जर्मन पत्रिका ‘मेडिजिनिशे क्लीनिक’ में छपे एक विस्तृत लेख में कई शरीर विज्ञानियों के अनुभवों का सारांश छपा है जिसमें बताया गया है- दर्द में जितना अंश शारीरिक कारणों का होता है उसमें कहीं अधिक मानसिक तथ्य जुड़े होते हैं। ऐसे प्रयोग किये जा चुके हैं जिनमें मात्र पानी की सुई लगाकर रोगी को यह बताया गया की यह गहरी नींद की दवा है, उसी से दर्द पीड़ितों का दर्द बन्द हो गया और वे सो गये। इसके विपरीत मर्फिया के इंजेक्शन देकर यह कहा गया कि, यह हलकी दवा है शायद इससे थोड़ा बहुत दर्द हल्का पड़े और संभव है कुछ नींद आये। यह सन्देह उत्पन्न कर देने पर रोगी दर्द की शिकायत कर सके और अधूरी निद्रा में झपकी लेते रहे। इस प्रयोग के बाद उन्हीं इजेक्शनों को जब विपरीत व्याख्या करते हुए भिन्न दवा बनाकर रोगियों को दिया गया तो उसकी पहले की अपेक्षा सर्वथा भिन्न प्रतिक्रिया हुई। पहले दिन मर्फिया का इंजेक्शन जब मामूली दवा बताकर लगाया गया तो उसने दर्द कम नहीं किया और पानी को बड़ी शक्ति का बताकर निश्चित रूप से नींद आने का आश्वासन देकर लगाया गया तो रोगियों को गहरी नींद आई। इन प्रयोगों से डाक्टर इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि दवाएँ जितना परिणाम प्रस्तुत करती हैं उससे अधिक प्रभाव मान्यताओं का होता है।
एक ही स्तर के दर्द को भिन्न- भिन्न मन:स्थिति के लोग अलग- अलग तरह अनुभव करते हैं। डरपोक रोगी मामूली से ही दर्द में बेतरह चीखते चिल्लाते हैं। मध्यम मन:स्थिति वाले मात्र हलके- हलके कराहते रहते हैं। साहसी लोग उसी कष्ट को बहुत हल्का मानते हैं ।। युद्ध मोर्चे के घायल अपनी बहादुरी की मान्यता के आवेश में कम कष्ट अनुभव करते हैं और कम चीखते चिल्लाते हैं जबकि उतने ही कष्ट में सामान्य लोग तीन गुना अधिक दर्द अनुभव करते हैं।
भावनात्मक स्थिति भी कई बार दर्द में परिणत हो जाती है। सिर दर्द, पेट का दर्द, जोड़ों का दर्द, छाती का दर्द, कमर का दर्द बहुत करके मनोवैज्ञानिक कारणों से होते हैं। इनके मूल में कोई चिंता, आशंका, भय की भावी कल्पना अथवा भूतकाल की कोई दुखद स्मृति काम करती रहती है। मन की वह विभिन्न अवस्था शरीर के किन्हीं अंगों पर आच्छादित होकर उन्हें पीड़ा अनुभव कराती है, जबकि शारीरिक दृष्टि से उन अवयवों में उस तरह के कष्ट का कोई कारण नहीं होता।
कई बार ऐसी स्थिति भी देखी गई की डाक्टर अपने समस्त निदान परीक्षण करने के उपरान्त भी रोगी में कोई अस्वस्थता का कारण नहीं दीखता और रोग का कारण जानने से अपनी असमर्थता प्रकट करता है। किन्तु रोगी बराबर कष्ट से पीड़ित रहता है। दिन- दिन दुबला होता जाता है और साधारण काम काज कर सकने में भी समर्थ नहीं रहता, उसका पीड़ाजन्य कष्ट स्पष्ट दीखता है। ढोंग बनाने का कोई कारण नहीं होता, क्योंकि दूसरों पर नहीं उस रुग्गता का पूरा भार अपने ही कंधों पर आता है।
