युग देवता का अनुरोध आमंत्रण

गीता का कृष्ण- अर्जुन संवाद द्वापर में मुखर हुआ था। पर परिस्थितियों को देखते हुए वह आज के लिए भी उतना ही प्रयुक्त होता है, जितना उन दिनों कारगर सिद्ध हुआ था। भगवान सामन्ती अनाचार से अस्त- व्यस्त भारतीय समाज को न केवल एक केन्द्रीय सत्ता के अन्तर्गत लाना चाहते थे वरन् सिकुड़- सिकुड़ कर छोटे होते जाने वाले भारत को महाभारत, विशाल भारत बनाना चाहते थे। इस प्रयोजन के लिए उन्होंने धर्मक्षेत्र में न केवल युद्ध रचाया था वरन् विचार विनिमय द्वारा रचनात्मक निर्धारण के लिए विशालकाय राजसूय यज्ञ का प्रबन्ध भी किया था। इस प्रयोजन के लिए उन्हें समर्थ और मित्र का दुहरा कार्य कर सकने वाला अर्जुन ही दीखा। उससे उन्होंने इस महान उत्तरदायित्व को वहन करने के लिए कटिबद्ध होने का अनुरोध किया।

अर्जुन न तो परामर्श के साथ समाहित दूरगामी श्रेय सत्परिणाम को समझ पा रहा था और न उसके साथ जुड़ी हुई सघन आत्मीयताजन्य उपलब्धियों की परिकल्पना कर पा रहा था। संकीर्ण सीमा बन्धन ही उसके दृष्टिकोण पर छाये हुए थे। इसलिए निजी एवं तात्कालिक लाभ- हानि का लेखा- जोखा सामने रखकर उस महान जिम्मेदारी से इन्कार कर रहा था, जिसमें तात्कालिक लाभ कम अथवा संदिग्ध प्रतीत हो रहा हो। जिन्दगी के दिन गुजारने के लिए उसे किसी प्रकार पेट भर लेने की व्यवस्था बनाने के अतिरिक्त और कोई बात महत्वपूर्ण लग ही नहीं रही थी।

भगवान ने अर्जुन के मन की दुर्बलता को समझा और उसके तर्कों को आदर्शवादी प्रतिपादन के सहारे काटा। इस प्रसंग में सबसे वजनदार एवं प्रभावोत्पादक बात वह निकली कि अनाचार को, अनाचारियों को भगवान ने पहले से ही मार रखा है। उनकी प्रत्यक्ष अन्त्येष्टि करने भर से विजेता का श्रेय उसे प्राप्त करना है। इस चौकाने वाले तथ्य से अर्जुन की स्वार्थ परता ने भी यह स्वीकार किया कि इस प्रयास को अपनाने में हर दृष्टि से लाभ ही लाभ है। अस्तु वह भगवान का प्रिय, यशस्वी तथा वैभवशाली विजेता का बहुमुखी श्रेय पाने के लिए तत्काल तैयार हो गया। इस सामयिक बुद्धिमानी ने सचमुच उसे निहाल कर दिया।

इतिहास के महान परिवर्तनों में ऐसे ही अगणित चमत्कारी पृष्ठ भरे पड़े है, जिनसे प्रतीत होता है कि अग्रगामी लोगों के पुरुषार्थ की तुलना में अवरोधों की शक्ति असंख्य गुनी अधिक थी फिर भी इस या उस प्रकार अनुकूलता बनती चली गई। परिस्थितियों ने साथ दिया और स्वल्प प्रयासों से उतने बड़े काम सम्पन्न हो गये जिन्हें कुछ समय पूर्व सोच सकना तक कठिन था। सफलता से पूर्व कोई यह नहीं कह सकता था कि जो सोचा जा रहा है उसके इतनी जल्दी इतनी सरलता पूर्वक सफल होने की कोई आशा की जा सकती है।

