आद्य शक्ति गायत्री अब युगशक्ति बनने जा रही है। प्राय: इस महामन्त्र का उपयोग अन्तराल के सुधार परिष्कार हेतु किया जाता है। व्यक्तित्व को पवित्र और प्रखर बनाने में उसकी शिक्षा का असाधारण उपयोग है। इतने कम अक्षरों का इतना छोटा, इतना सारगर्भित धर्म शास्त्र, तत्त्व दर्शन संसार में कहीं कोई दूसरा है नहीं। उसके एक- एक अक्षर में जीवन के हर क्षेत्र में प्रयुक्त हो सकने योग्य ऐसा सद्ज्ञान भरा पड़ा है, जिससे अध्यात्म चिन्तन और धर्म व्यवहार के दोनों ही पक्ष सधते हैं। गायत्री को त्रिवेणी कहा गया है। आस्तिकता, आध्यात्मिकता और धार्मिकता रूपी तीन धाराओं का उसके तीन चरणों में समावेश हुआ है।
ज्ञान योग, कर्मयोग, भक्ति योग का- सत्यं शिवं सुन्दरम का, सत् चित् आनन्द का जैसा संगम त्रिपदा में हुआ वैसा उदात्त चिन्तन से सम्बन्धित प्रतिपादन अन्यत्र नहीं देखा जा सकता। आत्म विज्ञान के क्षेत्र में उतरने पर उसकी त्रिविधि शक्तियाँ स्थूल शरीर, सूक्ष्म शरीर और कारण शरीरों को प्रभावित कर सकने की क्षमता से सम्पन्न हैं। उपासना, साधना और आराधना के रूप में उसका उपयोग प्रतिभा, प्रखरता और अभिवर्धन के लिए किया जाता है। साधक को ओजस्वी, मनस्वी और तेजस्वी बनने का अवसर मिलता हैं। अलंकारिक भाषा में त्रिपदा के तीन चरण ब्रह्मा- विष्णु के रूप में, सरस्वती, लक्ष्मी, काली के रूप मे प्रस्तुत किये गये है। तुलसीदास जी ने जिस त्रिवेणी संगम में स्नान करने का माहात्म्य काक होंहि पिक बकहुँ मराला के रूप में वर्णन किया है, उसे उसी आध्यात्मिक संगम के रूप में समझना चाहिए, जिसे त्रिपदा गायत्री कहते है। सिद्धि और स्वर्ग मुक्ति को इस महाशक्ति के अवगाहन से मिलने का माहात्म्य जिनने बताया है, उनने साथ- साथ यह भी कहा है कि शालीनतावादी क्रिया- प्रक्रिया दूरदर्शी विचारणा और आदर्शवादी आस्था की परिपक्वता इसी लोक में रहने वाले मनुष्यों में देवत्व का उदय कर सकती है। गायत्री को अमृत, पारस और कल्पवृक्ष इसी दृष्टि से कहा गया है कि उसके अवगाहन से मानवी सत्ता की तीनों परते, चेतन, अचेतन और सुपर चेतन की ,, मन बुद्धि चित्त की तीनों की स्थितियाँ प्रभावित होती तथा निखरती हैं। फलत: इन तीनों विभूतियों से लाभान्वित होने में कोई संदेह नहीं रह जाता।
नित्य कर्म में गायत्री को अनिवार्य रूप से सम्मिलित किया गया है। शास्त्रोक्त विधि से त्रिकाल संध्या करने पर उसका समावेश करना अनिवार्य है। शिखा को ज्ञान केन्द्र मस्तिष्क की ध्वजा कहा गया है और सूत्र यज्ञोपवीत के नौ धागों को सम्मिलित नौ अनुशासनों को कन्धे पर कर्म कौशल क्षेत्र का अंकुश माना गया है। गायत्री गुरुमन्त्र है जिसे देव संस्कृति में प्रवेश पाते समय सर्वप्रथम दिया और पढ़ाया जाता है।
