महानता से जुड़े- समय को पहचानें

युग- परिवर्तन के इस समय में एक तथ्य विशेषतया हृदयंगम करने योग्य है कि अवसर को पहचानने और उसका सदुपयोग करने वाले ही सदा से श्रेयाधिकारी बनते जा रहे हैं। जब- जब भी समय बदला है, एक अकेले से नहीं अग्रगामियों के समूह के माध्यम से वह पुरुषार्थ सम्पन्न हुआ है। अवतारों की परम्परा भी इसकी साक्षी है। विगत अवतारों में उनके सामयिक सहयोगियों का अविस्मरणीय अनुदान रहा है। राम अवतरण में लक्ष्मण, हनुमान, अंगद, विभीषण, सुग्रीव, नल- नील जैसे बलिष्ठ और सामान्य रीछ- वानरों जैसे कनिष्ठ समान रूप से सहगामी रहे हैं। गिद्ध- गिलहरी जैसे अकिंचनों ने भी सामर्थ्यानुसार भूमिकायें निभाई है। कृष्ण काल में पाण्डवों से लेकर ग्वालों तक का सहयोग साथ रहा है। बुद्ध के भिक्षु और गाँधी के सत्याग्रही कन्धे से कन्धा मिलाकर जुटे और कदम से कदम मिलाकर चले हैं। भगवान सर्व समर्थ है वे चाहें उँगली पर उठा सकते हैं, किन्तु प्रियजनों को श्रेय देना भी अवतार का एक बड़ा काम है। शबरी, कुब्जा जैसी महिलाओं और केवट, सुदामा जैसे पुरुषों को भी अवतार के सखा सहचर होने का लाभ मिला था। गाँधी के सान्निध्य में विनोबा और बुद्ध के सहचर आनन्द जैसे असंख्यों को श्रेय मिला था। भगवान के अनन्त भक्तों में से नारद जैसे देवर्षि, वशिष्ठ जैसे महर्षि और विभीषण जैसे अगणितों को अविच्छिन्न यश पाने का अवसर मिला है। सहकारिता को, संगठन को, सर्वोपरि शक्ति के रूप में प्रतिपादित करने के लिए महान शक्तियाँ सदा ही यह प्रयत्न करती रही है कि जागृतों को महत्वपूर्ण अवसरों पर अग्रिम पंक्ति में खड़े होने के लिए उभारा जाय। अर्जुन के साथ तो इसके लिए भर्त्सना उपाय बरते गये थे। सुग्रीव को धमकाने लक्ष्मण पहुँचे थे। परमहंस विवेकानन्द को घसीटकर आगे लाए थे। अम्बपाली, अँगुलिमाल, हर्षवर्धन और अशोक से जो लिया गया था उससे असंख्य गुना उन्हें लौटाया गया था। भामाशाह के सौभाग्य पर कितने ही धनाध्यक्ष ईर्ष्या करते रहते हैं।

भगतसिंह और सुभाष जैसा यश मिलने की सम्भावना हो, तो उस मार्ग पर चलने के लिए हजारों आतुर देखे जाते है। समझाया जाय तो कितने ही केवल बिना उतराई लिये पार उतारने की प्रक्रिया पूरी कर सकते हैं। पटेल और नेहरू बनने के लिए कोई भी अपनी वकालत छोड़ सकता है, पर दुर्भाग्य इतना ही रहता है कि समय को पहचानना और उपयुक्त अवसर पर साहस जुटाना उन लोगों से बन ही नहीं पड़ता। जागरूक ही है जो महत्वपूर्ण निर्णय करते, साहसिकता अपनाते और अविस्मरणीय महामानवों की पदवी प्राप्त करते हैं। ऐसे सौभाग्यों में श्रेयार्थी का विवेक प्रमुख होता है अथवा उपनिषदकार के अनुसार ‘‘महानता जिसे चाहती है उसे वरण कर लेती है’’ की उक्ति में सन्निहित दैवी अनुकम्पा के प्रतिपादनों में से कौन सा सही है।