इस विचित्र स्थिति में मनोवैज्ञानिक कारण ही काम कर रहे होते है। कोई पुरानी आघात करने वाली अनुभूति मस्तिष्क के किसी भाग पर आक्रमण करती है और उसे अकचका देती है। चूंकि मस्तिष्क की प्रत्येक कोशिका अपने सूत्र तन्तुओं के सहारे अन्य अनेक कोशिकाओं के साथ जुड़ी होतीं है और उनसे कई तरह के आदान- प्रदान करती रहती है। इसी प्रक्रिया के अन्तर्गत लगे हुए आघात अपने संबद्ध केन्द्र को प्रभावित करने तक सीमित न रहकर जब शरीर के किसी अन्य अवयव से संबद्ध केन्द्र से जा टकराते हैं तो वह अंग ही रुग्णता अनुभव करने लगता है। वह अंग शारीरिक दृष्टि से निरोग होता है, पर मस्तिष्क विद्युत प्रवाह उस स्थान पर ठीक तरह नहीं पहुँच पाता, क्योंकि संप्रेषण वाले मस्तिष्कीय कोष रुग्णावस्था में पड़े हैं। प्रेषण की गड़बड़ी उस अंग को पूरी खुराक और सही निर्देश नहीं दे पाती। इस विचित्र स्थिति की अनुभूति मस्तिष्क के अन्य तन्तुओं को अमुक रोग जैसी होती है। रोगी वस्तुत: उन्हीं काटों से पीड़ित होता है जैसा कि वह बताता है। पर डाक्टर क्या करे, उसकी परीक्षा पद्धति तो अंगों के रक्त मांस आदि से संबन्धित स्थिति के आधार पर बनी है। मानसिक भूल भुलैयों की उसे जानकारी नहीं होती। अस्तु ऐसे रोगियों को किसी मानसोपचार के पास जाने की सलाह देकर वह अपना पीछा छुड़ा लेता है। अनिश्चित स्थिति में वह उपचार करे भी तो क्या करे।
मानसिक आघात लगना किस कारण से होता है इसका भी एक जैसा विवेचन नहीं होता। कई व्यक्ति आये दिन अपमान सहते है और उसके अभ्यस्त हो जाते है उन पर कोई खास प्रभाव नहीं पड़ता, पर कोई ऐसे भी होते है जों उतनी सी बात को अत्यधिक महत्व देकर तड़प उठते हैं। द्रौपदी ने दुर्योधन से एक निर्दोष मजाक करते हुए ही यह कहा था कि अन्धों के अन्धे होते हैं। उल्टी व्याख्या करके उसे अक्षम्य अपराध मान लिया गया और प्रतिशोध की चरम सीमा का दण्ड उसे दिया गया। अपनी दृष्टि में दुर्योधन भी सही हो सकते हैं। उनके मस्तिष्क ने उन शब्दों को तिलमिला देने वाला अपमान समझा हो और उस आघात को गहराई के समतुल्य प्रतिशोध ढूंढ़कर अपने आघात को हलका करने का उपाय निकाला हो। ऐसे ही हर व्यक्ति की अपनी- अपनी व्याख्या और अनुभूति होती है। कौन किस घटना को किस दृष्टि से देखेगा और उसकी प्रतिक्रिया ग्रहण करेगा इसका कोई निश्चित मापदण्ड नहीं हो सकता। सामाजिक और शासकीय मापदण्ड निर्धारित है कि इस सीमा का असामाजिक आचरण करने पर उसे दण्डनीय माना जायेगा, पर उसमें भी अपराधी की नीयत, परिस्थिति, प्रतिक्रिया आदि का ध्यान रखा जाता है। सम्भव है अपराध गलती, गफलत या भ्रान्त स्थिति में बन पड़ा हो, ऐसी दशा में दण्ड हलका दिया जाता है। मन के लिए आचार संहिता निर्धारित नहीं कि वह किस घटना को किस रूप में ग्रहण करे। यदि कोई घटना अप्रिय या अवांछनीय स्तर की सामने आई है तो उसका आधात किस पर कितना पड़ेगा यह उसकी भावुकता एवं विचार शक्ति के समन्वय पर निर्भर है।
कितने ही व्यक्तियों के सामने हत्या, मारकाट, उत्पीडन के दृश्य आते ही रहते हैं उन पर कोई विशेष प्रभाव नहीं पड़ता, किन्तु किसी अनभ्यस्त और भावुक व्यक्ति पर उन्हीं घटनाओं का इतना प्रभाव पड़ सकता है कि वह किसी भयंकर अवसाद में डूब जाय अथवा विक्षिप्त हो उठे। अपमान, असफलता हानि, विछोह, जैसी अप्रिय घटना, यों मनुष्य जीवन का एक पक्ष है और वह भी घटित होता ही रहता है। सम्मान, सफलता, लाभ, मिलन जैसे प्रसन्नतादायक प्रसंग आते हैं तो उससे भिन्न प्रकार की घटनाएँ क्यों घटित न होंगी। रात और दिन के विपरीत प्रसंगों की संरचना प्रिय और अप्रिय घटनाओं के लाने वाले से हुई है। सदा एक जैसी स्थिति में विशेषतया प्रिय स्थिति में सदा सर्वदा के