डार्विन के अनुसार मनुष्य बन्दर की औलाद है कि नहीं, यह विषय विवादास्पद है। फिर भी इतना अवश्य माना जाता है कि मनुष्य- वानरों में आकृति भेद रहते हुए भी कितनों की ही प्रकृति एक जैसी होती है। वन मानुषों जैसी मनोभूमि वाले नर- वानरों की कमी नहीं है। ऐसे भी हैं जो निरुद्देश्य जीते हैं और मर्यादा बन्धन का पालन उतनी ही मात्रा में, उतनी ही देर तक करते हैं जब तक कि उन्हें नकेल, लगाम, नाथ, अंकुश, हंटर का भय दीखता रहता है। दबाव हटते ही वे बन्दर की तरह स्वेच्छाचारिता अपनाते और पशु- प्रवृत्तियों में ही मोद मनाते और दिन गुजारने लगते है।
मानवी आकृति भी अन्य प्राणियों की तुलना में बहुत सुविधाजनक हैं, पर इतने से ही उस सौभाग्य का उदय अनुभव नहीं होता, जो मनुष्य जन्म के साथ जुड़ा हुआ है। इसके लिए मानवी प्रकृति भी चाहिए। आकृति भगवान प्रदान करते हैं, प्रकृति अपने पुरुषार्थ से स्वयं अर्जित करनी होती है। इसके लिए जिन दो कदमों को उठाना पड़ता है, उनकी धातु क्षेत्र की गलाई ढलाई से उपमा दी जाती है। खदान से निकलते समय लोहा मिट्टी मिला होता है। उसे भट्टी में गलाना पड़ता है। मिट्टी वाला अंश जल जाने पर ही यह अनगढ़ खंगड़ शुद्ध लोहा बनकर सामने आता है।
अब इसका क्या किया जाय? इसके लिए उसे उपयोगी उपकरणों के साँचे में ढालने के लिए एक बार और तपाया जाता है। इतने से कम में मिला खंगड़ लौह खण्ड अपने स्वाभाविक मूल्यांकन किए जा सकने वाले स्तर तक नहीं पहुँच सकता। बात यहीं तक समाप्त नहीं होती। शुद्ध लोहा गोदाम में भरा रह सकता है, पर उससे तलवार कैसे बने? ढलाई से इन्कार किया जाय तो लोहा लगभग इसी स्तर पर किसी गोदाम में पड़ा रहेगा, जिस पर कि मिट्टी में मिली स्थिति में किसी लोह खदान में दबा हुआ था। गलाई- ढलाई अग्नि संस्कार लगते तो डरावने हैं, पर इसके बिना कोई गति नहीं। प्रगति पथ पर चलने वाले हर किसी को एक कदम छोड़ना दूसरा उठाना होता है। इसका अर्थ है संचित पशु- प्रवृत्तियों का परित्याग और मानवी गरिमा का अवधारण। लोहे से लेकर हर पदार्थ को, हर प्राणी को आगे बढ़ने और ऊँचा उठने के लिए ऐसी ही अग्नि परीक्षा में होकर गुजरना पड़ता है।
पशु स्तर में पेट- प्रजनन ही सब कुछ होता है। मानवी गरिमा के दो आधार हैं- एक मर्यादाओं का निर्वाह, दूसरा कर्तव्यों का परिपालन। पशु को इन बन्धनों में न बँधने की छूट है। वह स्वेच्छाचारिता अपनाये रह सकता हैं, किन्तु मनुष्य भी यदि वैसा ही करे तो उसे नर- पशु कहा जाएगा। नागरिकों को नैतिक कर्तव्यों के परिपालन के लिए बाधित करने वाले यों सामाजिक और शासकीय प्रतिबन्ध एवं दण्ड विधान भी है, पर बात उतने से भी नहीं बनती। मनुष्य का चातुर्य इतना बढ़ा- चढ़ा है कि वह चाहे तो किसी भी मर्यादा को लुक- छिपकर या दुस्साहस के सहारे तोड़ता भी रह सकता है और दण्ड विधान से बचा भी रह सकता है। अन्तरात्मा की पुकार के रूप में विकसित होने पर ही इस क्षेत्र का अनुशासन निभता है।
