जीवन साधना के त्रिविध पंचशील

साधना चाहे घर पर की जाय अथवा एकान्तवास में रहकर, मन:स्थिति का परिष्कार उसका प्रधान लक्ष्य होना चाहिए। साधना का अर्थ यह नहीं कि अपने को नितान्त एकाकी अनुभव कर वर्तमान तथा भावी जीवन को नहीं, मुक्ति- मोक्ष को, परलोक को लक्ष्य मानकर चला जाय। साधना विधि में चिन्तन क्या है, आने वाले समय को साधक कैसा बनाने और परिष्कृत करने का संकल्प लेकर जाना चाहता है, इसे प्रमुख माना गया है। व्यक्ति, परिवार और समाज इन तीनों ही क्षेत्रों में बँटे जीवन सोपान को व्यक्ति किस प्रकार परिमार्जित करेंगे, उसकी रूपरेखा क्या होगी, इस निर्धारण में कौन कितना खरा उतरा इसी पर साधना की सफलता निर्भर है।

कल्प साधना में भी इसी तथ्य को प्रधानता दी गयी है। एक प्रकार से यह व्यक्ति का समग्र काया कल्प है, जिसमें उसका वर्तमान वैयक्तिक जीवन, पारिवारिक गठबंधन तथा समाज सम्पर्क तीनों ही प्रभावित होते हैं। कल्प साधकों को यही निर्देश दिया जाता है कि उनके शान्तिकुञ्ज वास की अवधि में उनकी मन:स्थिति एकान्त सेवी, अन्तर्मुखी, वैरागी जैसी होनी चाहिए। त्रिवेणी तट की बालूका में माघ मास की कल्प साधन फूस की झोपड़ी में सम्पन्न करते हैं। घर परिवार से मन हटाकर उस अवधि में मन को भगवद् समर्पण में रखते हैं। श्रद्धा पूर्वक नियमित साधना में संलग्र रहने और दिनचर्या के नियमित अनुशासन पालने के अतिरिक्त एक ही चिन्तन में निरत रहना चाहिये, कि काया कल्प जैसी मन:स्थिति लेकर कषाय- कल्मषों की कीचड़ धोकर वापस लौटना है। इसके लिए भावी जीवन को उज्ज्वल भविष्य की रूपरेखा निर्धारित करने का ताना- बाना बुनते रहना चाहिये।

व्यक्ति, परिवार और समाज के त्रिविध क्षेत्रों में जीवन बंटा हुआ हैं, इन तीनों को ही अधिकाधिक परिष्कृत करना इन दिनों लक्ष्य रखना चाहिये। इस सन्दर्भ में त्रिविध पंचशीलों के कुछ परामर्श क्रम प्रस्तुत हैं। भगवान बुद्ध ने हर क्षेत्र के लिए पंचशील निर्धारित किये थे। प्रज्ञा साधकों के लिए उपरोक्त तीन क्षेत्र के लिए इस प्रकार है:-

व्यक्तित्व का विकास

(१) प्रात: उठने से लेकर सोने तक की व्यस्त दिनचर्या निर्धारित करें। उसमें उसार्जन, विश्राम, नित्य कर्म, अन्यान्य काम- काजों के अतिरिक्त आदर्शवादी परमार्थ प्रयोजनों के लिए एक भाग निश्चित करें। साधारणतया आठ घण्टा कमाने, सात घण्टा सोने, पाँच घण्टा नित्य कर्म एवं लोक व्यवहार के लिए निर्धारित रखने के उपरान्त चार घण्टे परमार्थ प्रयोजनों के लिए निकालना चाहिए। इसमें भी कटौती करनी हो, तो न्यूनतम दो घण्टे तो होने ही चाहिये। इससे कम में पुण्य परमार्थ के, सेवा साधना के सहारे बिना न सुसंस्कारिता स्वभाव का अंग बनती है और न व्यक्तित्व का उच्चस्तरीय विकास सम्भव होता है।