महानता की अपनी निजी सामर्थ्य है। उसके आधार पर वह स्वयं तो अपनी प्रखरता एवं गरिमा प्रकट करती ही है, साथ ही अपने सम्पर्क परिकर को भी उन विशेषताओं से भरती और कृत- कृत्य बनाती देखी गई है। अतएवं महान बनने के लिए जहाँ आत्म साधना और आत्म विकास की तपश्चर्या को आवश्यक बताया गया है, वहाँ इस ओर भी संकेत किया गया है कि उसकी प्रखरता से सम्पर्क साधने और लाभान्वित होने का अवसर भी न चूका जाय। यों ऐसे अवसर कभी- कभी ही आते और किसी भाग्यशाली को ही मिलते हैं। किन्तु कदाचित वैसा सुयोग बैठ जाय तो ऐसा अप्रत्याशित लाभ मिलता है जिसे लाटरी खुलने और देखते- देखते मालवार बन जाने के समतुल्य कहा जा सके।

चन्दन के समीप उगे झाड़ झंखाड़ों के सुगन्धित बन जाने और उसी मूल्य में बिकने की किम्वदन्ती प्रख्यात है। पानी के दूध में मिलकर उसी भाव बिकने की उक्ति आये दिन दुहराई जाती रहती है। पारस को छूकर काले कुरूप और सस्ते मोल वाले लोहे का सोने जैसे गौरवास्पद बहुमूल्य धातु में बदल जाना प्रख्यात है। स्वाँति की बूँदों के लाभान्वित होने पर सीप जैसी उपेक्षित इकाई को मूल्यवान मोती प्रसव करने का श्रेय मिलता है। पेड़ से लिपटकर चलने वाली बेल उसी के बराबर ऊँची जा पहुँचती और अपनी प्रगति पर गर्व करती है। जबकि वह अपने बलबूते मात्र जमीन पर ही थोड़ी दूर रेंग सकती हैं, उसकी दुर्बल काया को देखते हुए इतने ऊँचे बढ़ जाने की बात किसी प्रकार समझ में नहीं आती, किन्तु पेड़ का सान्निध्य और लिपट पड़ने का पुरुषार्थ जब सोना सुहागा बनकर समन्वय बनाते है तो उससे महान पक्ष की तो कुछ हानि नहीं होती पर दुर्बल पक्ष को अनायास ही दैवी वरदान जैसा लाभ मिल जाता है।

यह उदाहरण उस सुयोग का महत्व समझाने के लिए दिये जा रहे हैं जिसमें महानता के साथ सम्पर्क साधना, उसके सहयोग का सुयोग पा लेना भी कई बार अप्रत्याशित सौभाग्य बनकर सामने आता है। यों वैसे अवसर सदा सर्वदा हर किसी के लिए उपलब्ध नहीं रहते।

रामचरित्र के साथ जुड़ जाने पर कितने ही सामान्य स्तर के प्राणियों ने सामान्य क्रिया कलापों के सहारे असामान्य श्रेय पाया। बन्दर स्वभावतः इधर- उधर लकड़ी पत्थर फेंकते रहते हैं, समुद्र पर पुल बनाने में प्रायः इतनी ही कूद- फाँद उन्हें करनी पड़ी होगी, पर उसे सुयोग ही कहना चाहिए कि उतनी छोटी सी उदार श्रमशीलता को ऐतिहासिक बना दिया और कथा वाचक उसकी भावभरी चर्चा करते- करते अघाते नहीं, ऐसे आदर्शवादी सहयोगों की सफलता मे कर्ताओं का पुुरुषार्थ ही नहीं दैवी सहायता भी काम करती है और श्रेय उन अग्रगामी साहसियों के पल्ले बँध जाता है। नल- नील ने समुद्र पर पुल बनाया और पत्थर पानी पर तैरने लगे। दैवी प्रयोजनों में दैवी सहायता की असाधारण मात्रा उपलब्ध होती है।