रूस की राज क्रान्ति जब मुट्ठी भर श्रमिकों ने सम्पन्न कर ली और लेनिन को उसका नेतृत्व सौंपा गया तो वे स्वयं चकित रह गए कि इतना कठिन, इतना समय साध्य कार्य इतनी जल्दी, इतने स्वल्प प्रयासों से आखिर हो कैसे गया? अब्राहम लिंकन दक्षिण अमेरिका में प्रचलित गुलाम प्रथा के पक्षधरों की कट्टरता और कठोरता को देखते हुए शंकाशील ही बने रहे कि इतना कठिन कार्य न जाने कितनी देर में, कितनी कठिनाई से पूरा हो सकेगा? किन्तु प्रवाह कुछ इस प्रकार उल्टा कि दास प्रथा का अन्त ही हो गया और इसके लिए उतना बल प्रयोग नहीं करना पड़ा, जितना कि अनुमान लगाया जाता था। भारत से अंग्रेजों का चला जाना भी कुछ ऐसा ही चमत्कारी है, जिसके सम्बन्ध में न केवल सत्याग्रही वरन् क्रान्तिकारी भी समय आ धमकने से पूर्व यह नहीं सोच पाये कि इतनी जल्दी इतना महान् परिवर्तन कैसे होने जा रहा है? अग्रेजों की शक्ति और कूटनीति, स्वतन्त्रता सैनिकों की स्वल्प संख्या और शक्ति दोनों के बीच कोई ऐसी संगति नहीं बैठती थी कि इतना कठिन कार्य इस प्रकार अप्रत्याशित रूप से सम्पन्न हो जायेगा। न तो अंग्रेज इतने दुर्बल थे, न सत्याग्रही इतने समर्थ जिसके कारण वैसे प्रतिफल की आशा की जा सकती जैसा कि सम्पन्न हुआ। यों कहने को तो श्रेय टक्कर लेने वालों और योजना बनाने वालों को भी दिया जाता है, दिया भी जाना चाहिए, किन्तु तात्विक पर्यवेक्षण करने और संगति बिठाने पर इस नतीजे पर पहुँचना पड़ता है कि अविज्ञात शक्तियाँ अपना अदृश्य ताना बाना पर्दे के पीछे बुन रही थी और उस अनुकूलता ने स्वतन्त्रता प्राप्ति की उत्साह भरी उपलब्धि का साहस जुटा दिया।

कुछ समय पूर्व भारत की अधिकांश जनता पर सामन्तों और राजाओं का एकछत्र शासन था। समूची भूमि के स्वामी वे ही थे। शस्त्र और सैन्य शक्ति के कारण उन्हीं की तूती बोलती थी। शताब्दियों और सहस्राब्दियों से चली आ रही यह निरंकुश सामन्त शाही इतनी गहरी जड़े जमा चुकी थी, कि राजा को ईश्वर का प्रतिनिधि मानकर उसकी प्रत्येक मर्जी को पूरा करना प्रजा ने एक प्रकार से अपना धर्म ही मान लिया था। किसी को आशा नहीं थी कि इस मनःस्थिति और परिस्थिति से दीन दुर्बल बनी हुई जनता इस आतंक से इतनी जल्दी मुक्ति पा सकेगी जैसी कि उसने पाई। देश भर में फैले हुए ६०० राजा, महाराजा और लाखों सामन्त जमींदार इस तरह एक हवा के झोंके के साथ उड़ गए मानों वे कोई वजनदार वस्तु न होकर मात्र सूखे तिनके पत्तों जैसे हलके- फुलके थे। इस घटनाक्रम को इतिहासकार समय के मदारी द्वारा दिखाई गई कौतूहल भरी बाजीगरी ही कह सकते हैं। यों इस परिवर्तन में अग्रणी लोगों की भूमिका को ही श्रेय दिया जाता है। इसमें किसी को कोई आपत्ति भी नहीं है। किन्तु पर्वत जैसे भारी अवरोध और उसे उखाड़ने के लिए कितना हल्का सा प्रतिरोध, इन दोनों का तारतम्य बिठाने में कुछ और भी रहस्य सामने आते हैं। यह समझने में किसी को कोई कठिनाई नहीं होनी चाहिए कि अदृश्य जगत में क्रिया की प्रतिक्रिया हो रही थी और उसने न केवल श्रेयाधिकारियों को उभारा वरन् उन्हें सफल बनाने वाली अनुकूलता उत्पन्न करने में भी कोई कमी न रहने दी।

