युगऋषि ने युग का तम हरने- क्रान्ति मशाल जलाई।
दृढ़ता की परिचायक इसको- थामे सबल कलाई॥
एक बार भर दिया प्राण रस- इसमें ऋषि ने अपना।
रहे प्रकाशित यह सदैव- देखा है ऐसा सपना॥
यह युग व्यापी अन्धकार तब- ही तो मिट पायेगा।
गौरव वह प्रकाश का फिर से- जग में जग जायेगा॥
तुम्हीं इसे प्रज्वलित रखोगे- ऐसी आश लगाई॥
याद रहे युग- युग तक इसका- स्नेह न चुकने पाये।
भले हमारे रक्त कोष की- बूँद चुक जाये॥
हृदय न हो संकीर्ण- अंश अपना देते रहने में।
प्राण न सकुचाये जग में- अपना प्रकाश भरने में॥
युगों- युगों तक यह जगती में- फैलाये अरुणाई॥
संकल्पों की निष्ठा इसको- थामे सदा रहेगी।
तम का अन्तिम संस्कार कर- जय की कथा कहेगी॥
ऊँचा सदा रहेगा हाथ न- नीचे कभी झुकेगा।
लक्ष्य प्राप्ति से पूर्व न सृजन- कारवाँ कभी रुकेगा॥
ज्योति रहे जगमग जगती पर- अरुण लालिमा छाई॥
मुक्तक-
मशालें क्रान्ति की तप, त्याग से ऋषि ने जलाई हैं।
बड़े अरमान लेकर सृजन सेना को थमाई हैं॥
जलाये रखें श्रम, साधन, समय, प्रतिभा लगाकर हम।
नये युग आगमन की यह, विधि ऋषि ने बताई है॥