गीत संजीवनी-10

रे मन जीवन धन्य

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रे मन जीवन धन्य बना ले॥
युग तीरथ में आ के- गुरूवर को शीश झुका के।
माँ को निज व्यथा सुना के- श्रद्घा के सुमन चढ़ा ले॥

हमें सजल श्रद्घा दो माता- तेरे पूत कहायें।
गुरुवर हमें प्रखर प्रज्ञा दो- सद्कर्तव्य निभायें॥
जीवन भर निःस्वार्थ रहें हम- जी भरकर परमार्थ करें हम॥
प्रज्ञा ज्योति जगा ले॥

जन- जन में देवत्व जगायें- ऐसी कला सिखा दो।
सबको दें अपनत्व हृदय में- इतना प्यार जगा दो॥
इस जीवन को सफल बना लें- ऋषियों जैसा पथ अपना लें॥
शुभ संकल्प जगा ले॥

दुष्प्रवृत्तियों का अन्धियारा- जग से दूर हटा दें।
सद्प्रवृत्तियों के प्रकाश से- दुनियाँ को चमका दें॥
ऐसी शुभ सामर्थ्य जगा लें- मन का सब अभिमान गला दें॥
वह प्रतिभा विकसा ले॥

गुरु की ज्योति करें हम धारण- स्वयं दीप बन जायें।
समय और प्रतिभा,धन,साधन- प्रभु को भेंट चढ़ायें॥
यह जीवन प्रभु में घुल जाये- अपना शेष न कुछ रह जायें॥
निर्मल भक्ति जगा ले॥

मुक्तक-

गुरु चरण में लग गया मन- धन्य तू हो जायेगा।
देव दुर्लभ देह पाने का- अरे फल पायेगा॥
सध गया तू! सब सधेगा- बचा रहेगा कुछ नहीं ॥
सिद्धियाँ पीछे फिरेंगी- सिद्ध तू हो जायेगा॥

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