संसार में समय- समय पर आदर्शों के पक्षधर महान परिवर्तन होते रहे हैं। दास प्रथा, सामन्तशाही, नारी का पद दलन, समर्थों द्वारा दुर्बलों का शोषण जैसे अनाचारों ने परम्परा एवं कानून बनाकर चिरकाल तक अपने कुचक्र में जन समुदाय को जकड़े रखा है। जिसकी लाठी उसकी भैंस का मत्स्य न्याय जंगली कानून अपने क्षेत्रों में अपने ढंग से प्रकट होता और विजय पताका फहराता रहा है। इतने पर भी दानव को चिरस्थायी बनने का अवसर न मिल सका। कई ऐसे कारण उत्पन्न हुए जिनसे समर्थता का तख्त उलटा और वह औंधे मुँह जा गिरा। आज अनेकों ऐसे अनाचार मात्र उपाख्यान बनकर रह गये हैं जो किसी समय अपने चंगुल में अधिकांश जन समुदाय को जकड़े हुए थे। आज न दास प्रथा है न सती प्रथा, न राजा हैं न सामन्त। कुप्रथाएँ और दुष्ट परम्पराएँ अपनी अन्तिम साँसे गिन रही हैं। जगह- जगह मार्टिन लूथर और दयानन्द पैदा हो रहे हैं। विभिन्न शासन पद्धतियों को पददलित करता हुआ समाजवाद हावी होता चला आ रहा है। बिखराव को, विभेद को निरस्त करके एकता, समता के आधार खड़े करने वाले अदृश्य प्रवाह दिन- दिन प्रचण्ड होते चले जा रहे हैं। जिन्हें दिव्य दृष्टि की एक किरण भी प्राप्त है, वे अनुभव करेंगे कि इन दिनों युग प्रवाह का साथ देना और उसके अग्रदूतों में सम्मिलित होना ही वास्तविक बुद्धिमत्ता का परिचायक है। जो ऐसा साहस जुटा सकेंगे वे असीम सन्तोष और अजस्र सम्मान के भागी बनेंगे यह निश्चित है।

दूरदर्शिता की दो चिन्तन धाराएँ सर्वविदित हैं। एक के अनुसार दूरगामी सत्परिणामों को ध्यान में रखते हुए कोई निर्णय करने होते हैं। भविष्य में जिनकी प्रतिक्रिया दुखद होनी है उन्हें छोड़ना पड़ता है। दूरी मात्र मीलों की नहीं होती। समय के अन्तर को भी दूरी कहते हैं। जो गन्तव्य स्थान तक पहुँचने पर मिलने वाले सुखद परिणामों की बात सोचता है वह दूरदर्शी है। उसी प्रकार जो समयानुसार उत्पन्न होने वाले भले या बुरे परिणामों को ध्यान में रखते हुए आज की कार्य पद्धति का निर्धारण करता है, रीति- नीति अपनाता है उसे भी दूरदर्शी कहते हैं।

कोई आँख खोलकर देखना चाहे तो अपने चारों ओर ऐसे अगणित प्रमाण, उदाहरण ढूँढ़ सकता है जिनमें उपरोक्त प्रतिपादन की सच्चाई को जांचा परखा जा सके। ऐसी घटनाएँ आए दिन सामने आती रहती हैं। अदूरदर्शिता अपनाकर बरती गई चतुरता अन्ततः मूर्खता से भी अधिक मंहगी पड़ी और जिस लाभ की आशा की गई थी उसकी तुलना में दुर्भाग्य जैसी दुर्घटनाएँ ही पल्ले पड़ी है।

