नया युग क्यों न आयेगा? जगतहित में मरेंगे हम।
न कैसे आयेगी गंगा? भगीरथ श्रम करेंगे हम॥
बहुत प्यासी हुई धरती, चुका है प्यार का पानी।
न दिखते अब कहीं गौतम, विचरते कंस अभिमानी॥
बढ़ा है ताप छल का द्वेष का, कटुता विषमता का।
उड़ा मानव हृदय से नाम भी, करुणा व ममता का॥
मगर घन क्यों न छायेंगे? सजल ऊष्मा भरेंगे हम॥
बहुत फैला हुआ है भूमि पर, अज्ञान निशि का तम।
बढ़ी हैं रूढ़ियाँ औ अन्धतायें, ज्ञान दिखता कम॥
मनुष्यों को लिया है बाँध इनने, बन कठिन बेड़ी।
बदलनी हैं समाजों की, निरकुंश नीतियाँ टेढ़ीं॥
क्यों न तम मिटेगा रवि बन, किरण निशि को हरेंगे हम॥
अशिव को मेटकर शिव, नीतिमय दुनियाँ बसाना है।
मनुज की सो गई है जो, वही आस्था जगाना है॥
चले विज्ञान अब अध्यात्म का, कर थामकर जग में।
चलेंगे रौंदते कण्टक चुभेंगे, जो सुदृढ़ पग में॥
विजय श्री क्यों न पायेंगे, कर्म पथ को वरेंगे हम।
जलाकर धर्म दीप को, मनुज मन में धरेंगे हम॥
मुक्तक-
सब कुछ संभव हो जाता है, जब पुरुषार्थ किये जाते हैं।
काम अधूरा कभी न रहता, जिसमें हाथ दिये जाते हैं॥
स्रष्टा ने संकल्प किया है, नवयुग का क्यों सृजन न होगा?।
स्वर्ग उतर आता धरती पर, जब संकल्प लिए जाते हैं॥