लिए बने रहना किसी के लिए भी सम्भव नहीं। उतार चढ़ावों का आना स्वाभाविक है। धनवान, विद्वान, बलवान, व्यक्ति को भी प्रियजनों का विछोह बड़ी- चढ़ी महत्वाकांक्षाओं में असफलता, शारीरिक रूग्णता, मित्रों का छल- कपट दुख का कारण बन सकता है। सबसे बडी बात है अपने रचे हुए कल्पना लोक में अवांछनीय चिन्तन का चल पड़ना। आशंकाएँ प्राय: इसी स्तर की होती हैं। दूसरे व्यक्तियों का व्यवहार, परिस्थितियों का प्रवाह निकट भविष्य में हमारे प्रतिकूल चलेगा और उससे भयंकर विपत्ति आवेगी, ऐसा चिन्तन कितने ही व्यक्ति करते और अत्यधिक उद्विग्न रहते है। जबकि वैसा व्यवहार एवं घटनाक्रम कदाचित ही सामने आता है। अधिकांश आशंकाएँ निर्मूल होती है। वे कल्पना लोक की काली- घटाएं बरसती नहीं केवल गर्जन तर्जन करके चली जाती हैं। पर इससे क्या, जिसने आशंकाओं की भयभीत करने वाली कल्पनाओं का जाल बुना था उसके लिए तो वहीं असह्य पीड़ा देने के लिए बहुत बड़ा कारण बन गया।
मानसिक आघात विपरीत परिस्थितियों के वास्तविक एवं काल्पनिक घटनाक्रमों के सहारे लगते हैं। अब यह व्यक्ति की भावुकता या संवेदना शक्ति पर निर्भर है कि वह उन्हें ऐसे ही मजाक में टाल देता है, साहस समेट कर निपटने का फैसला करता है या भयभीत होकर असन्तुलित हो बैठता है। यदि व्यक्ति डरपोक प्रकृति का अति भावुक है तो उसके लिए छोटी घटना भी बहुत बडी हो सकती है और नन्हीं सी अशुभ कल्पना से तिलमिला कर उद्विग्न हो सकता है। जो हो आघातों का पूरे मानसिक संस्थान पर बहुत बुरा असर पड़ता है। इसकी प्रतिक्रिया शरीर पर भी भयंकर होती है। ज्वर, सिर दर्द आदि की स्थिति में शरीर असहाय बन जाता है। उसे कुछ करते धरते नहीं बनता, बेचैनी सताती है। मानसिक असन्तुलन इससे भी बुरी स्थिति पैदा कर देता है। पूरे शरीर पर मन का नियन्त्रण है। रक्त मांस से नहीं मानसिक निर्देशों से ही देह अपनी गाड़ी चलाती है। मन के विकृत होने पर शरीर का स्वस्थ बने रहना असंभव है। चिकित्सा शास्त्र द्वारा निर्धारित निदान व्यवस्था का व्यतिक्रम करके मनुष्य ऐसे रोगों में ग्रसित हो सकता है जो शरीर शास्त्रियों की पकड़ से बाहर हैं।
मानसिक रोग उत्पन्न करने वाले आघात अमुक घटनाओं या परिस्थितियों के कारण लगेंगे ऐसा कुछ निश्चित नहीं। यह व्यक्ति के अपने निजी स्तर पर निर्भर है कि वह किस प्रकार की घटनाओं को किस दृष्टि से देखता है और उनकी क्या प्रतिक्रिया उत्पन्न करता है। एक ही घटना की अनेक व्यक्तियों पर परस्पर विरोधी प्रतिक्रियाएँ हो सकती हैं। घटनाओं को रोका नहीं जा सकता है। समाज का पुनर्निर्माण हो, व्यक्तियों के स्वभाव व्यवहार बदलें, यह दोनों ही बातें संसार से मानसिक रोगों को दूर कर सकती हैं, पर वैसी स्थिति बनना आज की स्थिति में कठिन है। तत्काल तो यही हो सकता है कि मनुष्यों को सोचने का सही तरीका सिखाया जाय ताकि वे परिस्थितियों के साथ तालमेल बिठा सके और अपनी चिन्तनात्मक दुर्बलता के कारण ऐसे मानसिक रोगों से अपना बचाव कर सके, जो उनके जीवन क्रम को एक प्रकार से अस्त- व्यस्त और निरर्थक बना कर रख देते हैं।