चासनी के कढा़ई को एक बारगी चट कर जाने के लिए आतुर मक्खी बेतरह उसमें कूदती है और अपने पर, पैर उस जंजाल में लपेट कर बेमौत मरती है। जबकि समझदार मक्खी किनारे बैठकर धीरे- धीरे स्वाद लेती, पेट भरती और उन्मुक्त आकाश में बेखटके विचरती है। अधीर आतुरता ही मनुष्य को तत्काल बहुत कुछ पाने के लिए उत्तेजित करती है और उतने समय तक ठहरने नहीं देती, जिसमें कि नीति पूर्वक उपयोगी आवश्यकताओं की पूर्ति सरलता पूर्वक संभव हो सके।

मछली वंशी में लिपटी आटे की गोली भर देखती है। उसे उतना अवकाश या धीरज नहीं होता कि यह ढ़ूँढ़, समझ सके कि इसके पीछे कहीं कोई खतरा तो नहीं है। घर बैठे हाथ लगा प्रलोभन उसे इतना सुहाता है कि गोली को निगलते ही बनता है। परिणाम सामने आने में देर नहीं लगती। काँटा आँतों में उलझता है और प्राण लेने के उपरान्त ही निकलता है।

जाल में फँसने वाले पक्षियों की भी ऐसी ही दुर्गति होती है। वे दूर उड़ कर जाने और परिश्रम पूर्वक एक एक दान ढूँढ़ने की तुलना में जाल पर बिखरे दानों को एक सौभाग्य जैसा मानते है और उससे लाभ उठाने में चूकने की बात नहीं सोचते। उन्हें यह सोचने की फुरसत नहीं होती कि लाभ उठाते समय उसके पीछे कोई दूरगामी संकट तो नहीं छिपा है उसे भी देखने की आवश्यकता है। हर लोभी अधीर, आतुर होता है और तात्कालिक लाभ के कुछेक दाने चुग लेने के बाद उस पक्षी की तरह बेमौत मरता है जिसे सामने बिखरे आकर्षण के उपरान्त अन्य कोई बात सूझती ही नहीं।

पूरी रोटी स्वयं ही खा जाने की फिराक में दो बिल्लियों में से प्रत्येक घाटे में रही। मिल बाँटकर खाती और सन्तोष सहयोग का आश्रय लेकर प्रसन्न रहती तो कितना अच्छा होता। पर उनके लिए लालच से ऊपर उठकर कुछ स्वार्थ, कुछ परमार्थ की न्यायोचित नीति अपनाना संभव न हो सका। लड़ी, मरी, घायल हुई और अन्ततः बन्दर बाँट करने की मूर्खता अपना कर खाली हाथ घर लौटी और देर से समझ आने पर उदास मन होकर पछताई। हममें से कितने ही मात्र अपनी ही बात सोचते हैं। साथियों, सहयोगियों, समकालीनों को भी उपलब्धियों में हिस्सा देना है, इसके लिए रजामन्द नहीं होते।

भेड़ अपनी ऊन दूसरों को देती और आदर पूर्वक पाली जाती है। बाल कटाने के उपरान्त उसे प्रकृति के नये अनुदान मिलते हैं और क्षति पूर्ति के अतिरिक्त यश, गौारव एवं स्नेह सहयोग भी मिलता है। यों इस प्रकार का अनुदान लोक परम्परा में मूर्खता ही कहा जायेगा। आज तो उन रीछों की ही प्रशंसा होती है, जो अपने बाल किसी को छूने तक नहीं देते और जो मिले उस पर हमला करने के लिए आमादा रहते हैं। बुद्धिमानी से पर्यवेक्षण करना होगा कि भेड़ और रीछ द्वारा अपनाई गई भिन्न- भिन्न नीतियों को अपनाकर किसे क्या मिला? रीछ बदनाम तो है ही, उसे स्नेह सहयोग कौन देगा? इतना ही नहीं प्रकृति ने उसके बाल बढ़ाए भी नहीं। जितने आरम्भ में थे उतने ही अन्त तक बने रहे। जबकि भेड़ बार- बार अनुदान पाती और अपने को, दूसरों को कृत- कृत्य करती रही। इसमें समर्थता को नहीं दूरदर्शी सद्भावना को ही श्रेय मिलता देखा जा सकता है।