मर्यादाओं के अनुबन्धों के निर्वाह में जन्म- जन्मान्तरों की संचित कुसंस्कारिता से जूझना पड़ता है। वह आलस्य प्रमाद के संकीर्ण, स्वार्थपरता के, लिप्सा- लालसा के रूप में भी पुरानी आदतों को इस समय भी कार्यान्वित रखे रहना चाहती है। इसलिए लोभ, मोह, अहंकार के रूप में वे कुसंस्कार उभरते रहते हैं। इन्हें दबाया- दबोचा न जाय तो वे अभ्यास की आदतें सहज छूटती नहीं। विचारों को विचारों से काटना पड़ता है। कुसंस्कारों को अपनाए रहने से वर्तमान स्तर के निर्वाह में कितनी बाधा पड़ती है। भय, तृष्णा, घृणा, तिरस्कार, असहयोग जैसे बाहरी दबावों के अतिरिक्त असह्य आत्म प्रताड़ना सहनी पड़ती है। मनोविकारों द्वारा विनिर्मित चेतना की ग्रन्थियाँ किस प्रकार व्यक्तित्व को हेय एवं उपहासास्पद बना देती हैं, इसे मनोविज्ञान के विद्यार्थी भली प्रकार जानते हैं। दुष्प्रवृत्तियों में संलग्न व्यक्ति क्या पाता, क्या कमाता है? मोटे तौर से यही दीखता है, पर उनके प्रयोक्त के अन्तराल को टटोला जाय तो प्रतीत होगा कि यह सब कुछ खोखला हो गया। मोटे शहतीरों और अनाज के गोदामों को उन्हें से घुन खोखला करके रख देते हैं। देखने में अत्यन्त छोटे लगने वाले कीड़े सन्दूक में भरे कपड़ों में छेद करके रख देते हैं। दीमक से न छत बचती हैं न छप्पर, दीवार। शरीर में क्षय कैन्सर जैसे रोगों के थोड़े से विषाणु घुस पड़े तो मौत के दिन निकट आ गए। कुसंस्कारों के सम्बन्ध में भी यही बात कही जा सकती है। उनके रहते कोई व्यक्तित्व के वास्तविक वैभव का धनी नहीं बन सकता। पैसा तो उचक्के भी आसानी से जमा कर लेते हैं।
कुसंस्कारों से जूझना ही मर्यादा पालन है। इसके लिए आत्म नियन्त्रण, आत्मानुशासन के हण्टर खुद ही सँभालने पड़ते है और अभ्यस्त अवाँछनीयताओं पर वैसा आक्रोश भरा आक्रमण करना पड़ता है, जैसे कि फसल को चौपट करने वाले भूमि कीटकों के ऊपर मारक दवा छिड़कने के समय। यही आध्यात्मिक महाभारत है जिसे हर गाण्डीवधारी आत्मा को लड़ना ही पड़ता है। मर्यादाओं का निर्वाह सहज सुलभ नहीं। अनभ्यस्त आदतें ही नहीं, इर्द- गिर्द फैली पड़ी हेय परम्परायें एवं दुरभिसन्धियाँ भी दबाती और अन्धानुकरण के लिए बाधित करती हैं। इस कौरवी सेना जैसी खल मण्डली से निपटने में प्रह्लाद जैसा साहस अपेक्षित होता हैं।