यह गायत्री का व्यक्तिगत जीवन में व्यवहार हुआ। विश्व व्यवस्था में, समाज संरचना में भी महत्वपूर्ण प्रेरणा और दिशा दे सकने की क्षमता उसमें विद्यमान है। गायत्री सार्वजनीन है। उस पर किसी देश, धर्म, समाज, संस्कृति का एकाधिकार नहीं है। उसमें ‘वसुधैव कुटम्बकम्’ का सिद्धान्त कूट- कूट कर भरा है। साथ ही दूरदर्शी विवेकशीलता की कसौटी पर प्रत्येक प्रचलन से परामर्श को कसते रहने का निर्देश है
गायत्री का वाहन हंस इसी तथ्य का प्रकटीकरण करता है कि नीर क्षीर विवेक की क्षमता प्रखर रखी जाय और इस कसौटी पर बिना नवीन पुरातन का पक्षपात किये प्रत्येक प्रतिपादन को जागरूकतापूर्वक कसा जाय। महाप्रज्ञा का तात्पर्य ही यह है कि सत्य और तथ्य की कसौटी पर कसने के उपरान्त ही किसी कथन, प्रचलन को मान्यता दें। तात्कालिक लाभ में लुभाने वाली दुर्बुधि का परित्याग करते हुए दूरदर्शी विवेक के सहारे मात्र मोती ही चुना जाय, औचित्य ही अपनाया जाय। यही है हँस निर्धारण जिसे मनुष्यों में से राजहंस, परमहंस स्तर के व्यक्ति अपनाते और कृतकृत्य होते हैं।
अगला समय प्रज्ञा युग होगा। उसमें विवेक के सहारे ही सब कुछ सोचा, परखा और अपनाया जायेगा। प्रचलित कूड़े- कबाड़े में से मानव गरिमा के उपयुक्त आदर्शवादी शालीनता की कसौटी पर कसने के उपरान्त ही वे तथ्य अपनाये जायेंगे जो आने वाले समय में नियम अनुशासन के रूप में मान्यता प्राप्त कर सकें। इन चौबीस अक्षरों में व्यक्ति और समाज से सम्बन्धित सभी तथ्यों का स्पर्श करने वाले सिद्धान्त विद्यमान हैं। इन्हें क्रमबद्ध संजोकर भावी संसार की आचार संहिता बन सकती है। विश्व व्यवस्था का संविधान बनाना हो तो उसके लिए भी आवश्यक सूत्र गायत्री मन्त्र के चौबीस अक्षरों में हैं। उनकी विवेचना इस प्रकार की जा सकती है कि उसे सार्वभौम धर्म जैसी मान्यता मिल सके।
अगले दिनों बिखराव निरस्त करना होगा और मानवी गतिविधियों को एक दिशा धारा में बहने के लिए दबाया जायेगा। बौद्धिक, वैज्ञानिक और आर्थिक प्रगति ने सुविधा संवर्धन के साथ- साथ अगणित समस्याओं का घटाटोप संकट खड़ा किया है। इसका समाधान एकता, समता, शुचिता के त्रिविधि सिद्धान्तों को सर्वमान्य बनाने में ही संभव है। एक राष्ट्र भाषा, एक धर्मधारणा के आधार पर ही नवीन विश्व का अभिनव निर्धारण होगा। उसकी रीति- नीति क्या हो? दिशाधारा क्या रहे, इसका सूत्र संकेत अन्यत्र कहीं ढ़ूँढ़ना न पड़ेगा। दूरदर्शी तत्त्वदर्शियों ने उसे गायत्री बीज मन्त्र में ‘गागर में सागर’ की तरह भर दिया है। उपासना क्षेत्र में भी किसी न किसी अवलम्बन की आवश्यकता पड़ेगी। तब सर्वश्रेष्ठ का चुनाव करने पर महाप्रज्ञा को स्थान बड़ी सरलता पूर्वक मिल सकता है।
