गीत संजीवनी-10

लाँघ चला सारी सीमाएँ

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लाँघ चला सारी सीमाएँ- तोड़ चला जंजीर रे।
सारे बन्धन तोड़ हुआ, यह मनवा मस्त फकीर रे॥

हमने घर परिवार न छोड़ा- स्वजनों का भी प्यार न छोड़ा।
जिसका ऋण है जनम- जनम का- वह सारा संसार न छोड़ा॥
अपनी जैसी लगी हमें तो- सबके मन की पीर रे॥

क्षुद्र स्वार्थ से नाता तोड़ा- रिश्ता सारे जग से जोड़ा।
श्रेष्ठ लोकमंगल के पथ पर- हमने हर चिन्तन है मोड़ा॥
जनहित के कारण अब तो- बस साधन हुआ शरीर रे॥

आडम्बर न सुहाता हमको- नहीं प्रदर्शन भाता हमको।
धरतीपुत्रों के पद रज कण- हैं पावन सुखदाता हमको॥
चन्दन सी इस मातृभूमि की- माटी बनी अबीर रे॥

सज्जनता को- नमन करेंगे- दुश्चिन्तन का दमन करेंगे।
जीवन भर जन सेवा में हम- गुरुवर का अनुगमन करेंगे॥
संस्कृति की रक्षा को आये- बन सच्चे युगवीर रे॥

मन में संवेदना भरेंगे- मुख से शीतल वचन झरेंगे।
जप- तप तीरथ भले न हों पर- हम सेवा साधना करेंगे॥
हर दुखियारे का आँसू है- पावन गंगा नीर रे॥

मुक्तक-

जब तक सुविधा में रस देखा- जीता था मजबूरी में।
जब मन ने पर पीर बँटायी- रहता मस्त फकीरी में॥

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