हनुमान का उदाहरण इसी प्रकार का है। वे सदा से सुग्रीव के सहयोगी थे पर जब बालि ने उसकी सम्पदा एवं गृहिणी का अपहरण किया तो वे प्रतिरोध में कोई पुरुषार्थ न दिखा सके। इससे प्रतीत होता है कि उस अवसर पर सुग्रीव की तरह हनुमान ने भी अपने को असमर्थ पाया होगा और जान बचाकर कहीं खोह- कन्दरा का आश्रय लेने में ही भला देखा होगा। पर वे जब प्राण हथेली पर रख राम- काज के परमार्थ प्रयोजन में संलग्न हुए तो पर्वत उठाने, समुद्र लाँघने, अशोक उद्यान उजाड़ने, लंका जलाने जैसे असम्भव पराक्रम दिखाने लगे। सुग्रीव पत्नी को रोकने में सर्वथा असमर्थ रहने पर भी अन्य देश में समुद्र पर बसे अभेद्य दुर्ग को बेधकर वे सीता को मुक्त कराने में सफल हो गये। इसमें दैवी सहायता की बात प्रत्यक्ष है। ऐसा अनुग्रह उन सभी को मिल सका, जिन्होंने राम की गरिमा को, उनके लीला क्रम को सहयोग देने की परिणति की पूर्व कल्पना कर ली। वयोवृद्ध जामवन्त और जटायु, अकिंचन गिलहरी, दरिद्र केवट और शबरी की सामर्थ्य और भूमिकाओं को देखा जाय तो उनके द्वारा प्रस्तुत किए गये अनुदान अकिंचन जितने ही कहे जा सकते हैं। इतने पर उनकी गाथायें अजर- अमर बन गई। वे श्रेयाधिकारी बने और अपने उदाहरणों को भावभरी प्रेरणायें दे सकने में समर्थ हुए। इस सौभाग्य भरी उपलब्धि में प्रमुख श्रेय उस सूझबूझ को है, जिसने अपनी श्रद्धा सहायता को महान व्यक्तित्व और महान अवसर के साथ जोड़कर लाखों गुना अधिक श्रेय कमाया।

कृष्ण चरित्र पर दृष्टिपात करने से भी यह तथ्य असाधारण रूप से उभरकर आगे आता है। गोपियों का छाछ पिलाना, थोड़ी सी हँसी ठिठोली कर देना, ग्वाल- बालों की लाठी का सहारा जैसे कृत्य ऐसे नहीं है, जिन्हें दैनिक जीवन में सर्वत्र घटित होते रहने वाले सामान्य उपक्रमों से भिन्न समझा जा सके। अर्जुन, भीम जैसों को श्रीकृष्ण से जुड़कर जो श्रेय मिला उनकी गरिमा असामान्य हो गई। अर्जुन, भीम वे ही थे, जिन्हें वनवास के समय पेट भरने के लिए बहुरूपिये बनकर दिन गुजारने पड़े थे। द्रौपदी को निर्वसन होते आँखों से देखने वाले पाण्डव यदि वस्तुतः महाभारत जीत सकने जैसी समर्थता के धनी रहे होते, तो न तो दुर्योधन, दुशासन वैसी धृष्टता करते और न पाण्डव ही उसे सहन कर पाते। कहना न होगा कि पाण्डवों की विजय श्री में उनकी वह बुद्धिमत्ता ही मूर्धन्य मानी जायेगी, जिसमें उनने कृष्ण को अपना और अपने को कृष्ण का बनाकर भगवान से घोड़े हँकवाने जैसे छोटे काम कराने को विवश कर दिया था। यदि वे वैसा न कर पाते और अपने बलबूते जीवन गुजारते तो स्थिति सर्वथा भिन्न होती और याथावरों की तरह जैसे- तैसे जिन्दगी व्यतीत करते।