आन्तरिक प्रगति का दूसरा कारण हैं- कर्तव्यों का परिपालन। इसके लिए सत्प्रवृत्तियों को नये सिरे से अपनाना पड़ता है। दुष्प्रवृत्तियों का उन्मूलन एक बात है। सत्प्रवृत्तियों का सम्वर्धन दूसरा। रोग से निवृत्त होना एक काम है और स्वास्थ्य सम्वर्धन के लिए आवश्यक सरंजाम जुटाना दूसरा। नशा छोड़ देना अच्छी बात हैं, पर इतने भर से कहाँ बात बनी, उस आधार पर हुई शारीरिक क्षति को पूरा करने के निमित्त आहार- विहार का नया उपयोगी उपक्रम बनाना पड़ता है। जुआ खेलना छोड़ दिया ठीक, पर बेकारी से पीछा छुड़ाने के लिए किसी उपयोगी उद्योग में लगने की बात सोचनी होगी। जुआ छोड़ने से संचित रुपये को समाप्त करते चलने वाला प्रवाह तो रूका, इतने पर भी बात तो अधूरी रही। उदर पूर्ति के लिए आलस्य- प्रमाद छोड़कर कोई उपार्जन का रास्ता भी खोजना पड़ेगा। दुष्प्रवृत्ति निराकरण एक पक्ष है तो दूसरा पक्ष है सत्प्रवृत्ति संवर्धन। इसी का दूसरा नाम है कर्तव्य पालन।
मानवी काया में प्रवेश करते ही मानवी चेतना पर अनेकानेक जिम्मेदारियाँ आती हैं, वे सभी ऐसी है, जिसके लिए सम्पर्क क्षेत्र की हर इकाई के प्रति अपने उत्तरदायित्वों को समझना ही पड़ता है। उपलब्ध साधनों का श्रेष्ठतम सदुपयोग, समय सम्पदा के एक- एक क्षण का सुनियोजन, शरीर की मोटर को एक्सीडेण्टों से बचाए रहना, मनःसंस्थान के बहुमूल्य कम्प्युटर को अनावश्यक छेड़छाड़ करके अस्त- व्यस्त न होने देना, अर्थ सन्तुलन के लिए उपार्जन में श्रमशीलता और उपयोग में मितव्ययिता बनाए रहना जैसे अनेकों निजी उत्तरदायित्व है, जिनका निर्वाह न करना धीमी आत्म- हत्या के समान दुखदायी सिद्ध होता है।
परिवार क्षेत्र में सर्वप्रथम अभिभावकों से ऋणमुक्त होने के लिए, उनकी जराजीर्ण स्थिति को देखते हुए आवश्यक सेवा शुश्रूषा करने की जिम्मेदारी सामने आती है। इसके बाद समान एवं छोटों का ध्यान रखना होता है। जिस संस्था की छत्रछाया में बड़े होने, शिक्षा प्राप्त करने, समर्थ बनने का सौभाग्य मिला है, उसका ऋण ब्याज समेत चुकाया जाना चाहिए। यह हर समर्थ व्यक्ति का सुनिश्चित उत्तरदायित्व है। इस ऋण मुक्ति से किसी को भी विरत नहीं होना चाहिए।
इसके बाद ही अपने विवाह या सन्तानोत्पादन का कदम उठाना चाहिए। विवाह के सम्बन्ध में तो थोड़ी छूट भी है कि यदि पत्नी भारभूत नहीं है, परिवार की अर्थ व्यवस्था तथा प्रबन्ध उत्कर्ष में सहायता दे सकने योग्य है, तो ऋणमुक्ति के भागीदार का लाभ देखते हुए विवाह का खर्च तथा पत्नी के व्यय भार को वहन भी किया जा सकता है। किन्तु यदि वह मात्र भार बनकर ही आ रही हो तो विचार करना होगा कि जो साधन प्रस्तुत परिवार के लिए नियोजित होने चाहिए, उनमें कटौती करके नया भार बढ़ाने की आवश्यकता है या नहीं। कामुकता की तरंगें कुछ भी क्यों न कहें, हर विचारशील को यह देखना होगा कि कर्तव्य क्या कहता है। उपार्जन में समर्थ होते ही अपने ऊपर मनमाना खर्च करने लगना, पत्नी को लेकर अलग हो जाना, जो कमाना उसी के लिए खर्च करना, परिवार को अँगूठा दिखाकर मौज- मजा उड़ाना एक प्रकार की कृतघ्नता है। अभिभावक