गीत माला भाग १०

बात कोरी न केवल करो

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बात कोरी न केवल करो

बात कोरी न केवल करो धर्म की-
धर्म मय ही बनाओ अभय आचरण।

धर्म अग्नि का है दान ऊष्मा करे-
धर्म जल का है ठण्डक सभी में भरे।

पर सदा अग्नि जलती स्वयं ही प्रथम-
और शीतल बनाती भी है स्वयं॥

धर्म इन्सान का शुद्ध परमार्थ है-
सब करें विश्व हित का महाव्रत वरण॥

सूर्य तपकर स्वयं ताप देता सदा-
प्राण इस विश्व को बाँटता सर्वदा।

शीत सहता हिमालय गलन भी बहुत-
अनवरत कर रहा नीर को तब निसृत॥

दीप बनकर चलेगा मनुज जब स्वयं-
कर सकेगा तभी विश्व का तम हरण॥

कुछ न होता सहज भाषणों से यहाँ-
चाहिए कर्म का आचरण भी यहाँ।

बात वह ही सदा अनुकरण में ढली-
कर्म की ज्योति में स्नेह बन जो ढली॥

तुम अतः गति वही निज पगों में भरो-
विश्व में चाहते जिस तरह अनुकरण॥
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