों को संकीर्ण स्वार्थपरता के लिए प्रयुक्त करते हैं, उन्हें सुविधा छिनने और प्रताड़ना सहने का दुहरा दण्ड भुगतना पड़ता है। नरक- स्वर्ग की बात सभी जानते हैं। कुकर्मियों का चौरासी लाख योनियों में परिभ्रमण करना सर्वविदित है। यह इसी प्रमाद का प्रतिफल है। जिसमें मनुष्य जीवन को लूट का माल समझा गया और उसे विलास व्यामोह की निजी लिप्साओं के लिए प्रयुक्त किया गया। बैंक का खजांची यदि हस्तगत हुई राशि का अपने निज के लिए उपयोग कर ले, सरकारी शस्त्र भंडार का, स्टोर कीपर उन आयुधों को दस्युओं या शत्रुओं के हाथों थमा दे, मिनिस्टर अपने अधिकारों का प्रयोग सम्बन्धियों को लाभ देने के लिए करने लगे तो निश्चय ही उसे अपराधियों के कटघरे में खड़ा किया जायेगा। मनुष्य भी यदि जीवन सम्पदा को वासना, तृष्णा, अहंता जैसे क्षुद्र प्रयोजनों में खर्च करता है, तो समझना चाहिए कि आज जिसे अधिकार माना जा रहा है कल उसी को अपराध गिना जायेगा। और ठीक वैसा ही दण्ड मिलेगा जैसा कि प्रमादी, विश्वासघाती सेनाध्यक्ष को कोर्ट मार्शल द्वारा मिलता है।

अच्छा हो समय रहते भूल सुधरे और वह उपक्रम बने जो जिम्मेदारों और ईमानदारों को शोभा देता है। यदि ऐसा कुछ विचार विश्वास मन में उभरे तो फिर अपनाने योग्य विधा एक ही है कि शरीर वहन के लिए निर्वाह भर की व्यवस्था बनाने के उपरान्त शेष समूची क्षमता को उन प्रयोजनों में खपा दिया जाय जिनसे विश्व व्यवस्था का सन्तुलन बनता है और सार्वभौम प्रगति का, सत्प्रवृत्ति संवर्धन का सुयोग बनता है। मनुष्य इस भूमिका को निभा सकने की स्थिति में असंदिग्ध रूप से समर्थ है। उसकी निजी आवश्यकताएँ इतनी कम है और उसकी पूर्ति के साधन इतने अधिक है कि उस सन्तुलन को बिठाने में किसी को भी राई रत्ती भर कठिनाई अनुभव नहीं होनी चाहिए। अन्यान्य प्राणियों के पेट बहुत बड़े हैं, जबकि मनुष्य का छै इंच चौड़ाई का इतना छोटा पेट है जो मुट्ठी भर अनाज से भर सके। अन्य प्राणी केवल जो सामने है उसी को पाते और मुख के द्वारा खाते है। जबकि मनुष्य अगणित सुविधा साधन अपने कौशल और पराक्रम से चुटकी बजाते उपार्जित कर सकता है। ऐसी दशा में किसी को भी अभाव ग्रस्त होने जैसी शिकायत करने की गुंजाइश नहीं है। मनुष्य जीवन असीम सुविधाओं से भरा पूरा है। उसकी दुनियाँ इतनी साधन सम्पन्न है कि अभाव जन्य कठिनाइयाँ अनुभव करने की किसी को कभी आवश्यकता ही न पड़े। दूषित अव्यवस्था ही है जिसमें ग्रसित होकर उसे अभावों का रोना रोते हुए समय गुजारना पड़ता हैं।

शरीर और आत्मा की भिन्नता अनुभव करने के लिए दूर जाने की आवश्यकता नहीं। किसी श्मशान में थोड़ी देर बैठकर वहाँ के दृश्य का अवलोकन करते हुए यह पाठ भली प्रकार पढ़ा जा सकता है। आत्मा के पृथक होते ही हृष्ट- पुष्ट शरीर की भी कैसी दुर्गति होती है, इसे देखते हुए समझा जा सकता है कि शरीर ही आत्मा नहीं है, जीवधारी का अपना स्वतन्त्र अस्तित्व भी है, जो मरण के उपरान्त भी बना रहता है। यही है वास्तविक ‘स्व’ इसी का हित साधन करने को स्वार्थ कहा जाता है। जब आत्मा को संकीर्णता की कीचड़ से बाहर निकाल कर उसे व्यापक क्षेत्र में विचरण कर सकने की स्थिति में लाया जाता है, तो उसे सबमें अपना ही आत्मा दिखता है। तब सर्वजनीन हित साधन परमार्थ बन जाता है। जिससे न स्वार्थ सधता है न परमार्थ, उसे अनर्थ ही कहना चाहिए। लगता है लोग अनर्थ को ही अपनाते और उसी के नियोजन में अपने चातुर्य को संलग्न रखे रहते हैं। अन्ततः यह तथाकथित बुद्धिमत्ता मूर्खता से भी मँहगी पड़ती है।

करना क्या चाहिए? यदि इस प्रश्न का उत्तर गम्भीरता और दूरदर्शिता के सहारे उपलब्ध करना हो तो एक ही निष्कर्ष पर पहुँचना पड़ता है कि शरीर को जीवित रखने भर के साधन जुटा देने के उपरान्त जो सामर्थ्य शेष रहती है, उसे आत्मा का कल्याण कर सकने वाले परमार्थ में लगा देने का साहस करना चाहिए। मात्र औचित्य अपनाने की इस समझदारी को साहस इस अर्थ में कहा जा रहा है, कि जन समुदाय के अधिकांश सदस्य अनर्थरत ही देखे जाते हैं उन्हें लोभ मोह की आग भड़काने और उसे बुझाने के लिए ईंधन जुटाने में ही निरन्तर कार्यरत देखा जाता है।