(२) आजीविका बढ़ानी हो तो अधिक योग्यता बढ़ायें। परिश्रम में तत्पर रहें और उसमें गहरा मनोयोग लगायें। साथ ही अपव्यय में कठोरता पूर्वक कटौती करें। सादा जीवन उच्च विचार का सिद्धान्त समझें। अपव्यय के कारण अहंकार, दुर्व्यसन, प्रमाद बढ़ने और निन्दा, ईर्ष्या, शत्रुता पल्ले बाँधने जैसी भयावह प्रतिक्रियाओं का अनुमान लगायें। सादगी प्रकारान्तर से सज्जनता का ही दूसरा नाम है। औसत भारतीय स्तर का निर्वाह ही अभीष्ट है। अधिक कमाने वाले भी ऐसी सादगी अपनायें जो सभी के लिए अनुकरणीय हो। ठाट- बाट प्रदर्शन का खर्चीला ढकोसला समाप्त करें।

(३) अहर्निश पशु प्रवृत्तियों को भड़काने वाले विचार ही अन्तराल पर छाये रहते है। अभ्यास और समीपवर्ती प्रचलन मनुष्य को वासना, तृष्णा और अहंकार की पूॢत में निरत रहने का ही दबाव डालता है। सम्बन्धी मित्र परिजनों के परामर्श प्रोत्साहन भी इसी स्तर के होते हैं। लोभ, मोह और विलास के कुसंस्कार निकृष्टता अपनाये रहने में ही लाभ तथा कौशल समझते हैं। ऐसी ही सफलताओं को सफलता मानते हैं। इसे एक चक्रव्यूह समझना चाहिये। भव- बन्धन के इसी घेरे से बाहर निकलने के लिए प्रबल पुरुषार्थ करना चाहिये। कुविचारों को परास्त करने का एक ही उपाय है- प्रज्ञा साहित्य का न्यूनतम एक घण्टा अध्ययन अध्यवसाय। इतना समय एक बार न निकले तो उसे जब भी अवकाश मिले, थोड़ा- थोड़ा करके पूरा करते रहना चाहिये।

(४) प्रतिदिन प्रज्ञायोग की साधना नियमित रूप से की जाय। उठते समय आत्मबोध, सोते समय तत्त्वबोध। नित्य कर्म से निवृत होकर जप, ध्यान। एकान्त सुविधा का चिन्तन- मनन में उपयोग। यही है त्रिविधि सोपानों वाला प्रज्ञायोग। यह संक्षिप्त होते हुए भी अति प्रभावशाली एवं समग्र है। अपने अस्त- व्यस्त बिखराव वाले साधना क्रम को समेटकर इसी केन्द्र बिन्दु पर एकत्रित करना चाहिये। महान के साथ अपने क्षुद्र को जोड़ने के लिए योगाभ्यास का विधान है। प्रज्ञा परिजनों के लिए सर्वसुलभ एवं सर्वोत्तम योगाभ्यास ‘प्रज्ञा योग’ की साधना है। उसे भावनापूर्वक अपनाया और निष्ठा पूर्वक निभाया जाय।

(५) दृष्टिकोण को निषेधात्मक न रहने देकर विधेयात्मक बनाया जाय। अभावों की सूची फाड़ फेंकनी चाहिये और जो उपलब्धियाँ हस्तगत है, उन्हें असंख्य प्राणियों की अपेक्षा उच्चस्तरीय मानकर सन्तुष्ट भी रहना चाहिये और प्रसन्न भी। इसी मन:स्थिति में अधिक उन्नतिशील बनना और प्रस्तुत कठिनाइयों से निकलने वाला निर्धारण भी बन पड़ता है। असन्तुष्ट, खिन्न, उद्विग्र रहना तो प्रकारान्तर से एक उन्माद है, जिसके कारण समाधान और उत्थान के सारे द्वार ही बन्द हो जाते है।