धर्म सम्प्रदायों के वर्तमान जंजाल में से उबारने के लिए इसी राजमार्ग को अपनाया जा सकता है। भूमि सीमा और जाति वर्ग के नाम पर बटने वाली मनुष्य जाति को ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ के एक सूत्र में बाँधकर उस केन्द्र पर लाया जाना है, जिसमें सभी हिल- मिलकर रह सकें, मिल- बाँटकर खा सकें और हल्की- फुल्की हँसती हँसाती जिन्दगी जी सकें। ऐसा प्रज्ञायुग लाने में महाप्रज्ञा गायत्री की असाधारण भूमिका होगी। वह एक नये सद्ज्ञान को जन्म देगी, जिसके सहारे जन- जन का चिन्तन, चरित्र एवं व्यवहार उत्कृष्ट आदर्शवादिता का पक्षधर बन सके। इसी प्रकार वह एक विज्ञान को भी जन्म देगी जिसमें मानवी सत्ता के अंग अवयवों में सन्निहित अजस्र ऊर्जा भण्डार का नवयुग के अनुरूप साधन, सुविधा तथा गौरव गरिमा का समुचित उत्पादन कर सके। आत्म विज्ञान में सभी सम्भावनाएँ विद्यमान हैं। उसमें वाक्, प्राण तथा संकल्प की तीन धारायें प्रस्तुत भौतिकी के ताप, शब्द और प्रकाश माध्यमों की तरह अनन्त वैभव के स्रोत उद्गम विद्यमान जो हैं।
इन दिनों सबसे विषम सामयिक समस्या है अदृश्य वातावरण में भरती जा रही विषाक्तता की। विकिरण प्रदूषण की भयावहता सर्वविदित है। इसके अतिरिक्त मानवी चिन्तन की भ्रष्टता और व्यवहार की दुष्टता ने प्रकृति को बुरी तरह रुष्ट कर दिया है। वह अभी भी अनेकानेक प्रकोप बरसाती है। भविष्य में उस क्षेत्र में और भी भयावह संकट उतरने की आशंका है। अतिवृष्टि, अनावृष्टि, दुर्भिक्ष, तूफान, भूकम्प महामारी जैसे संकट प्रकृति प्रकोप स्तर के गिने जाते हैं। अन्त:विग्रहों, अपराधों की वृद्धि, दुर्बुद्धि जन्य दुरभिसंधि ही गिनी जाती है। लिप्सा और अहंता का समन्वय ही गृह युद्ध, सीमायुद्ध एवं महायुद्ध खड़े करता है। यह आशंका सम्भावनाएँ सामने ही मुँह बाये खड़ी हैं। इनके निराकरण में प्रत्यक्ष प्रयत्नों का उपयोग तो होना ही चाहिए। राजनैतिक, सामाजिक एवं आर्थिक क्षेत्र में उत्पन्न होने वाली विपन्नताओं का सूझ- बूझ और पराक्रम पूर्वक समाधान खोजा ही जाना चाहिए। उपचार प्रक्रिया के लिए प्रयत्नरत रहना ही चाहिए, किन्तु साथ ही एक बात और भी ध्यान में रखने योग्य है कि इतना करने पर भी अदृश्य दबावों का कुचक्र ऐसा है, जिसका निराकरण किये बिना भौतिक प्रयास उपचारों से ही गुत्थी पूरी सुलझने वाली नहीं है। इसके लिए कुछ ऐसा भी करना होगा, जिससे संव्याप्त विषाक्तता का परिमार्जन हो सके। यह प्रयोजन अध्यात्म उपचारों की सहायता से पूरे हो सकते हैं।
रावण राज्य समाप्त होने पर भी अदृश्य में संव्याप्त असुरक्षा समाप्त नहीं हुई। तब भगवान राम को दस अश्वमेधों की शृंखला चलानी पड़ी थी। महाभारत के उपरान्त भी अदृश्य क्षेत्र की विषाक्तता समाप्त न हुई तो भगवान कृष्ण ने राजसूय यज्ञ का आयोजन किया। यह धर्मानुष्ठान उसी प्रकार अनेकानेकों के सहयोग से सम्पन्न हुए जैसे कि लंका युद्ध और महाभारत अगणित योद्धाओं के पराक्रम से अनेकानेक आयुधों के आधार पर लड़े गये। इससे पूर्व भी प्रत्येक अवतार के समय ऐसे ही सामूहिक धर्मानुष्ठान हुए हैं। सीता जन्म के लिए ऋषि रक्त संचय से घड़ा भरने की और