पेड़ अपने पत्ते गिराते, जमीन को खाद देते और बदले में जड़ों के लिए उपयुक्त खुराक उपलब्ध करते हैं। फल- फूलों से दूसरों को लाभान्वित करते हैं। यह परमार्थ व्रत आज की चिन्तन धारा के अनुसार तो मूर्खता ही ठहराया जायेगा और व्यंग उपहास का ही कारण बनेगा। किन्तु पर्यवेक्षकों को इस निष्कर्ष पर पहुँचने में कोई कठिनाई नहीं होनी चाहिए कि विश्व व्यवस्था में ऐसी परिपूर्ण गुंजायश है कि परमार्थ परायणों को लोक सम्मान ही नहीं दैवी अनुदान भी अजस्र परिमाण में मिलते रहें। पेड़ों को बार- बार नये पल्लव और नये फल- फूल देते रहने में प्रकृति कोताही नहीं बरती। उदारमना घाटा उठाते लगते भर हैं वस्तुतः वे जो देते है उसे ब्याज समेत वसूल कर लेते हैं।

इतिहास के पृष्ठों पर स्वर्णाक्षरों में अंकित महामानवों में से प्रत्येक ने परमार्थ परायणता की दूरदर्शितापूर्ण नीति अपनाई है। वे बीज की तरह गले और वृक्ष की तरह फलें हैं। इस मार्ग पर चलने के लिए उन्हें प्राथमिक पराक्रम यह करना पड़ा कि संचित कुसंस्कारों की पशु- प्रवृत्तियों से जूझे और उन्हें सुसंस्कारी बनने के लिए पूरी तरह दबाया, दबोचा और तब छोड़ा जब वे चीं बोल गई और संकीर्ण स्वार्थ परता से ऊँचे उठकर आदर्शवादी परमार्थ प्रवृत्ति को अंगीकार करने के लिए सहमत हो गई। इसी प्रकार इन सभी प्रातः स्मरणीय महामानवों में से प्रत्येक को अपने तथाकथित स्वजन परिजनों को भी असन्तुष्ट करना पड़ा है और उनके परामर्श अनुरोधों और आग्रहों को विनय पूर्वक अस्वीकार करना पड़ा है। मनुष्य की सामान्य प्रकृति परम्परा प्रिय है। हर किसी को प्रचलित और अभ्यस्त ढर्रा ही सुहाता एवं सही लगता है। ऐसी दशा में अपना स्वभाव, अभ्यास भी ढर्रे का ही समर्थन करता है। हितैषी शुभ चिन्तक भी इसी दृष्टिकोण को अपना कर सोचने और भले- बुरे का निर्णय करते हैं। यही प्रमुख अवरोध है जिनके कारण आदर्शवादिता अपनाने की हानियाँ समझी और समझाई जाती है। उठती हुई उमंगें इन्हीं चट्टानों से टकराकर आमतौर से बिखरती छितराती और अस्त- व्यस्त होती देखी जाती हैं।

गीता के कृष्ण- अर्जुन संवाद का प्रमुख विषय यही है। जो कुछ कहा सुना गया है उसका एकमात्र उद्देश्य इतना ही था कि सामयिक स्वार्थ परता की दूरदर्शिता से ऊपर उठकर दूरगामी सत्परिणामों पर गम्भीरता पूर्वक विचार किया जाय। कृष्ण के इस परामर्श को जब अर्जुन ने स्वीकार कर लिया तो वह दूरदर्शी बना और उस दूरदर्शिता ने भगवान के द्वारा किये गये महान कार्य का अनायास ही श्रेयाधिकारी बना दिया। जागृत आत्माएँ यदि युग देवता के अनुरोध को सुन सके, तो वे भी अर्जुन की तरह ही भगवान के निकटतम स्वजनों में गिने जाने और महानता का समग्र श्रेय पाने का सौभाग्य अर्जित कर सकती हैं।

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