कर्तृत्व पालन को सब कुछ मानें। असीम महत्वाकांक्षओं के रंगीले महल न रचें। ईमानदारी से किये गये पराक्रम से ही परिपूर्ण सफलता मानें और उतने भर से सन्तुष्ट रहना सीखें। कुरूपता नहीं, सौन्दर्य निहारें। आशंकाग्रस्त, भयभीत, निराश न रहें। उज्ज्वल भविष्य के सपने देखें। याचक नहीं दानी बने। आत्मावलम्बन सीखें। अहंकार तो हटायें पर स्वाभिमान जीवित रखें। अपना समय, श्रम, मन और धन से दूसरों को ऊँचा उठायें। सहायता करे पर बदले की अपेक्षा न रखें। बड़प्पन की तृष्णाओं को छोड़े और उनके स्थान पर महानता अर्जित करने की महत्वाकांक्षा सँजोये। स्मरण रखें, हँसते- हँसाते रहना और हल्की- फुल्की जिन्दगी जीना ही सबसे बड़ी कलाकारिता है।

परिवार निर्माण:-

(१) परिवार को अपनी विशिष्टताओं को उभारने अभ्यास करने एवं परिपुष्ट बनाने की प्रयोगशाला, पाठशाला समझे। इस उद्यान मे सत्प्रवृत्तियों के पौधे लगाये। हर सदस्य को स्वावलम्बी सुसंस्कारी एवं समाजनिष्ठ बनाने का भरसक प्रयत्न करें। इसके लिए सर्वप्रथम ढालने वाले साँचे की तरह आदर्शवान बने ताकि स्वयं कथनी और करनी की एकता का प्रभाव पड़े। स्मरण रहे सांचे के अनुसार ही खिलौने ढलते हैं। पारिवारिक उत्तरदायित्व में सर्वप्रथम है संचालक का आदर्शवादी ढांचे में ढलना। दूसरा है माली की तरह हरे पौधे का शालीनता के क्षेत्र में विकसित करना।

(२) परिवार की संख्या न बढ़ायें। अधिक बच्चे उत्पन्न न करें। इसमें जननी का स्वास्थ्य, सन्तान का भविष्य, गृहपति का अर्थ सन्तुलन एवं समाज में दारिद्र्य, असन्तोष बढ़ता है। दूसरों के बच्चें को अपना मानकर उनके परिपालन से वात्सल्य कहीं अधिक अच्छी तरह निभ सकता है। लड़की- लड़कों में भेद न करें। पिछली पीढ़ी और वर्तमान के साथियों के प्रति कर्तृत्व पालन तभी हो सकता है, जब नये प्रजनन को रोकें। अन्यथा प्यार और धन प्रस्तुत परिजनों का ऋण चुकाने में लगने की अपेक्षा उनके लिए बहने लगेगा, जिनका अभी अस्तित्व तक नहीं है। इसलिए उस सम्बन्ध में संयम बरतें और कड़ाई रखें।

(३) संयम और सज्जनता एक तथ्य के दो नाम हैं। परिवार में ऐसी परम्परायें प्रचलित करें जिसमें इन्द्रिय संयम, समय संयम, अर्थ संयम और विचार संयम का अभ्यास आरम्भ से ही करते रहने का अवसर मिले। घर में चटोरेपन का माहौल न बनाया जाये। भोजन सात्विक बने और नियत समय पर सीमित मात्रा में खाने का ही अभ्यास बने। कामुकता को उत्तेजना न मिले, सभी की दिनचर्या निर्धारित रहे। समय के साथ काम और मनोयोग जुड़ा रहे। किसी को आलस्य- प्रमाद की आदत न पड़ने दी जाय और न कोई आवारागर्दी अपनाये व कुसंग में फिरे। फैशन और जेवर को बचकाना, उपहासास्पद माना जाय, केश विन्यास और अश्लील, उत्तेजक पोशाक कोई न पहनें और न जेवर आभूषणों से लदें। नाक, कान छेदने और उनके चित्र- विचित्र लटकन लटकाने का पिछड़ेपन का प्रतीत फैशन कोई महिला न अपनाये।

