हम लौह खण्ड ही हैं- पारस हमें छुला दो।
हैं आप सिद्ध पारस- सोना हमें बना दो॥
नीरस हुआ है जीवन संवेदना नहीं है।
है प्राण, पर उछलती सद्प्रेरणा नहीं है॥
अमृत कलश! छलककर- अमृत हमें पिला दो॥
मृग सा भटक रहे हैं, हो कामना ग्रसित हम।
हे आप्तकाम गुरुवर! हो कामधेनु ही तुम॥
पय तृप्ति का पिलाकर- निष्काम ही बना दो॥
हम कल्पना जगत् में, रहते सदा भटकते।
मिलती न शान्ति छाया- रहते हैं सिर पटकते॥
हे कल्पवृक्ष! अपनी छाया सुखद दिला दो॥
‘गुरुमन्त्र’ आपका ही, आकार हो गया है।
‘प्रज्ञास्वरूप’ ही तो, साकार हो गया है॥
आनन्दकन्द! हमको, आनन्द रस चखा दो॥
‘
प्रज्ञा- प्रकाश’ में हम, बढ़ते चलें निरन्तर।
सोपान- साधना के, चढ़ते चलें निरन्तर॥
‘उज्ज्वलभविष्य’ से अब, अविलम्ब ही मिला दो॥
मुक्तक-
पारस, अमृत, कल्पवृक्ष अरु, कामधेनु का नाम सुना है।
पता नहीं किसके द्वारा यह, ताना- बाना गया बुना है।
इन चारों से लाभ उठाकर, दुनियाँ को जादू बतलाने।
जीवन में प्रयोग करने को, गुरुवर हमने तुम्हें चुना है॥