देवियो, भाइयो!
ज्ञानयोग, कर्मयोग के संदर्भ में मैं आप से पिछले दिनों चर्चा कर रहा था कि आपको दूरदर्शी तथा विवेकवान् होना चाहिए। आपको अपने कर्तव्य के प्रति सजग होना चाहिए, जैसे कि महापुरुष अपने कर्तव्यों के प्रति सजग रहते हैं। ज्ञानयोग और कर्मयोग के बाद एक मुख्य योग रह जाता है, जिसका नाम- भक्तियोग है। हम उस योग की बात कर रहे हैं, जो आदमी को भगवान् से जोड़ देता है। आत्मज्ञान इनसान को भगवान् से जोड़ देता है। आज हम इसी भक्तियोग के बारे में ही आप से चर्चा करना चाहते हैं।
आज भक्ति के संदर्भ में लोगों के विचार विकृत हो चुके हैं। आज भावसंवेदना को, रोने को लोगों ने भक्तिभाव समझ रखा है। देवी के सामने नाक रगड़ना, उनके सामने रोना- यह भक्ति नहीं कहलाती है। उलटा बैठ जाना, सीधा बैठ जाना, आँसू बहाना- यह भक्ति नहीं है। यह भावुकता है, भक्ति नहीं। जहाँ तक आध्यात्मिक प्रगति एवं भक्ति के स्वरूप का संबंध है, यह सही नहीं है।
भक्ति किसे कहते हैं- इसका सीधा सादा मतलब है प्यार- मोहब्बत जिसके अंदर यह होता है, वह भावना से लबालब भरा होता है। प्यार से बड़ी कोई चीज नहीं है। इसी की तलाश में जीवात्मा रहता है। आनंद