(४) पारिवारिक पंचशीलों में श्रमशीलता, मितव्ययिता, सुव्यवस्था, शालीन शिष्टता और उदार सहकारिता की गणना की गयी है। इन पाँच गुणों को हर सदस्य के स्वभाव में कैसे सम्मिलित किया जाय। इसके लिए उपदेश देने से काम नहीं चलता, ऐसे व्यावहारिक कार्यक्रम बनाने पड़ते हैं, जिन्हें करते रहने से वे सिद्धान्त व्यवहार में उतरें।

(५) उत्तराधिकार का लालच किसी के मस्तिष्क में नहीं जमने देना चाहिए, वरन् हर सदस्य के मन मे यह सिद्धान्त जमना चाहिए कि परिवार की संयुक्त सम्पदा में उसका भरण- पोषण, शिक्षण एवं स्वावलम्बन सम्भव हुआ है। इस ऋण को चुकाने में ही ईमानदारी है। बड़ों की सेवा और छोटों की सहायता के रूप में यह ऋण हर वयस्क स्वावलम्बी को चुकाना चाहिए। कमाऊ होते ही आमदनी जेब में रखना और पत्नी को लेकर मनमाना खर्च करने के लिए अलग हो जाना प्रत्यक्ष बेईमानी है। उत्तराधिकार का कानून मात्र कमाने में असमर्थों के लिए लागू होना चाहिए, न कि स्वावलम्बियों की मुफ्त की कमाई लूट लेने के लिए। अध्यात्मवाद और साम्यवाद दोनों ही इस मत के हैं कि पूर्वजों की छोड़ी कमाई को असमर्थ आश्रित ही तब तक उपयोग करें जब तक कि वे स्वावलम्बी नहीं बन जाते।

समाज निर्माण:-

() हममें से हर व्यक्ति अपने को समाज का एक अविच्छिन्न अंग मानें। अपने को उसके साथ अविभाज्य घटक मानें। सामूहिक उत्थान और पतन पर विश्वास करें। एक नाव में बैठे लोग जिस तरह एक साथ डूबते या पार होते हैं, वैसी ही मान्यता अपनी रहे। स्वार्थ और परमार्थ को परस्पर गुंथ दें। परमार्थ को स्वार्थ समझें और स्वार्थ सिद्धि की बात कभी ध्यान में आये तो वह संकीर्ण नहीं उदात्त एवं व्यापक हो। मिल जुलकर काम करने और मिल बाँटकर खाने की आदत डाली जाय।

(२)मनुष्यों के बीच सज्जनता, सद्भावना एवं उदार सहयोग की परम्परा चले। दान विपत्ति एवं पिछड़ेपन से ग्रस्त लोगों को पैरों पर खड़े होने तक के लिए दिया जाय। इसके अतिरिक्कत उसका सतत् प्रवाह सत्प्रवृत्ति सम्वर्धन के लिए ही नियोजित हो। साधारणतया मुफ्त में खाना और खिलाना अनैतिक समझा जाय। इसमें पारिवारिक या सामाजिक प्रीति भोजों का जहाँ औचित्य हो, वहाँ अपवाद रूप से छूट रहे। भिक्षा व्यवसाय पनपने न दिया जाय। दहेज, मृतक भोज, सदावर्त धर्मशाला आदि ऐसे दान जो मात्र प्रसन्न करने भर के लिये दिये जाते हैं और उस उदारता के लाभ समर्थ लोग उठाते हैं, अनुपयुक्त माने और रोके जायें। साथ ही हर क्षेत्र का पिछड़ापन दूर करने के लिए उदार श्रमदान और धनदान को अधिकाधिक प्रोत्साहित किया जाय।