देवताओं की संयुक्त शक्ति से दुर्गा अवतरण की कथा सर्वविदित है। गिरि गोवर्धन को उठाने और समुद्र सेतु बाँधने में भी उच्चस्तरीय आत्माओं के संयुक्त प्रयास को कार्यान्वित किया गया था। अन्यान्य अवतारों के समय भी आगे या पीछे ऐसे ही धर्मानुष्ठानों की आवश्यकता पड़ी है और वह तत्कालीन ऋषियों द्वारा पूरी की गयी है। विश्वामित्र का नरमेध यज्ञ, वाजिश्रवा का सर्वमेध यज्ञ उसी शृंखला की कड़ियाँ हैं।
शब्द शक्ति की महत्ता से सभी भली- भाँति परिचित हैं। गायत्री मन्त्र के अजपा या उच्चारित जप स्वरूप के माध्यम से जो ऊर्जा उद्भूत होती है, वह सामूहिक प्रयासों के रूप में सम्पन्न होने पर तो चमत्कृत कर देने वाली परिणति को जन्म देती है। गायत्री मन्त्र का सृष्टि का आदि से अन्त तक जितना उच्चारण हुआ है, उतना किसी और मन्त्र का नहीं हुआ। इसकी शब्द तरंगें अभी भी सूक्ष्म जगत में संव्याप्त हैं। समधर्मी गुणवाली शक्तियाँ एक दूसरे को सहज ही खींच बुलाती हैं। सामूहिक धर्मानुष्ठान के रूप में एक ही समय, एक साथ, एक चिन्तन से कई व्यक्ति एक साथ जब भावना करते हैं तो उसका प्रभाव शब्द स्फोट के रूप में, लेसर की मार के रूप मेेें होता है। इस वैज्ञानिक पक्ष को ध्यान में रखते हुए ही प्रस्तुत समाधान हेतु ऐसे ही संयुक्त अनुष्ठान की आवश्यकता आ पड़ी है
इसके लिए नैष्ठिक उपासकों का बीस वर्षीय गायत्री अनुष्ठान पहले से ही चल रहा है। समस्या की गम्भीरता को देखते हुए दबाव और भी बढ़ाये जाने की आवश्यकता है। महाप्रज्ञा को अदृश्य वातावारण के परिशोधन में प्रयुक्त करने में तत्त्वदॢशयों का ध्यान अधिकाधिक मात्रा में केन्द्रित हो रहा है। इस दिशा में अभी और भी बड़े कदम उठाने की आवश्यकता पड़ रही है। तद्नुसार एक नया निर्धारण यह किया गया है कि परिवार के बीस लाख परिजन प्रात: सूर्योदय के समय जिस भी स्थिति में हों, काम छोड़कर पाँच मिनट गायत्री मन्त्र का मौन मानसिक जप करें। साथ ही सविता का ध्यान भी। संकल्प करें कि इस प्रयास से उद्भूत शक्ति अनन्त अन्तरिक्ष में बिखरेगी और संव्याप्त विषाक्तता का परिशोधन निराकरण सम्पन्न करेगी।
जो जहाँ जिस भी स्थिति में है, जूते उतारकर आँख बन्द करके यह ध्यान जप सम्पन्न करे। सूर्योदय का समय हर देश, प्रान्त का समय अलग- अलग होता है जो स्थानीय पंचांगों से जाना जा सकता है। जिनके पास घड़ियाँ हो वे उनके सहारे समय जान लें। जहाँ वैसा प्रबन्ध नहीं है वहाँ मुर्गे की बाँग जैसी मसजिद के अजान मन्दिर के शंख जैसी ध्वनि किसी केन्द्र स्थान पर शंख बिगुल आदि बजाकर इस शुभारम्भ की घोषणा की जा सकती है। प्रज्ञा परिजन इस साधना में स्वयं तो सम्मिलित हो ही, साथ ही यह भी प्रयत्न करें कि उनके परिवार तथा सम्पर्क के लोग भी इस न्यूनतम साधना को अपनायें। इसमें स्नान पूजा उपचार स्थान आदि का भी प्रतिबन्ध न होने से वह सर्व साधारण के लिए अति सरल भी है। थोड़ा प्रयत्न करने पर इसमें सम्मिलित होने वालों की संख्या करोड़ों तक पहुँच सकती है।
