माँ उमड़ती जब हृदय में, सजल सलिला स्नेहधारा।
और भी संकल्प दृढ़, होता चला जाता हमारा॥
हम हृदय भारी लिए, जब भी गये द्वारे तुम्हारे।
या अनेकों परिचितों के, बीच बनकर बे सहारे॥
दुःख अकेलापन हृदय का, सब भुलाकर लौट आये॥
यूँ तुम्हारे स्नेह की, शीतल फुहारों में नहाये॥
मातृ ममता के मलय, भीगे पवन का पा सहारा॥
पूज्य गुरुवर का सहज, संकेत अब आदेश होगा।
अब तितिक्षा- त्याग, वाला बसन्ती वेश होगा॥
अब इसी सद्वेश में हर, द्वार- घर तक जायेंगे हम॥
ज्ञानगंगा में समूचे, विश्व को नहलायेंगे हम॥
मातृ- भू ने देवसंस्कृति, के लिए है कर पसारा॥
है समय थोड़ा मगर, उतने अधिक श्रम से बढ़ेंगे।
माँ! उमंगों से भरेंगे, किन्तु संयम से बढ़ेंगे॥
रोक पायेंगी नहीं, शीतल सघन अमराइयाँ भी॥
टोक पायेंगी न, पथरीली डगर या खाइयाँ भी॥
क्योंकि हर भटकाव से, हमको बचाता पथ तुम्हारा॥
अब गुलाबी रंग प्राची में, क्षितिज पर छा रहा है।
हर थका पग लक्ष्य पाने, को पुनः अकुला रहा है॥
अब धरा, नभ में न तम की, कष्टप्रद कारा रहेगी।
चेतना, उल्लास, आशा, की सतत् धारा बहेगी।
आज प्राणों की समर्पित, सतत् अपनी वसोधारा॥