कैसे बिसराये उन गुरु को
कैसे बिसरायें उन गुरु को॥
भूले भटके इस जीवन को, जिनने दिया अपार सहारा।
तम से मुक्त कराने हमको, जिनने तोड़ी तम की कारा॥
जकड़े थे बन्धन माया के, पकड़े थे पिंजड़े काया के।
दिशाहीन हो निरालम्ब हो, भटक रहे थे ज्यों बंजारा॥
तम की लहरें थीं तूफानी, तब भी करते थे नादानी।
तब प्रकाश बन हाथ बढ़ाया, चीरी गहरे तम की कारा॥
खींचा हमको मझधारों से, बाँध लिया स्नेहिल तारों से।
डूब रहे को तिनके का क्या, नैय्या का मिल गया सहारा॥
दिव्य पिता का प्यार मिला फिर, माँ का मधुर दुलार मिला फिर।
थे अनाथ पहिले लेकिन अब, वसुधा है परिवार हमारा॥
महाप्राण की सुन गुरु वाणी, प्राणों को मिल गई जवानी।
गुरु के गीत गुन- गुनाता अब, क्षण- क्षण साँसों का एक तारा॥
नाचना गाना और बजाना मनुष्य समाज की सुखद
कलायें हैं, यदि यह न हो तो मनुष्य जीवन जैसा नीरस और कुछ न रह जायेगा।
- (वाङ १९ पृ. ६.१९)