यही आशा करते हैं कि लड़के के पोषण और शिक्षण पर जो खर्च पड़ रहा है वह उसके समर्थ होने पर वापस मिलेगा और बड़ों का सहारा छोटों के लिए आशा का केन्द्र बनकर रहेगा। उन समस्त आशंकाओं पर पानी फेर देना प्रकारान्तर से विश्वासघात ही कहा जायेगा। यह मानवी प्रगति की मेरुदण्ड कहलाने वाली महान परिवार परम्परा का एक प्रकार से उन्मूलन ही है। परिवार में अभिभावकों को सन्तान के प्रति कर्तव्य पालन का ज्ञान रहता भी है और रखा भी जाना चाहिए। इससे भी बड़ी बात है कि परिवार के हर सदस्य को इस मातृ संस्था के परिपोषण, उन्नयन में समुचित योगदान देने की जिम्मेदारी समझनी चाहिए और समझाई जानी चाहिए, अन्यथा क्रम ही उलट जायेगा।
सन्तानोत्पादन जैसे अत्यन्त गहन उत्तरदायित्व से भरे कार्य में हाथ डालने से पूर्व हर किसी को इन दिनों हजार बार सोचना चाहिए कि हर नया बच्चा, प्रस्तुत परिवार की सुविधाओं में कटौती करता है। देखना यह होगा कि निर्वाह के साधन इतने हैं क्या, जिनमें एक नए साझीदार की भर्ती की जा सके। यों दबाने, दबोचने से तो किसी प्रकार कुछ न कुछ जगह निकल ही आती है पर शालीनता इसी में है कि जो खाली थाली लिए आशा लगाए बैठे हैं, पहले उनका प्रबन्ध किया जाय। पीछे किन्हीं अन्य अतिथियों को निमन्त्रण देने के लिए चल पड़ने वाला कदम उठाया जाय। इस सन्दर्भ में एक बात और भी ध्यान देने योग्य है कि जननी के स्वास्थ्य पर सन्तानोत्पादन के बाद भारी दबाव पड़ता है और वह अपने को खोखला बनाकर दुर्बलता एवं रुग्णता के ऐसे जाल में जा फँसती है, जिससे फिर कदाचित ही किसी को मुक्ति मिलती है। अभावग्रस्त स्थिति में पौष्टिक आहार, अनुकूल विहार कैसे मिलें? ऐसी दशा में भी जिस महिला को बार- बार प्रजनन का भार वहन करना पड़ेगा वह अपनी स्वस्थ काया सम्पदा को क्रमशः गँवाती चली जायेगी और इस दूसरे के विनोद की वेदी पर रोते कलपते, अकाल मृत्यु का वरण करेगी। ऐसी स्थिति में जन्में बालकों का भविष्य नितान्त अन्धकारमय है। पौष्टिक आहार, महँगा शिक्षण और छोटे पिन्जड़े में बँधी जैसी जिन्दगी जीने वाले अभावग्रस्त, उपेक्षित बालक अपने लिए समूचे समाज के लिए विशेषतया अभिभावकों के लिए सिरदर्द बनते हैं और बड़े होने पर उस मूर्खता का भरपूर बदला लेते हैं।
घोर महँगाई और देश व्यापी अभावग्रस्तता को देखते हुए जहाँ वर्तमान लोगों की ही अशिक्षा, गरीबी, बीमारी का निवारण बन नहीं पड़ रहा है वहाँ नयी संख्या बढ़ाते जाना समय की कसौटी पर एक प्रकार का देशद्रोह ही कहा जा सकता है। वंश चलने, पिण्ड दान मिलने, घर का दीपक जैसी बेहुदी मान्यता अब किसी को भी शोभा नहीं देती। लड़की- लड़कों के बीच भेदभाव भी सर्वथा अनैतिक है। इन सभी कारणों को देखते हुए संतानोत्पादन की ललक को निरस्त करना ही हितकर है। इस क्षेत्र में सभी को समझ- बूझकर कदम बढ़ाना चाहिए।