सुदामा की कृष्ण से सघन मित्रता जमा सकने की दूरदर्शिता ही उन्हें मित्र के समतुल्य बना देने का श्रेय दिला सकी। कृष्ण सुदामा की संयुक्त चर्चा अनेकानेक अवसरों पर होती रहती है। कोई कृष्ण की उदारता को, कोई सुदामा की गौरव गरिमा को प्रधानता देते हैं। जो हो दोनों का समन्वय रहा तो ऐसा ही, जिसमें महानता का सान्निध्य समन्वय अपनी चमत्कारी परिणति सिद्ध कर सके।

बुद्ध और गाँधी के महान व्यक्ति होने के सम्बन्ध में दो राय नहीं हो सकती। पर इस तथ्य को भी भुला नहीं दिया जाना चाहिए कि उनके सघन सम्पर्क में आने वाले असाधारण रूप से लाभान्वित हुए और सौभाग्यशाली बने।

बुद्ध के साथ जुड़ने का साहस न कर पाते तो हर्षवर्धन, अशोक, आनन्द, राहुल, कुमार जीव, संघमित्रा, अम्बपाली की जीवन चर्या कितनी नगण्य रह गई होती इसका अनुमान लगा सकना किसी के लिए भी कठिन नहीं होना चाहिए। गाँधी के साथ यदि विनोबा, राजगोपालाचार्य, नेहरू, पटेल, राजेन्द्रबाबू आदि न घुले होते, अपना पृथक- पृथक वर्चस्व बनाकर चले होते तो वह स्थिति बन नहीं पाती जो बन सकी। नेहरू और लालबहादुर शास्त्री की घनिष्टता प्रसिद्ध है। यदि उस सघनता को ताक पर रख दें और अपने- अपने बलबूते उठने- बैठने की बात सोचें तो फिर परिणाम भी कुछ दूसरे ही स्तर के होने की बात सामने आ खड़ी होगी।

चाणक्य के साथ चन्द्रगुप्त, समर्थ के साथ शिवाजी, परमहंस के साथ विवेकानन्द की सघनता दोनों ही पक्षों के लिए कितनी सन्तोषजनक परिणाम प्रस्तुत कर सकी, इसे कौन नहीं जानता। मान्धाता ने आद्य शंकराचार्य के साथ जुड़कर चारों धाम बनाने का श्रेय पाया। भामाशाह का अनुदान राणा प्रताप के साथ सम्बन्ध होने पर ही सार्थक हुआ अन्यथा इतना पैसा तो सेठ साहूकारों के यहाँ से चोर ठग भी उठा ले जाते है और बेटे पोतों में, दुर्व्यसनों में उड़ाते- फूँकते देखे जाते हैं। महामानवों के साथ जुड़ जाने पर श्रेय पथ कितनी द्रुतगति से प्रशस्त होता है, इनके असंख्य उदाहरणों में टिटिहरी का वह कण भी सम्मिलित है जिसमें अगस्त्य ऋषि की सहायता से समुद्र सोखे जाने और अण्डे वापिस मिलने की घटना कही जाती है।

असामान्य पतियों की अर्धांगिनी बनकर कितनी ही ऐसा उच्चस्तरीय श्रेय पा सकी हैं जैसा कि अपने बलबूते उनके लिए पा सकना सम्भव नहीं था। कस्तूरबा गाँधी, अहिल्याबाई, लक्ष्मीबाई जैसी अगणित महिलायें इसी श्रेणी में आती हैं। पौराणिक युग की राधा, अरून्धती, शची, मैत्रेयी, द्रौपदी आदि की गौरव गरिमा में उनके पतियों के व्यक्तित्वों का योगदान नहीं रहा है। इस सौभाग्य के अभाव में उन्हें सामान्य महिलाओं की तरह ही जीवन यापन करना पड़ता।