भूत- प्रेत और देवी देवता जादू टोना से होने वाली हानि असंख्यों को पीड़ित करती है। अवास्तविक की ऐसी प्रतिक्रिया जो वास्तविकता से किसी भी प्रकार कम नहीं होती, आश्चर्य जनक है। अवास्तविक भूत प्रेतों से आक्रान्त व्यक्ति वस्तुत: उतना ही कष्ट उठाता है जितना कि वास्तविक भूत होते तो अपने आक्रमण से हानि पहुँचाते। दूसरों से मारण, उच्चाटन, वशीकरण करके हमें सताया जा रहा है। यह मानकर कितने ही व्यक्ति वस्तुत: उद्विग्न, विक्षिप्त एवं मरनासन्न होते देखे गये हैं। कितनी ही जाने इस कुचक्र में चली जाती हैं। अघोरी, तांत्रिक, कापालिक, डायनें कितने ही लोगों के लिए आतंक का कारण बनते हैं, कितने ही राहु, शनिश्चर आदि की अशुभ ग्रह दशा की कल्पना से हर घडी चिंताग्रस्त रहते हैं, कईयों को स्वप्न की डरावनी घटना, अपशकुनों की सूचना बहुत कष्ट कारक होती है। यह आशंकाएँ प्राय: सर्वथा निर्मूल होती हैं, इनके पीछे तथ्य राई रत्ती भी नहीं होता, पर जिस पर उनका आतंक छा गया है, उनकी दयनीय मनोदशा देखकर तरस आता है। यह लोग एक संवेदन के शिकार होते है। किसी ओछे आधार के सहारे उनकी आशंका इस स्तर की विभीषिका बन जाती है कि मनुष्य को प्राण संकट जैसी भयभीत स्थिति में होकर गुजरना पड़ता है। झाड़- फूक, मंत्र- तंत्र से कई मनुष्यों को बहुत राहत मिलती है और संतोषजनक लाभ होता है। यह सब क्या है ?? निश्चित रूप से यह उस व्यक्ति की स्वसंवेदना ही है जो विधेयक बनकर सामने आई और उत्साह प्रदान करके सरल स्वाभाविक अच्छी स्थिति को जादू का परिणाम बताकर अपना वरदान दे गई है। पिछड़े हुए लोगों में अभी भी भूत पलीतों और जादू टोनों का पूरा जोर है। उससे वे वस्तुत: हानि उठाते और लाभान्वित होते हैं। यह चमत्कार अपनी कल्पना शक्ति एवं मान्यताओं का है जो अवास्तविक को भी प्रत्यक्ष वास्तविकता से भी बढ़कर तथ्यमय बना देती है।
किन्हीं अप्रिय एवं अवांछनीय घटनाओं से अथवा शारीरिक मानसिक विकृतियों से हल्की उद्विग्नता चढ़ आती है। इस स्थिति को खीज या परेशानी भी कहा जा सकता है। डाक्टरों की भाषा में इसे ‘तनाव’ कहते हैं। नर्वस सिस्टम की कमजोरी वाले व्यक्ति इस स्थिति के जल्दी शिकार होते है। वे जो भी सामने आवे उसी पर अकारण झल्लाते हैं। चूंकि खीज भीतर भरी होती है और वह किसी न किसी को निमित्त बनाकर बाहर निकलना चाहती है। इसके लिए जो भी सामने आ जाय उसी पर कुछ न कुछ दोषारोपन करके उल्टी- सीधी कहने लग जाता है। न कहा जाय तो भी क्रोध या नाराजगी नहीं तो उपेक्षा अवज्ञा का व्यवहार तो बन ही पड़ता है। कई बार इस स्थिति में लोग खिन्नता, लाचारी एवं निराशा व्यक्त करते हुए दुखित बने, मुँह लटका कर बैठे भी देखे जाते है।
मानसिक रोग चिकित्सा की एक पद्धति है, विहेवियोरल थेरेपी, जिसमें रोगी के साथ सद्व्यवहार और सहानुभूति की समुचित मात्रा रखी जाती है और उसे स्नेह, दुलार एवं सहयोग का अनुभव करने दिया जाता है। इस उपचार से रोगी क्रमश: डिसेंसिटाइज होता चलता है साथ ही मनोव्यथाओं से राहत भी अनुभव करता है।
मानसिक रोगियों के साथ मारपीट, भर्त्सना तिरस्कार जैसे- निर्मम व्यवहार उसे और भी अधिक दुखी करते हैं और रोग की स्थिति बिगड़ती जाती है। शारीरिक रोगियों की तरह मानसिक रोगी भी दया के पात्र हैं उनके उपचार में स्नेह- सौजन्य और सुविधाओं का यदि समावेश किया जा सके, विक्षोभों को शांत करने वाले वातावरण में उन्हें रखा जा सके, तो औषधि उपचार की अपेक्षा उन्हें कहीं अधिक और जल्दी ही लाभ हो सकता हैं।