प्रज्ञा परिजनों की संख्या इन दिनों प्राय: बीस लाख है। पाँच मिनट में न्यूनतम जप साठ मन्त्रों का हो जाता है। बीस लाख को साठ से गुणा कर देने पर वह संख्या बारह करोड़ हो जाती है। लक्ष्य चौबीस करोड़ प्रतिदिन का है। इसके लिए ठीक दूने युग साधकों की आवश्यकता पड़ेगी। वर्तमान समय में से प्रत्येक अपने हिस्से का एक और जो नागा करेंगे उनके बदले का एक इस प्रकार दो और नये ऐसे युग साधक उत्पन्न करें जो प्रात:काल पाँच मिनट की उपरोक्त साधना में संकल्प पूर्वक सम्मिलित हो। जो व्रत लें उसे निभायें। इसका विवरण रखने का उत्तरदायित्व स्वाध्याय मण्डल के संचालक को सौपा जाय, जो किसी के द्वारा न करने की स्थिति से अवगत रहे और उस कमी की पुर्ति अन्य लोगों से कराता रहे। इस प्रयोजन के लिए वही इतने लोगों से उपरोक्त युग साधना कराने का उत्तरदायित्व उठायें। उनका एक कर्तव्य यह भी है कि अपने सम्पर्क क्षेत्र की जप संख्या की मासिक जानकारी शान्तिकुञ्ज हरिद्वार पहुँचाते रहें, जिससे यह पता चलता रहे कि प्रतिदिन चौबीस करोड़ जप के निर्धारण में कितनी कमी पड़ रही है या उसकी किस क्षेत्र में कितनी पुर्ति हो रही हैं।
सामूहिकता की शक्ति भौतिक क्षेत्र में बहुत कारगर सिद्ध होती है और उसका प्रतिफल हाथों- हाथ देखने को मिलता है। बुहारी, रस्सा, सेना, संयुक्त परिवार, झुण्ड, गिरोह, संगठन आदि उदाहरण यह बताते हैं कि बिखराव का केन्द्रीकरण कितना सशक्त होता है। आतिशी शीशे पर सूर्य किरणों का चमत्कार तत्काल आग लगने के रूप में सभी ने देखा है। प्रज्ञा परिजनों की उपरोक्त संयुक्त साधना परिस्थितियों के सुधार, परिष्कार में असाधाारण भूमिका सम्पन्न करेगी। सिपाहियों की टुकड़ी यदि कदम मिलाकर एक ध्वनि उत्पन्न करे, तो जिस लोहे के पुल पर से वह चल रही है, वह धँसक या गिर सकता है। पायल की क्रमबद्ध आवाज हाल की छत को गिरा सकती है। यह संयुक्त शब्द शक्ति का चमत्कार है। प्रज्ञा परिजन एक मन से एक उद्देश्य से एक प्रक्रिया अपनाकर एक समय में एक निर्धारण के अनुरूप साधना करें तो वह थोड़ी छोटी होते हुए भी इतना बड़ा प्रयोजन पूरा कर सकती है, जिससे विकृत्तियों, विषाक्तताओं का निराकरण हो सके और उसके स्थान पर उज्ज्वल भविष्य का, प्रज्ञा युग के अवतरण का सुनिश्चित आधार खड़ा हो सके।
इस विशिष्ट साधना का महत्व सभी प्रज्ञा परिजन गम्भीरता पूर्वक समझें और उसे कार्यान्वित करने में अपनी जागरूकता एवं तत्परता का परिचय दें। इस साधना को प्रज्ञा पुरश्चरण नाम दिया गया है तथा सभी परिजनों से उसे जन- जन तक व्यापक बनाने का अनुरोध किया गया है। युग परिवर्तन की इस बेला में आद्यशक्ति को युगशक्ति के रूप से प्रतिष्ठित होना है। परिजनों की नैष्ठिक परीक्षा का ठीक यही समय है।