मन्दिर समझो, मस्जि़द समझो, गिरजा समझो या गुरुद्वारा।
यह युग निर्माण का मन्दिर है, आता है यहाँ हर मतवाला॥
हिन्दू, मुस्लिम, सिक्ख, ईसाई, सब एक डोर से बँधे यहाँ।
यहाँ ऊँच- नीच का भेद नहीं, सबका है बराबर मान यहाँ॥
यह विश्व प्रेम का मन्दिर है, हर जन है यहाँ सबको प्यारा॥
साधन आराधन अर्चन में, जो मिलकर हाथ बँटाते हैं।
वे धर्म, अर्थ और काम, मोक्ष का, लाभ सहज ही पाते हैं॥
यहाँ भक्ति- प्रेम के संगम की, बहती है सदा निर्मल धारा॥
निष्काम भाव से जो आकर, चरणों में शीश झुकाते हैं।
समझो कि बिना कुछ माँगे ही, पल में सब कुछ पा जाते हैं।
पावन चरणों में लोट रहा, जल, थल, नभ का वैभव सारा॥
यहाँ वेद पुराण कुरान, बाइबिल पर चर्चाएँ होती है।
हर देश- प्रदेश कि भाषायें, इस मंच से मुखरित होती है॥
यह सर्वधर्म का महामंच, हर धर्म यहाँ सबको प्यारा॥
यहाँ रामचरित और गीता की, अमृत- सी वर्षा होती है।
माँ गायत्री के मन्त्रों की, पावन ध्वनि गुँजित होती है॥
नित राग, रंग, रस निर्झर की, बहती उन्मुक्त विमल धारा॥
मुक्तक-
इधर मन्दिर उधर मस्जि़द, ये गुरुद्वारा वहाँ गिरजा।
ये चारों घर प्रभु के हैं, जिधर चाहे उधर को जा॥
मजहब नहीं सिखाता- आपस में बैर रखना।
इन्सान को जहाँ में- इन्सान बन के रहना॥