कर रहा है मनुज पाप
कर रहा है मनुज पाप किसके लिए।
जिन्दगी है अरे चार दिन के लिए।।
तृप्त होती कभी भी न ये इन्द्रियाँ।
चाट जाती सभी भोग सामग्रियाँ॥
ये न छकती भले सौ बरस ही जिएँ॥
लाड़ले पुत्र थे लाड़ली पुत्रियाँ।
और अनुचित उचित माँग की पूर्तियाँ॥
व्यर्थ कोल्हू बने आप उनके लिए॥
एक दिन शक्ति का स्रोत चुक जायेगा।
साँस का सिलसिला जबकि रूक जायेगा॥
फूक देंगे जियें आप जिनके लिए॥
यह मनुज जन्म क्या इसलिए ही मिला।
भोग का वासना का चले सिलसिला॥
क्या विचारा कभी एक क्षण के लिए॥
और भी हैं कोई चाहते प्यार जो।
चाहते आपकी स्नेह की धार जो।
बूंद भी क्या नहीं दीनजन के लिए॥
दीन को आपका यदि सहारा मिले।
डूबते को सहज ही किनारा मिले।
अंश ही दान दो युग सृजन के लिए॥