गीत संजीवनी-7

पाकर जन्म पिता के घर

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पाकर जन्म पिता के घर में देनी पड़ी विदाई।
हाय! विधाता फिर क्यों तूने नारी देह बनाई॥
ओऽऽऽ तुमको आज विदाई॥

करुणा की मृदुमूर्ति बिटिया- ममता की मणिमाला।
आँगन की साकार स्वर्ग तुम- तुम्हें गोद में पाला॥
बाबुल का घर छोड़ आज तुम- होने चली पराई।
ओऽऽऽ तुमको आज विदाई॥

बहनों के संग हँसीं और- तुम बहनों के संग खेली।
माँ के लिए सहारा थी तुम- माँ के लिए सहेली॥
डोली तेरी उस माँ ने ही- अपने हाथ सजाई।
ओऽऽऽ तुमको आज विदाई॥

घर की कोई वस्तु न जिसको- तुमने कभी छुआ हो।
कोई ऐसा काम न तुझसे- पूछे बिना हुआ हो॥
आज बिना पूछे ही तुमको- दी जा रही विदाई।
ओऽऽऽ तुमको आज विदाई॥

तुम जाओगी चली, बिलखता रह जाता सूना घर।
देख वस्तुएँ तेरी- उमड़ेगा यादों का सागर॥
कौन बँधायेगा धीरज- यह पीड़ा अति दुःखदाई।
ओऽऽऽ तुमको आज विदाई॥

जिस घर रहो कुबेर वहाँ पर- तेरा भवन बुहारें।
सूर्य- चन्द्र आकर प्रतिदिन- तेरी आरती उतारें॥
सुख, समृद्धि, सौजन्य तुम्हारे- रहें सदा अनुयायी।
ओऽऽऽ तुमको आज विदाई॥

हमको तो बस याद तुम्हारी, जीवन भर करना है।
आँसू पी- पीकर प्राणों की- पीड़ा को हरना है॥
तुम पर कृपा किन्तु ईश्वर की- रहे सदा ही छाई।
ओऽऽऽ तुमको आज विदाई॥

जाओ मेरे प्राण, कभी फिर आँसू नहीं बहाना।
जिस घर में जीवन कटना है- उसको ही अपनाना॥
अमर रहे अहिवात तुम्हारा- युग जिए सगाई।
ओऽऽऽ तुमको आज विदाई॥

मुक्तक-

जब तक अम्बर में सूर्य, चन्द्र- जब तक गंगा की धार बहे।
तब तक इस नवदम्पति का जग में, अजर अमर शुभ प्यार रहे॥
कर चली पिता का घर सूना- माता की कर गोदी खाली।
तू बेटी अब ससुराल चली- हम किसे कहेंगे अब लाली॥
मात पिता को छोड़कर- बिटिया जाये परदेश।
पत्थर से पत्थर हृदय- सह न सकें यह खेद॥

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