महानता आग के समान हैं, उसके सम्पर्क मे जो भी आता है गरिमायुक्त एवं तद्रूप होता चला जाता है। पृथ्वी का वैभव सूर्य के अनुदान से मिला है। यदि सूर्य का तापमान मात्र तीस डिग्री घट जाय तो समूची धरती चालीस फुट बर्फ से ढ़क जायेगी। इसी प्रकार तीस डिग्री तापमान बड़ जाय तो यहाँ भी बुद्ध ग्रह जैसी भयानक गर्मी तपेगी और वृक्ष वनस्पतियों से लेकर जल, थल और नभचर प्राणियों में से किसी का भी जीवित रह सकना सम्भव नहीं होगा। इसे पृथ्वी का सौभाग्य कहना चाहिए कि वह एक उपयुक्त स्तर के स्नेह सूत्र में सूर्य के साथ बँधी और आदान- प्रदान का उपयोगी सिलसिला चल पड़ा।

संसार भर के आन्दोलनों में जो सर्वप्रथम आगे आये वे प्रख्यात हुए। यों पीछे आने वाले असंख्यों, अविज्ञातों का भी त्याग बलिदान कम नहीं था। स्वतन्त्रता संग्राम में जिन्होंने भावभरी भूमिका निभाई वे पेन्शन पाने, शासन में उच्चपद पाने के श्रेयाधिकारी बने थे। वह समय निकल जाने के उपरान्त कोई उस सौभाग्य को पाना चाहे तो यही कहना पड़ेगा कि समय निकल गया। उनींदे लोग उन दिनों असमंजस की स्थिति में पड़े रहने पर मात्र पश्चाताप ही कर सकते हैं। गाँधी की डाँडी यात्रा एवं धरसना के नमक सत्याग्रह का स्मरण सदा ही किया जाता रहेगा। बाद में तो कितनों ने ही नमक बनाया और कारागार भुगता था।

सत्साहस अपनाने की गरिमा तो सदा ही रहीं है और रहेगी, पर इस दिशा में बढ़ने, सोचने वालों में से अत्यधिक भाग्यवान वे है जो किसी महान अवसर के सामने आते ही उसे हाथ से न जाने देने की तत्परता बरत सके। महान व्यक्ति भी सदा नही जन्मते। जन्मते है तो उनके साथ जुड़कर स्वल्प पराक्रम से असीम यश पाने का सुअवसर हर किसी को कहाँ मिलता है। इसे दैवी वरदान या पूर्व संचित पुण्यों का प्रतिफल कहना चाहिए कि महानता उभरे और उसके साथ सघनता स्थापित करने का साहस जग पड़े।

समय पर शादी के प्रस्ताव आते है और सुयोग्य वधू मिलने का अवसर रहता है। आगत प्रस्तावों को ठुकराते रहने वाले ढलती उम्र में इच्छा उठने पर भी उपयुक्त विवाह का सुयोग खो बैठते हैं। इन दिनों महाकाल ने आग्रहपूर्वक प्राणवानों को सहयोग देने के लिए बुलाया है। वस्तुतः यह श्रेयाधिकारी बनने का सौभाग्य संदेश भर है। भगवान के काम समय के उपक्रम एवं दिव्यशक्तियों अपनी अदृश्य क्षमता के आधार पर स्वयं ही सम्पन्न कर लेती हैं। रीछ वानर रूठ- मटक कर बैठ जाते तो भी सीता वापिसी और लंका की दुर्गति निश्चित थी। ऐसे अवसरों का सबसे बड़ा लाभ वे अग्रगामी उठाते हैं, जो संकीर्ण स्वार्थपरता को छोड़कर समय की माँग पूरी करने के लिए बिना समय गँवाये अग्रिम मोर्चे पर जा खड़े होते हैं। प्रस्तुत प्रभात बेला को ठीक ऐसा ही मुहूर्त समझा जाना चाहिए, जिसमें साहसी, सदाशयी छोटे- छोटे कदम बढ़ाने पर भी अत्यधिक श्रेय संचित कर सकने वाले दूरदर्शियों में गिने जायेंगे।

***







Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118