गीत संजीवनी-1

गुरु रुप की तुम्हारे

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‘गुरु रुप की तुम्हारे अब कल्पना करेंगे।
लेकिन पिता! तुम्हें हम कैसे भुला सकेंगे॥
गुरु रूप में दिया जो, वह ज्ञान याद तो है।
जो भी सृजन किया वह हर ग्रंथ साथ तो है॥
उस ज्ञान का सहारा, हमको प्रकाश देगा।
गुरुवर! सृजन तुम्हारा उत्साह आश देगा॥
कहकर ‘पिता’ मगर हम किसको बुला सकेंगे॥
देता जिसे पिता ही, वह प्यार अब कहाँ है।
कन्धे कहाँ पिता के, आधार वह कहाँ है॥
वे हाथ अब कहाँ है, जो थपथपा रहे थे।
वे नयन अब कहाँ, जो ममता लुटा रहे थे॥
अब कौन पितृ ममता को छलछला सकेंगे॥
बोलो जहाँ कहीं हो, विश्वास तो हमें दो।
विस्मृत नहीं करोगे, आभास तो हमें दो॥
छाया बनी रहेगी, हम पर पिता सदा ही।
वात्सल्य भावना से होगी नहीं जुदाई॥
हम इस तरह दिलासा, दिल को दिला सकेंगे॥
कोई न कह सके यह, हम हैं बिना पिता के।
हो हौसले हमारे, इतने बुलन्द बाँके॥
बन भव्य भावनायें, मन में विहार करना।
हम भटकने न पायें, हर क्षण विचार करना॥
हैं साथ में पिता, यह जग को बता सकेंगे॥
मुक्तक-
मिला जो प्यार गुरुवर से, उसे कैसे भुलायेंगे
पिता- माता,गुरू,भगवान, सब कुछ कहाँ पायेंगे॥
अगर संवेदना में छलछलाते रहें, वे प्रतिपल।
तो निश्चित ही सृजन पथ पर, उन्हें हम साथ पायेंगे॥    
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