गीत संजीवनी-7

परिवर्तन के बिना न होता

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परिवर्तन के बिना न होता विभीषिका का नाश।
मूर्धन्यों जागो औरों से, रही न कोई आश॥

मानव के चिन्तन चरित्र में, आज असुरता छाई।
पाप पतन में रस लेने की, वृत्ति सभी में आई॥
है अभाव से दुःखी राष्ट्र, जनसंख्या बढ़ती जाती।
अणु युद्धों की होड़ लग रही, मानवता अकुलाती॥
प्रकृति क्षुब्ध हो उठी आज फिर, सहा न जाता त्रास॥

ऋतु बसन्त आने से पहले, पतझड़ हो जाती है।
नव शिशु को पाने से पहले, माँ पीड़ा पाती है॥
नये भवन के लिए पुराने, खण्डहर ढाये जाते।
ढाये खण्डहर की छाती पर, नये उठाये जाते
चन्द्रगुप्त चाणक्य बदलते, इसी तरह इतिहास॥

अवतारों की परम्परा है, परिवर्तन लाने कोल
दिव्य चेतना धारण करती, इस मानव बाने को॥
परिवर्तन हो गया जरूरी, युग की पीड़ा हरने।
प्रज्ञा का अवतार हो रहा, नयी चेतना भरने॥
हम भी शिवा समर्थ सरीखा, भरें नया विश्वास॥

जन मानस के दृष्टिकोण को, फिर बदला जाना है।
परशुराम का और बुद्ध का, क्रम फिर दुहराना है॥
मानव में देवत्व उदय कर, धरती स्वर्ग बनाना।
मानवता को पाप पतन से, अब है मुक्त कराना॥

मुक्तक-

परिवर्तन आवाहन करता प्रतिभाओं का आज।
पाप- पतन से ग्रसित हुआ है, सारा मनुज समाज॥
नए भवन के लिए बनें हम, तपी तपाई ईंट।
जिससे सुदृढ़ नींव बन सके, नए भवन के काज॥
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