परिवार के लिए उत्तराधिकार में स्वावलम्बन, सुसंस्कारिता, शिक्षा जैसी विभूतियाँ ही छोड़नी चाहिए। असमर्थ आश्रितों के लिए सुविधा छोड़ मरना एक बात है और कमाने खाने वालों पर जमा पूँजी उड़ेल जाना दूसरी। हराम की कमाई चोरी, उठाईगीरी ही नहीं, मुफ्तखोरी भी है। किसी गृहस्वामी को सन्तान के लिए धन संचय करने की नही सोचनी चाहिए। जो देना है उसका व्यक्तित्व विकसित करने पर चालू कृषि उद्योग आदि का पहिया लुढ़कते रहने जितनी पूँजी व्यवस्था को ही पर्याप्त मानना चाहिए। इतने पर कुछ न बन पड़े तो उसे विशुद्ध रूप से सत्प्रवृत्ति संवर्धन के लिए उदारता से विसर्जित करना चाहिए। उपार्जन कोई कितना ही करे पर खर्च करते समय ईश्वरचन्द्र विद्यासागर की तरह ध्यान रखे कि औसत भारतीय जैसा निर्वाह ही न्यायोचित है। बचत को विलास में नहीं, वरन् मानवी आदर्शों को अधिकाधिक समुन्नत बनाने के लिए नियोजित करना चाहिए।
कर्तव्य पालन ही अध्यात्म धर्म है। प्रथा परम्पराओं में से जो उचित है उन्हें अपनाना मर्यादा पालन के अन्तर्गत आता है। इससे अगला कदम कर्तव्य पालन का है जीवन के प्रति, परिवार के प्रति निबाहने के साथ- साथ सामाजिक उत्कर्ष की जिम्मेदारी वहन करने की विद्या भी सम्मिलित होती है। जो इस निर्वाह के प्रति जागरूक है उसे सच्चे अर्थों में धर्मात्मा कहा जा सकता है।
इन दिनों प्रगति का अर्थ वैभव का संचय, ठाट- बाट, प्रशंसा आदि की बढ़ोतरी समझा जाने लगा है फलतः उन्हें अर्जित करने के लिए लोग औचित्य का, मर्यादाओं का परित्याग करके जिस प्रकार भी बन पड़े साधन बटोरने में लगे है। सरल दीखते हुए भी यह मार्ग वस्तुतः कठिन है। धूर्तता देर तक ठहरती नहीं और साथी सहयोगी खिसकते रहते हैं। चर्चा का विषय बनता है तो अनीति का साझीदार बनने में उस स्तर के लोग भी कन्नी काटने लगते हैं। इसके उपरान्त उद्धत तरीकों से कमाई सम्पदा अपने खर्च की निकासी भी प्रायः उसी स्तर की निकालती है।
प्रगति आत्मा का धर्म है। पशु स्तर छोड़ने वाले और मानवी गरिमा में प्रवेश करने वालों को यह महान सौभाग्य यदि सार्थक बनाना हो तो उपाय दो ही हैं। एक पेट प्रजनन तक सीमाबद्ध रखने वाली पशु प्रवृत्तियों का परित्याग। दूसरा मर्यादाओं का निर्वाह, कर्तव्यों का परिपालन। सोने को कसौटी पर घिसकर और आग में तपाकर खरा- खोटा जाँचा जाता है। मनुष्य शरीर में रहने वालों को मानवी गरिमा का सुयोग भी मिला या नहीं, इसकी जाँच पड़ताल भी तथ्यों का पर्यवेक्षण करने पर हो सकती है- एक मर्यादा निर्वाह दूसरा कर्तव्य पालन। इस कसौटी पर जो सही सिद्ध हो, समझना चाहिए उसने मनुष्य जन्म को सार्थक बनाने का राजमार्ग अपनाया। ऐसों को ही सच्चे अर्थों में प्रगतिशील कहा जा सकता है।
***