गीत संजीवनी-1

गढ़ फिर कोई दीप नया

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गढ़ फिर कोई दीप नया तू, मिट्टी मेरे देश की॥
सरगम- सारे रेग, गम....॥
अन्धी हुई दिशायें सारी, यों अँधियारी छा रही।
किरण तोड़ती साँस रोशनी, जीने को छटपटा रही॥
ऐसा कुछ ठहराव आ गया, आज विश्व की राह में।
पथ भूले बंजारे जैसी, पीढ़ी चलती जा रही॥
कोई बाँह पकड़ ऐसे में, सही दिशा का ज्ञान दे-
सख्त जरूरत आज जगत् को, उस सच्चे दरवेश की॥
देवभूमि यह जन्म दिये, जिसने अनगिन अवतार को।
ज्योति शिखा बन हरती आई, यह जग के अँधियार को॥
हमको है विश्वास की धरती, बाँझ नहीं इस देश की॥
फिर से कोई नया मसीहा, देगी इस संसार को॥
इसकी मिट्टी उड़कर बैठी, सूरज के भी भाल पर-
नित उभरी आवाज यहाँ से, शान्ति, प्रेम सन्देश की॥
यद्यपि प्रलयंकारी घन से, घिरा हुआ आकाश है।
फिर भी मानव के भविष्य से, मेरा मन न निराश है॥
शायद इसी मोड़ के आगे, मानव का निज लक्ष्य हो।
इसी तिमिर के पीछे शायद, कोई नया प्रकाश हो॥
जब तक मेरा देश मनुजता, होना नहीं निराश तू-
निकट जन्म वेला है शायद, किसी नये अवधेश की॥
गढ़ फिर कोई....॥
मुक्तक-
तुम्हीं से देश मेरे विश्व, फिर आशा लगाए है॥
तेरा इतिहास गरिमामय, कथाओं को छुपाए है॥
मनुजता फिर दुःखी है, तिमिर चारों ओर छाया है॥
उगे फिर ज्ञान का सूरज, जगत आँखें बिछाए है॥

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