सुना है कि तेल या ईंधन डालने से आग भड़कती है, पर मनुष्य है जो तृष्णा को भड़काता और उसकी पूर्ति के लिए, रावण जितना वैभव जुटाने के लिए अहर्निश श्रम करता है। अपना ही नहीं पड़ोसियों का सामान समेट कर भी उसी दावानल में झोंकता रहता है। यही है असफल और उद्विग्न जीवन का स्वरूप, जिसे अपनाने के लिए अधिकांश लोग उन्मादियों की तरह दौड़- धूप करते रहते हैं। यह है प्रवाह जिसमें जन समुदाय को तिनके पत्तों की तरह बहते देखा जाता है। इस भगदड़ भेड़चाल से भिन्न दिशा में कोई अपना मार्ग निर्धारित करता है तो उसे साहस ही कहना चाहिए। दिग्भ्रान्तों के झुण्ड को चुनौती देकर सही रास्ते का सुझाव देने वाला मूर्ख कहलाता और उपहासास्पद बनता है। तथाकथित जन समुदाय का विशेषतया कुटुम्बियों, हितैषियों का उपहास, तिरष्कार सहने की क्षमता संजोना निस्संदेह साहस भरा कदम है। इसी से कहा जा रहा है कि आदर्शवाद को, सत्य और तथ्य को अपनाना भी इस अवांछनीयता के माहौल में साहस ही नहीं दुस्साहस भरा कदम है।

औचित्य कहा जाय या साहस। जीवन की सार्थकता का रास्ता एक ही है कि अमीरी और लिप्सा पर अंकुश लगाकर औसत नागरिक स्तर का निर्वाह क्रम अपनाया जाय। उतना जुट जाने पर पूरा- पूरा संतोष किया जाय। इसके उपरान्त जो भी बचा रहता है उस समूचे को ऐसे उपक्रम में नियोजित किया जाय, जिससे मानवी गरिमा का अभिवर्धन होता हो। आत्म- कल्याण और विश्व- कल्याण का उभय पक्षीय प्रयोजन सधता है। इस निर्धारण में भी यह देखना होता है कि सामयिक आवश्यकता पर ध्यान रखते हुए जो सर्वप्रथम सँभालने सुधारने योग्य है उसी को हाथ में लिया जाय। पड़ोस में आग लगने पर भोजन पकाने जैसा आवश्यक काम भी पीछे कभी के लिए छोड़ना पड़ता है। कितने ही काम सामने हो तो उसमें बुद्धिमानी का कदम यह होता है कि प्राथमिकता देने और पीछे धकेलने की एक सुव्यवस्थित शृंखला बनाई जाय। इसका निर्धारण ही सुव्यवस्था कहा जाता है। इस क्रम को बिगाड़ देने पर पूरा परिश्रम करने पर भी बात बनती नहीं और समस्याएँ सुलझने के स्थान पर और भी अधिक उलझ जाती है। इन दिनों प्रत्येक विज्ञजन के लिए करने योग्य सामयिक कार्य एक ही है, कि लोक मानस के परिष्कार का महत्त्व समझा जाय और आस्था संकट का निवारण करने के लिए प्राण प्रण से जुट पड़ा जाय। इस एक ही व्यवधान के समाधान पर समय की समस्त गुत्थियों का सुलझ सकना निर्भर है।

यह सब अनायास ही संभव नहीं हो सकता। इस श्रेय पथ पर चल सकना मात्र उन्हीं के लिए संभव है, जो अपनी आकांक्षा उत्कंठा को तृष्णा से हटाये और उसे उतनी ही भावना पूर्वक श्रेय साधना के लिए लगायें। यह आन्तरिक परिवर्तन ही बाह्य क्षेत्र में वह सुविधा उत्पन्न कर सकता है, जिसके सहारे शरीर निर्वाह की तरह ही आत्म- कल्याण और विश्व- कल्याण का महान प्रयोजन बिना किसी के, नितान्त सरलतापूर्वक सधता रहे। परमार्थ परायणों में से एक भी भूखा, नंगा नहीं रहा। उनके पारिवारिक उत्तरदायित्वों में से एक भी रुका नहीं पड़ा रहा। तरीके अनेकानेक हैं। अपना सोचा हुआ तरीका ही एक मात्र मार्ग नहीं है। नये सिरे से नये उपाय सोचने पर ऐसे समाधान हर किसी को उपलब्ध हो सकते हैं जिनमें से साँप मरे न लाठी टूटे। निर्वाह किसी के लिए समस्या नहीं। कठिनाई एक ही है- अनन्त वैभव की लिप्सा और कुटुम्बियों को सुविधा सम्पदा से लाद देने की लालसा। यदि परिवार के समस्त सदस्यों को श्रमजीवी, स्वावलम्बी बनाने की बात सोची जाय, औसत नागरिक स्तर का निर्वाह स्वीकार किया जाय तो इतने भर से जीवन को सार्थक बनाने वाली राह मिल सकती है। प्रश्न एक ही है कि शरीर के लिए जिया जाय या आत्मा के लिए। दोनों में से एक को प्रधान एक को गौण मानना पड़ेगा। यदि आत्मा की वरिष्ठता स्वीकार की जा सके तो उन प्रयोजनों को पूरा करना पड़ेगा जिनके लिए सृष्टा ने यह सुर दुर्लभ अवसर उच्चस्तरीय उपयोग के निमित्त प्रदान किया है।

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