संस्कृति रही कराह, न मेरा रूप बिगाड़ो रे।
अगर मनुजता को सँवारना, मुझे निखारो रे॥
ऋषियों को सादा जीवन ही, जीना था भाया।
विश्ववन्द्य ऊँचे विचार से, भारत कहलाया॥
मन अपना प्रत्यक्ष देवता, उसे निखारो रे॥
ऋषि दधीचि ने जीवन देकर, इसकी शान रखी।
उसे बचाने बिके हरिश्चन्द्र, शैव्या साथ बिकी॥
भोगवाद के चक्कर में मत, उसे बिसारो रे॥
इसे सँवारा अनुसुइया ने, कुन्ती मीरा ने।
शंकर, ज्ञानेश्वर, नानक, चैतन्य, कबीरा ने॥
भेदभाव से ऊँच- नीच से, इसे उबारो रे॥
युगधारा को चला बदलने, कोई युग शिल्पी।
उसे सांस्कृतिक परिधानों की, देने शोभा भी॥
देवोपम संस्कृति से युग का, रूप निखारो रे॥
संस्कृति बची अगर तो, मानवता बच जायेगी।
यदि न बची तो मानव में, पशुता आ जायेगी।
क्या पशुता स्वीकार विश्व को, तनिक विचारो रे॥