() किसी मान्यता या प्रचलन को शाश्वत या सत्य न माना जाय, उन्हें परिस्थितियों के कारण बना समझा जाय। उनमें जितना औचित्य, न्याय और विवेक जुड़ा हो उतना ग्राह्य और जो अनुपयुक्त होते हुए भी परम्परा के नाम पर गले बंधा हो, उसे उतार फेंका जाय। समय- समय पर इस क्षेत्र का पर्यवेक्षण होते रहना चाहिये और जो असामयिक, अनुपयोगी हो उसे बदल देना चाहिये। इस दृष्टि से ङ्क्षलग भेद, जाति भेद के नाम पर चलने वाली विषमता सर्वथा अग्राह्य समझी जाय।

() सहकारिता का प्रचलन हर क्षेत्र में किया जाय। अलग- अलग पड़ने की अपेक्षा सम्मिलित प्रयत्नों और संस्थानों को महत्व दिया जाय। संयुक्त परिवार से लेकर संयुक्त राष्ट्र, संयुक्त विश्व को लक्ष्य बनाकर चला जाय। विश्व परिवार का आदर्श कार्यान्वित करने का ठीक समय यही है। सभी प्रकार के विलगावों को निरस्त किया जाय। व्यक्ति की सुविधा की तुलना में समाज व्यवस्था को वरिष्ठता मिले। प्रशंसा ऐसे ही प्रयत्नों की हो जिन्हें सर्वोपयोगी कहा जाय। व्यक्तिगत समृद्धि, प्रगति एवं विशिष्टता को श्रेय न मिले। उसे कौतूहल मात्र समझा जाय।

() अवांछनीय मूढ़ मान्यताओं और कुरीतियों को छूत की बीमारी समझा जाय। वे जिस पर सवार होती है उसे तो मारती ही हैं, अन्यान्य लोगों को भी चपेट में लेती और वातावरण बिगाड़ती हैं। इसलिए उनका असहयोग, विरोध करने की मुद्रा रखी जाय और जहाँ सम्भव हो उनके साथ समर्थ संघर्ष भी किया जाय। समाज के किसी अंग पर हुआ अनीति का हमला समूचे समाज के साथ बरती गई दुष्टता माना जाय और उसे निरस्त करने के लिए जो मीठे- कड़ुवे उपाय हो सकते हों, उन्हें अपनाया जाय। अपने ऊपर बीतेगी तब देखेंगे, इसकी प्रतीक्षा करने की अपेक्षा कहीं भी हुए अनीति के आक्रमण को अपने ऊपर हमला माना जाय और प्रतिकार के लिए दूरदर्शितापूर्ण रणनीति अपनायी जाय।

व्यक्तिगत परिवार और समाज क्षेत्र के उपरोक्त पाँच- पाँच सूत्रों को उन- उन क्षेत्रों के पंचशील माना जाय और उन्हें कार्यान्वित करने के लिए जो भी अवसर मिले उन्हें हाथ से जाने न दिया जाय।

आवश्यक नहीं कि इस सभी का तत्काल एक साथ उपयोग करना आरम्भ कर दिया जाय। उनमें से जितने जब जिस प्रकार कार्यान्वित किये जाने सम्भव हों, तब उन्हें काम में लाने का अवसर भी हाथ से न जाने दिया जाय। किन्तु इतना काम तो तत्काल आरम्भ कर दिया जाये कि उन्हें सिद्धान्त रूप से पूरी तरह स्वीकार कर लिया जाये। आदर्शवादी महानता से गौरवान्वित होने वाले जीवन इन्हीं सिद्धान्तों के आधार पर जीये जाते हैं। अनुकरणीय प्रयास करने के लिए जिन्होंने भी श्रेय पाया है, उनने त्रिविधि पंचशीलों में से किन्हीं सूत्रों को अपनाया और अन्यान्यों द्वारा अपनाये जाने का वातावरण बनाया है।







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